देश के किसी न किसी राजनीतिक दल द्वारा समय-समय पर आहूत किया जाने वाला 'भारत बंद' का प्रभाव गत् 31 मई को भी देश के बड़े हिस्से में देखने को मिला। इस बार का भारत बंद का आह्वान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों के साथ-साथ वामपंथियों द्वारा भी किया गया था। मज़े की बात तो यह है कि इस बार के भारत बंद में विपक्षी पार्टियों के अतिरिक्त संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के तृणमूल कांग्रेस व समाजवादी पार्टी जैसे सहयोगी दल भी शामिल थे। ज़ाहिर है जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं उन राज्यों में बंद का प्रभाव अधिक देखने को मिला। कारण था कि ऐसे राज्यों में बुलाया गया बंद गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों द्वारा प्रायोजित व समर्थित था। पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल की कीमत में अचानक साढ़े सात रुपये प्रति लीटर की दर से मूल्य वृद्धि किए जाने के विरोध में विपक्षी दलों ने इस बंद का आह्वान किया था। आमतौर पर भारतीय जनता पार्टी के साथ किसी भी कार्यक्रम को सांझा न करने वाले वामपंथी दल भी इस बार भाजपा के साथ इस बंद में शामिल हुए।
पहले ही की तरह इस बार भी भारत बंद के आह्वान के दौरान देश के कई स्थानों पर सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाने,आगजऩी, तोडफ़ोड़, उपद्रव, पत्थरबाज़ी व हिंसा की कई घटनाएं हुई। दर्जनों स्थानों पर रेल यातायात बाधित किए गए तथा दर्जनों बसें फूंक डाली गई। सबसे अधिक नुकसान भाजपा शासित राज्य कर्नाटक में हुआ जहां दर्जनों बसों में तोडफ़ोड़ की गई तथा कई बसें आग के हवाले कर दी गईं। उपद्रवियों ने बैंगलोर के डिपो में खड़ी कर्नाटक परिवहन निगम की दो बसों को तो प्रात: 8 बजे से पूर्व ही डिपो के भीतर जाकर आग के हवाले कर दिया। निश्चित रूप से इस राष्ट्रव्यापी बंद के दौरान सरकार को हज़ारों करोड़ रुपये की क्षति पहुंची है। जिसका खामियाज़ा भी आखिरकार उसी आम आदमी को अदा करना पड़ेगा जिसकी भलाई के नाम पर भारत बंद का आह्वान किया गया था। कहने को तो विपक्षी दलों तथा कुछ संप्रग सहयोगी दलों द्वारा यह बंद पेट्रोल में हुई बेतहाशा मूल्यवृद्धि के विरोध में ज़रूर किया गया था परंतु माना जा रहा है कि इस समय चूंकि विपक्षी पार्टियों तथा तृणमूल कांग्रेस व समाजवादी पार्टी जैसे संप्रग सहयोगी दलों की निगाहें अब 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर लगी हुई हैं इसलिए सभी विपक्षी दल आम जनता के मध्य अपनी लोकप्रियता अर्जित करने हेतु जनता के साथ खड़े होने व उनके अधिकारों हेतु संघर्ष करते हुए दिखाई देना चाह रहे हैं।
विपक्षी दलों द्वारा भारत बंद के दौरान ज़ोर देकर यह बार-बार प्रचारित करने की कोशिश की गई कि पेट्रोल का मूल्य साढ़े सात रुपये प्रति लीटर बढ़ाने वाली संप्रग सरकार विशेषकर कांग्रेस पार्टी जन विरोधी है तथा गरीबों की दुश्मन है। यहां एक बात काबिलेगौर है कि पेट्रोल की खपत करने वाला वर्ग गरीब नहीं बल्कि मध्यम तथा उच्च वर्ग ही होता है। देश का आम गरीब आदमी जिसे कि दाल, रोटी व सब्ज़ी के लाले पड़े हों वह पेट्रोल खरीदने या उसकी कीमत बढऩे-घटने से आखिरकार क्या वास्ता रख सकता है? क्योंकि गरीब आदमी के पास न तो स्कूटर, मोटरसाईकल होती है और न ही पेट्रोल से चलने वाली कारें। ऐसे में प्रश्र यह है कि बंद का आह्वान करने वाले दलों का गरीब लोगों के साथ खड़े होने का दिखावा करना महज़ एक दिखावा ही है या फिर इसमें कुछ हकीकत भी है। और यदि बंद आहूत करने वाले राजनैतिक दल वास्तव में गरीबों के हितैषी हैं तो इनका बंद सब्ज़ी,दाल,अन्न, मिट्टी का तेल, कोयला, लकड़ी, तेल-साबुन जैसी रोज़मर्रा इस्तेमाल में आने वाली वस्तुओं की निरंतर होती जा रही मूल्यवृद्धि के विरुद्ध होना चाहिए था न कि मध्यम वर्ग के प्रयोग में आने वाले पेट्रोल की कीमत बढ़ाए जाने को लेकर।कहा जा सकता है कि विपक्षी दलों ने मध्यम वर्ग को ही अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तथा 2014 के चुनाव को मद्देनज़र रखते हुए इस 31 मई के बंद का आह्वान किया था।
हालांकि कांग्रेस पार्टी द्वारा इस बंद को असफल बताया जा रहा है जबकि बंद में शामिल राजनैतिक दल इसे पूरी तरह सफल बता रहे हैं। राजनैतिक दल बंद की सफलता का अर्थ यह लगाते हैं कि जनता उनके साथ है तथा उनके आह्वान को अपना समर्थन देते हुए उसने अपने प्रतिष्ठान,कार्यालय,कारोबार तथा दिनचर्या को स्वेच्छा से स्थगित रखा। परंतु इस सफलता का कारण दरअसल आमतौर पर जनता की भागीदारी नहीं हुआ करती बल्कि बंद में शामिल मु_ी भर लोग आतंक फैला कर ज़ोर-ज़बरदस्ती से या तोडफ़ोड़ व हिंसा का सहारा लेकर व भय फैला कर बंद को सफल बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में यदि राज्य सरकारें भी बंद में शामिल हों या बिहार में सत्तारुढ़ दल के शरद यादव जैसे नेता अपनी गिर तारी देते दिखाई दे रहे हों फिर तो बंद की कामयाबी स्वयं ही सुनिश्चित हो जाती है। ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम-काज को ठप्प किए जाने का प्रयास दिल्ली में तमाम भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया। इन्हें दिल्ली प्रशासन ने गिर तार कर लिया। यह प्रदर्शनकारी कई मैट्रो स्टेशन के बाहर खड़े होकर रेल यात्रियों को उनके काम पर जाने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। परंतु चूंकि इन प्रदर्शनकारियों को मैट्रो स्टेशन के भीतर घुसने नहीं दिया गया इसलिए दिल्ली की मैट्रो सेवाएं निर्बाध रूप से संचालित होती रहीं।
बंद का आह्वान करने वाले राजनैतिक दलों का हमेशा यह दावा करना कि उनका यह आह्वान लोकहितकारी तथा आम लोगों के पक्ष में होता है यह हरगिज़ सही नहीं कहा जा सकता। क्योंकि विरोध प्रदर्शन के इस राष्ट्रीय स्वरूप के परिणामस्वरूप कभी सरकारें झुकी हैं या उनके विरोध का कोई लोकहितकारी नतीजा निकला हो ऐसा तो प्राय: कम ही देखने को मिलता है। जबकि ठीक इसके विपरीत जनता को पहुंचने वाले नुकसान व परेशानियों के रूप में भारत बंद या राज्यव्यापी बंद के दुष्परिणाम तत्काल ही सामने आने शुरु हो जाते हैं। बिहार इस मामले में देश का सबसे दुर्भाग्यशाली ऐसा राज्य है जहां अक्सर बंद का आह्वान किसी न किसी राजनैतिक दल द्वारा होता रहता है।
गत् 10 मई को भी बिहार बंद का आह्वान राज्य की सीपीआई एम(माले)द्वारा किया गया था। इत्तेफाक से उस दिन मैं भी बिहार में था तथा इस बंद के दौरान आम लोगों की जिंदगी पर पडऩे वाले प्रभाव, आम लोगों के गुस्से तथा उनकी परेशानियों को बहुत करीब से देख रहा था। उस दिन सुबह से शाम तक मैंने सैकड़ों लोगों से बंद का आह्वान करने वाले राजनैतिक दलों के इस तथाकथित लोकहितकारी कदम के विषय में पूछा। मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो आए दिन होने वाले इस प्रकार के बिहार बंद का समर्थन करता हो। बजाए इसके प्रत्येक व्यक्ति बंद के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों को गालियां देते सुनाई दिए। जागरूक लोगों का मानना था कि पहले से ही खस्ता हालत से गुज़र रहे बिहार राज्य को इस प्रकार के बंद के परिणामस्वरूप और अधिक आर्थिक नुकसान का सामना तो करना ही पड़ता है साथ-साथ साधारण लोगों को यातायात सहित तमाम दैनिक जीवन संबंधी कार्यों के लिए भारी दिक्कत उठानी पड़ती है। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि ऐसे ही राजनैतिक दल व उनके नेता ही दरअसल बिहार की जनता व बिहार की बर्बादी के मु य रूप से जि़म्मेदार हैं। तमाम राजनैतिक सूझबूझ रखने वाले लोगों का यह भी कहना था कि जनता के बीच अपनी लोकप्रियता खो चुकने वाले राजनैतिक दल ऐसे तथाकथित लोकलुभावने प्रदर्शन कर स्वयं को जनता का हितैषी बताना चाहते हैं।
निश्चित रूप से विरोध प्रदर्शन, हड़ताल, धरना तथा बंद आदि अभिव्यक्ति की हमारी स्वतंत्रता तथा विरोध व्यक्त करने के हमारे मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आते हैं। परंतु आज हमारा देश जिस आर्थिक संकट, मंहगाई, मुद्रा अवमूल्यन, औद्योगिक संकट जैसी उन समस्याओं से जूझ रहा है जोकि सीधे तौर पर हमारे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली हों, ऐसे में भारत बंद जैसे आह्वान कर देश को और अधिक आर्थिक संकट में झोंके जाने का प्रयास कतई नहीं करना चाहिए। बजाए इसके विरोध प्रदर्शनों के ऐसे उपाय तलाश करने चाहिए जिनसे कि हमारे विरोध का स्वर भी मुखरित हो तथा आम जनता को कोई तकलीफ न होने पाए और राष्ट्रीय संपत्ति को भी कहीं कोई क्षति न पहुंच सके। मात्र अपने राजनैतिक लाभ के चलते या चुनावी रणनीति के मद्देनज़र इस प्रकार के बंद का आह्वान करना तो सर्वथा अनैतिक व अनुचित है।
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