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यमराज की बग्‍घी

यही वह घटना थी जिसके बाद छोटे ददन की निगाह फूला पर पड़ी थी. छोटे ददन अजकल पंचायत और आसपास की हर छोटी-बड़ी घटना पर बराबर नजर रखते थे और जन विकास पार्टी के हलका इंचार्ज होने के नाते सबकी-खासकर कमजोर, गरीब तबके के लोगों की हर लिहाज से मदद करते थे. थाना-तहसील, ब्लाक-कचहरी हर जगह उनका आना-जाना था. उन्हें दरअसल पंडितान के फिलाफ ही अपनी सियासी जमीन तैयार करनी थी. रियासतों का राज-पाठ खत्म होने के बाद धीरे-धीरे पंडितों ने हर मामले में बड़े ददन को चुनौती देनी शुरू कर दी थी और जब तक छोटे ददन कुछ समझने लायक हुए तब तक हक और ताकत की धुरी ददनपुर से हटकर पंडितान की तरफ जा चुकी थी. छोटे ददन ने पंडितान से उलट जन विकास पार्टी की पॉलिटिक्स इस धुरी को वापस ददनपुर की तरह मोड़ने के लिए भी पकड़ी थी.जन विकास पार्टी के लिए भी इस इलाके में छोटे ददन के अलावा पंडितान की कोई काट नहीं सूझ रही थी.

खैर फूला इस घटना के बाद काफी परेशान हो गई थी. उसके देवर के खार खाये दिल को भी जैसे कुछ ठंडक मिली-  ‘‘अब अइसी जानलेवा जवानी पै सबकै ईमान डोल जाये. अउर फिर पंडित-ठाकुर तौ राच्छस कै दूसर रूप हैं. हम कउन खाये जात रहिन भउजी तुहैं! हम कही कि ई जवानी आखिर बरबाद केहे का फायदा!’’ उसने फूला की तरफ देखकर एक साथ हमदर्दी और नसीहत दोनों दे डाली थीं. ऐसे में छोटे ददन ने फूला को बड़ा सहारा दिया और थाना-पुलिस तक फूला को साथ लिए भटके. परधान की थुक्का-फजीहत कराई सो अलग. फूला को देखकर वैसे भी छोटे ददन की नीयत डोल गई थी लेकिन वह यह भी जान गये थे कि बिना छोटी जातियों का भरोसा जीते राजनीत नहीं की जा सकती.

अब छोटे ददन आते-जाते बनपुरवा जरूर जाते और ज्यादा समय फूला के पास बैठकर बिताते और दुनिया-जहान की बातें करते. चलते-चलाते कुछ रुपये उसके हाथ पर रख देते. फूला को भी छोटे ददन का आसरा मिल गया था. धीरे-धीरे उसकी शुरुआती झिझक जाती रही. रोटी-रोटी की दिक्कत खत्म होने से उसका ध्यान अब अपने ऊपर भी जाने लगा था. वह छोटे ददन की निगाह समझने लगी थी और उसका मजा भी लूटने लगी थी. इतने दिन की तनहा जिन्दगी ने फूला को समझदार बना दिया था और छोटे ददन हर लिहाज से उसे पसन्द आ रहे थे. वह बस बात आगे बढ़ने का इंतजार कर रही थी. फिर एक दिन छोटे ददन ने उसके सिर पर अपना हाथ रख दिया. अगले दिन कन्धे पर और फिर छाती पर. और फूला ने उस हाथ को अपने दोनों हाथों से दबा लिया. जैसे जमाने से अकड़ी देह एकबारगी नरम पड़ गई थी. फिर खेत-बाढ़, सांझ-भिनसार छोटे ददन फूला की मदद करते रहे. थोड़े दिन बाद छोटे ददन ने फूला को दूसरा ही काम पकड़ा दिया था-  कोयरी, पासी और चमार को जन विकास पार्टी से जोड़ने का काम. फूला अब दुनियादार हो चली थी.और छोटे ददन ने तो एक तीर से कई निशाने मार गिराये थे.

सूबे में जन विकास पार्टी की सरकार बनने से पहले ग्राम पंचायत ददनपुर में परधानी का चुनाव हुआ और आजादी के बाद पहली बार पंडितान को हराकर छोटे ददन ने सरपंची हथियाई. फिर क्या था छोटे ददन का खानदानी रुतबा लौटने लगा. इस बीच फूला के बूढ़े सास-ससुर परलोक सिधार गये और रामराज पासवान ने बियाह कर बीवी-बच्चों के साथ गृहस्थी बसाई. छोटे ददन ने फूला को अपने महल के पास जमीन देकर एक कालोनी बनवा दी और इलाके में अपनी रखैल कहलाने का रुतबा दिया सो अलग. फूला ने भी छोटे ददन पर अपना सबकुछ वार दिया और बेफिक्र हो चली. इस तरह वक्त गुजरता गया और छोटे ददन अपने इलाके में जन विकास पार्टी के मजबूत नेता बन गये.

बाद का किस्सा मैं पहले ही सुना चुका हूँ कि अरसा बाद प्रदेश में भारी चुनावी जीत के साथ जन विकास पार्टी की सरकार बनी लेकिन ये बताना बाकी रह गया था कि इस जीत में छोटे ददन जैसे कई नेताओं और फूला जैसी कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान था. फिर सरकार ने छोटे ददन की कोई बात नहीं टाली. पंचायत का कोटा, ठेका-पट्टा सबकुछ उनकी मरजी से ही चला. सरकार ने उन्हें जिला पंचायत भेजने का फैसला भी कर लिया. इस बीच पंचायत की चैहद्दी फिर से तय हुई और ग्राम पंचायत ददनपुर का नाम बदलकर बनपुरवा किये जाने की सिफारिश सरकार से मनवाकर छोटे ददन ने फूला का तन-मन एक बार फिर जीत लिया और निचली जातियों में अपनी जगह पुख्ता कर ली. फिर पंचायत का आरक्षण बदला. आजादी के बाद से अबतक परधानी ‘सवर्ण’ जातियों के पाले में ही रही आई थी. सरकार ने इसे ‘अनुसूचित’ जाति के लिए सुरक्षित कर दिया. इसमें छोटे ददन की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन सबने यही माना कि यह उनकी तरफ से फूला रानी को एक और तोहफा था. फूला ने भी यही समझा और छोटे राजा पर तन-मन से वारी गई. और फिर जन विकास पार्टी की सरकार में जब पंचायत चुनाव हुए तो फूला रानी ग्राम पंचायत बनपुरवा की नई सरपंच बनीं और छोटे ददन ने जिला पंचायत में झंडा गाड़ा. पंचायत का काम अब भी छोटे ददन के इशारों पर चलता था लेकिन ग्राम पंचायत बनपुरवा फूला उर्फ सरपंच भौजी की जागीर बन गई थी.       

प्रिय पाठको! इधर-उधर के तमाम किस्से सुनकर आप सचमुच ऊब गये होंगे लेकिन आप यकीन मानिये कि यह भी वो किस्सा नहीं था जो मैं आपको सुनाना चाहता था. दरअसल वो किस्सा सुनाने से पहले यह सब आपको बताना बेहद जरूरी था. अब अगर आप मुझे थोड़ी मोहलत और दें तो मैं आपको वो किस्सा सुना सकता हूँ. आप न चाहें तो मैं अपनी कहानी यहीं खत्म कर सकता हूँ. वैसे जहाँ तक मैं समझता हूँ आप वो किस्सा भी सुनना चाहेंगे. अब जब इतना सब्र रखा है तो थोड़ा और सही. तो चलिये सुनाते हैं.

और रामराज की बग्घी
सरकार के हुकुम पर पूरे प्रदेश में गरीबों की गिनती चालू थी. इसके लिए अर्थ और गणना महकमे द्वारा दिनरात की मेहनत और करोड़ों रुपए फँूकने के बाद बगड़म फार्मूला निकाला गया था. फिर सभी बातों का ध्यान रखते हुए एक शासनादेश जारी किया गया था जिसमें यह कहा गया था कि जर-जमीन से कंगाल, खेत-मजूर, कच्ची छत या झोपड़पट्टी वाले बेसहारा परिवारों, विधवाओं और कड़के अपाहिजों को लाल कार्ड दिया जायगा जबकि छोटे और मझोले किसानों और महीने में अगड़म आमदनी वाले परिवारों को गरीब मानते हुए पीला कार्ड दिया जायगा. अब आप पूछेंगे कि आमदनी कौन तय करेगा? तो जवाब है-  तहसीलदार. वो भी लेखपाल, कानूनगो और नायब की रिपोर्ट के बाद जिससे शक-शुबहो की कोई गुंजाइश न रह जाय. फिर आप जानना चाहेंगे कि कार्ड कौन बाँटेगा? तो उसका जवाब है- बीडियो यानी ब्लाॅक का विकास अधिकारी. वो भी पंचायत सेक्रेटरी और एडियो पंचायत की सिफारिश के बाद. ताकि कोई गरीब-गुरबा कार्ड पाने से छूट न जाय. अब आप ये सवाल भी करेंगे ही कि आखिर कार्ड लेकर होगा भी क्या? तो ये रहा सबसे मौजू सवाल. अरे भाई! सरकार ने पहले ही कह रखा था कि प्रदेश में अनाज की भरमार है और ऐसे में कोई भी अन्न को न तरसे. गरीब को दो जून की रोटी का इंतजाम हो. सूबे में करोड़ों गरीब थे और उन सबको कार्ड बाँटा जाना था सो आदेश जारी होने से पहले ही मा. रसद मंत्री जी ने  पत्नी द्वारा नाजुक मौके पर डाले गए भीषण दबाव में कार्ड छापने का ठेका अपने साले को दिलवा दिया था और न चाहते हुए भी पार्टी के एक निष्ठावान कार्यकर्ता की पेशगी लौटा दी थी.

तो इस कार्ड पर हर महीने गरीब परिवारों को सस्ते दाम पर अनाज दिया जायगा. पीले कार्ड पर पाँच रुपए पच्चीस पैसे किलो गेहूँ और सात रुपए सैंतीस पैसे किलो चावल और लाल कार्ड पर दो रुपए बाईस पैसे किलो गेहूँ और तीन रूपये तैतीस पैसे किलो चावल. दामों की गणना भी सूबे की अर्थ-व्यवस्था और गरीबों की माली हालत के दशमलव के शुद्ध पूर्णांक तक जाकर किए गए आकलन के बाद की गई थी जिसपर बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. प्रदेश के हर गरीब परिवार को बस एक बार अपनी माली हालत के मुताबिक कार्ड बनवाना था और फिर उसे घर बैठे हर महीने गेहूँ चावल मिलता रहता. पीले कार्ड पर जहाँ महीने में कुल दस किलो राशन मिलने की बात थी वहीं लाल कार्ड पर चालीस किलो और वो भी समझो मुफ्त.बस इसमें सरपंच और कोटेदार की थोड़ी मेहरबानी चाहिए थी. सरकार वाकई गरीबों के भले में काम कर रही थी और ये काम प्रदेश की हर पंचायत में पूरे जोर-शोर से जारी था. तहसील और ब्लाॅक के अफसरों और कारिंदों ने इस काम की जिम्मेदारी सरपंचों पर डाल रखी थी और सरपंच भी अपना फर्ज बखूबी निभा रहे थे समझो.

हर गाँव पंचायत में आमदनी का सर्टिफिकेट और कार्ड बनवाने के लिए कैम्प लग रहे थे. जिनमें भारी भीड़ उमड़ रही थी. गाँव पंचायत बनपुरवा में पिछली सर्दियों में कैम्प लग चुका था. इस साल फिर लगने वाला था. लेखपाल और पंचायत सेक्रेटरी खास तौर से हल्कान थे. पूरे पंडितान और ददनपुर के ज्यादातर परिवारों ने कार्ड के लिए जरूरी आमदनी का सर्टिफिकेट तहसील से जुगाड़ लिया था और अब कार्ड के लिए अर्जी का फारम भरने की तैयारी में थे. ज्यादातर लाल के चक्कर में थे. पिछली बार जिन्होंने फार्म भर दिया था उनमें से कुछ को लाल और कइयों को पीला मिल भी चुका था. जबकि बनपुरवा के पासी-कोयरी में से कुछ को छोड़ बाकी अभी अपनी आमदनी का सबूत जुटाने की जुगत में ही झुरा रहे थे. चक्कर ही कुछ ऐसा था. वो महीने भर में किस-किस काम से कितना कमाते थे और उनकी रोटी का जुगाड़ कहाँ से होता था इसका ठीक-ठाक जवाब उनके पास नहीं था. सो वे लाख कोशिश के बाद भी लेखपाल को अपने कंगाल होने का यकीन नहीं दिला पा रहे थे. वे जिन्दा थे, अपना कुनबा पाल रहे थे और अकसर बुक्का फाड़ हँस भी देते थे. इससे ये तो साबित होता ही था कि उन्हें खाने के लाले नहीं थे और कार्ड के बिना भी वे मरेंगे नहीं. सरपंच, सेक्रेटरी और लेखपाल इस बात पर एक राय थे कि वे उतने गरीब नहीं हैं जितना दुहाई दे-देकर सरकार से मनवाना चाहते हैं.

 

बहरहाल उधर रामराज पासवान ने भी ‘ललका कारड’ बनवाने का इरादा किया हुआ था. जवानी ढलान पर थी और परिवार बढ़ गया था. फूला के हाथ से निकलने के बाद फूला की याद में हर साल एक के हिसाब से अपनी बीवी से चार बच्चे(तीन लड़की और एक लड़का. शुक्र है भगवान का) पैदा कर दिये थे. काम पहले भी कौन था लेकिन पंडितान से परधानी छिनने के बाद अब बेगारी के भी लाले पड़ गये थे. पंडितान की सरपंची में किसी तरह बैंक से करजा काढ़ ‘सुरोजगार स्कीम’ में चार सुअरें खरीदी थीं. अबतक उनके बच्चे बेच-बेचकर अपने बच्चों का पेट भर रहा था. गये साल मादा सुअर बीमारी से मर गई थी सो इस धन्धे में भी बरक्कत की उम्मीद जाती रही थी. करजे का कोढ़ अलग से बढ़ रहा था. ऊपर से फूला के रंग-रुतबे के आगे रहा-सहा पानी भी उतर गया था. किससे हाथ फैलाता. जिस भौजाई पर कभी कमाई और जवानी का रौब गाँठता था उसी के सामने बार-बार बच्चों की दुहाई..सोचकर ही रामराज का मन खदबदा जाता था. और फिर फूला छोटे ददन से पूछे बिना एक खर भी इधर से उधर न करती थी.

इस पर भी फूला के एहसान से पिछली दफा लेखपाल ने उसको कंगाल मानते हुए आमदनी का सर्टीफिकट बनवा दिया था. ये अलग बात है कि इसके एवज में उसने तहसीलदार को चिक्कन करने के नाम पर सुअर का एक छौना हलाल करवाया था. रामराज को उसका गम न था. आमदनी का सर्टीफिकट हाथ में आने के बाद उसे लगने लगा कि अब गुरबत के दिन जाने वाले हैं. कारड मिलने के बाद अन्न का रोना समझो खतम-  यह सोच-सोचकर ही वो खुद को और अपनी औरत को दिलासा देता रहता था. उसने पिछले कैम्प में लाल कार्ड का फार्म भी भर दिया था लेकिन अभी तक उसका कार्ड नहीं बना था. पंचायत सेक्रेटरी जब भी गाँव आता रामराज रुंआसे होकर ‘कारड’ की मिन्नत जरूर करते थे. सेक्रेटरी हर बार-  ‘अरे पासवान जी! आप तो सरपंच भउजी के देवर हैं.

आपका कार्ड नहीं बनेगा तो किसका बनेगा पूरी पंचायत में’ कहकर गोली दे देता था. मन मार के रामराज हर दूसरे-तीसरे फूला की चैखट पर भी गुहार लगा आते थे जो अकसर अपनी कालोनी में ‘कारड-पिंसिन-कोटा-पट्टा’ माँगने वालों से घिरी रहती थी और-  ‘कौन कारड के बिना मरे जा रहे हौ. खाय का जुगाड़ तौ कर ही दिया है हमने तुम जैसे गोजर का’ कहकर कुछ कागज-पत्तर पलटने लगती. रामराज मन ही मन कुढ़ता-‘कोई पूछै बुजार से कि रजिट्टर में है का तौ नखरा भुलाय जाय..जाव रानी! तुहूँ तकदीर लै के पइदा भइउ है..नाहीं तौ हमार छुन्नी चाटत रहतू अबै.’ एकाध बार वह छोटे ददन के आगे भी पेश हो चुके थे लेकिन वह ‘सरपंच भौजी जाने’ कहकर कन्नी काट लेते थे. वैसे भी अब उनका ज्यादा समय गाँव के बाहर जिले की राजनीत में बीतता था.
इसी तरह चकरघिन्नी बने रामराज पासवान की जिन्दगी कटने लगी. फूला जब से छोटे ददन की जाँघ के नीचे आई थी और तोहफे में उसे कालोनी मिली थी तभी से उसने बनपुखा जाना लगभग छोड़ दिया था. कभी भूले-भटके गई भी तो अपना काम सटका निकल भागी. अब जब से इधर सरपंच बनी है तब से तो वो जाना भी बंद हो गया. उलटे बनपुरवा के ही लोग ‘बिटिया-भउजी-बहुरिया-दुलहिन’ कहकर छेके रहते थे. फूला के सरपंच बनने के बाद बनपुरवा के ज्यादातर मरदों ने ठर्रा जमाया था और रात में अपनी औरतों को पटाने के ताव में उनकी सारी फरमाइशें फूला के दम पर इकट्ठा पूरी करने की कसमें भी खा ली थीं. औरतों ने भी अपने मरदों के बजाय फूला को ‘जुग-जुग जियो’ का आशीष दिया था. चाहते हुए भी वे ‘..पूतो फलो’ वाला आशीर्वाद नहीं दे पाई थीं. छोटी जात के छैला लौंडों ने भी-  फूला भौजी रानी है. बड़ों-बड़ों की नानी हैं-  का नारा उछाल रखा था.      

जैसे-जैसे वक्त गुजरा फूला की सरपंची बनपुरवा के लिए भी एक ठंडी जज्बाती कबर बनके रह गई थी. रामराज न तब खुश हुए थे न अब. भूखों मरने की नौबत अब दूर न थी लेकिन अकड़ अभी भी कभी-कभार जोर मार देती थी. अकसर तब जब रामराज रात को खाट पर पड़े हुए उन दिनों के बारे में सोचते जब फूला की जवानी उसके रहमोकरम पर थी. रामराज जब फूला के ख्यालों में डूबे होते तो रात के उस पार इंतजार में बैठे, बदले दिनों के दुख-दर्द से बेफिक्र होते. बहरहाल ऐसी रूमानियत कभी-कभार ही जहन पर चढ़ती थी. बाकी जिन्दगी ने ऐसी पलटी मारी थी कि रामराज को फूला के पाँव पड़ने में भी गुरेज न थी. ऐसा न था कि फूला को दया-मया न थी. रामराज को एक बार टरका भी दे लेकिन उसके बीवी-बच्चों की परवाह थी. तभी कुछ रोज ‘काम के बदले अनाज’ योजना की मेठगीरी दिलवा दी थी लेकिन सेक्रेटरी ने कान भरके हटवा दिया था. जब चेहरा देख-देखकर आजिज आ जाती तो कोटेदार से कहकर एकाध पसेरी धान-गेहूँ दिलवा देती.

मजूरी-धतूरी का काम तो था लेकिन जगहंसाई के फेर में न फूला रामराज से वह काम कराना चाहती थी और न रामराज ही सड़क-खंती-तलाब में तसला-फावड़ा ले उतरना चाहते थे. बाकी पंचायत में कैम्प लगता, कोई हाकिम आता या जाँच-पड़ताल होती रामराज हमेशा बेमतलब, बिनबुलाए हाजिर रहते. मुख्य इंतजामिया बनके. रामराज की जिन्दगी इसी तरह अन्न की तलाश में छछूंदर बने गुजरती गई. एक-एक कर सूअर के सभी बच्चे बिक गए. फूला ने बाकी एहसानों के साथ एक एहसान यह भी किया कि पंचायत सेक्रेटरी से कहकर रामराज को सरकारी कर्ज अदायगी से साल भर की मोहलत दिला दी थी. बनपुरवा का पुराना कच्चा घर जिसमें कभी फूला भी रहती थी आँधी-पानी,धूप और वक्त की मार सहते-सहते ढह रहा था. ले-देकर एक कोठरी बची थी जो तेज बारिश में चूने के बावजूद रामराज के पूरे कुनबे को संभाले हुए थी. रामराज बीवी-बच्चों की कातर आँखों से मुँह चुराए बेकाम-काज गाँव-पुरवे में भटकते रहते थे और उसके बीवी-बच्चे भी भूख की मार से बेचेन घर-घर काम तलाशते घूमते. अकसर चैका-बरतन, निराई-मड़ाई या सफाई-पछोर का काम मिल जाता था और कुछ न कुछ खाने का जुगाड़ भी हो जाता था. जिस दिन कुछ न होता तो फूला का आसरा आखिरी होता और फूला दया-मया दिखा ही देती थी.

फूला ने अपनी देवरानी की मिन्नत से आजिज आकर अगले साल एक कालोनी दिलाने का भरोसा देकर उसे जीने का एक सपना दे दिया था. ये और बात है कि रामराज को अब फूला की बात पे कोई भरोसा नहीं रह गया था फिर भी वह जिन्दगी से हारने वालों में से न थे. उन्हें दिन बहुरने का भरोसा था. कई बार खेत-खलिहान घूमते हुए सोचते कि एक दिन उनके पास भी एक टुकड़ा खेत होगा और वे अपनी फसल की गाँठ सर पर रख चलेंगे. जब कभी पंचायत भवन के करीब से गुजरते-  जिसमें एक बारिश झेल चुके गेहूँ से भरे बोरों की अजीब गंध भरी हुई थी-  वह किसी बहाने देर तक वहीं बने रहते. कुत्ता-बिल्ली भगाते, दरवाजे से कान लगा चूहों की उछल-कूद पर बड़बड़ाते और फिर इधर-उधर देख खिड़की-दरवाजे के पास बिखरा सीला-सड़ा-अधखाया दो-चार मुट्ठी गेहूँ पछोर लाते. इधर वह खुद से न जाने क्या बतियाने भी लगे थे. कई बार जैसे भविष्यवाणी-सा करते बुदबुदाते-  ‘फूला रानी अब तुहार दिन लदा समझो. बहुत मजा लूटा तैने. अगली दफा परधानी हमरे हिस्से समझो रानी.’ रामराज को जैसे-जैसे भूख सताती, वह और भटकते और बुदबुदाते जाते. वह जब घूम-घाम कर पस्त हो जाते तो वापस लौटकर परछत्ती के नीचे पड़ी टुटही खाट पर लोट जाते. काया दिनोदिन सूखती जा रही थी. पसलियाँ पारदर्शी हो चली थीं लेकिन एक इरादा जो रामराज ने पुख्ता कर लिया था वह था फूला से अब न मिलने का. और इसके लिए उन्हें रोज दो-चार बार मन को मारना और जिन्दगी को गरियाना पड़ता था.     

इसी तरह गर्मियों और बारिशों का एक और मौसम बनपुरवा से गुजरा जिसे रामराज ने भी अपने तन-मन पर महसूस किया. फिर सर्दियाँ आईं और आती ही चली गईं. रामराज की खाट ही उनके लिए पूरा घर थी बाकी एक कोठरी जो घर के नाम पर थी वह उन्होंने खुशी-खुशी अपने कुनबे के खाते में डाल रखी थी. तो अपनी उसी खाट पर एक रात रामराज पड़े हुए थे जब उन्हें तेज ज्वर ने जकड़ लिया था. रामराज को इधर कई दिनों से भूख न लगने की बीमारी भी हो चली थी. वे दिन-रात मुँह में तंबाकू कूटे रहते थे जो उन्हें गाँव में आसानी से माँगे मिल जाती थी. बदन पर जो फटा कुरता महीनों से था उसको सहारा देने के लिए एक कंबल भी इधर आ गया था जो बेसहारा अपाहिजों और बूढ़ों को ठंड से बचाने के लिए सरपंच ने बंटवाया था और जिसे हासिल करने के लिए रामराज की औरत को फूला के आगे अपने बच्चों की दुहाई देनी पड़ी थी. अन्दर के कमरे में पुआल पड़ा था और रामराज की बीवी और बच्चों को एक-दूसरे से लिपट वहाँ आसानी से नींद भी आ जाती थी. एकाध साल पहले तक बीवी का शरीर रामराज को भी रात-बिरात भीतर खींच ले जाता था लेकिन अब उसके अपने शरीर में खुद जान नहीं बची थी और बीवी के जिस्म से भी गरमी जाती रही थी. रामराज बहुत देर तक ठंड से सिहरते सितारे ताकते रहे और खाट के आसपास पच्च-पच्च थूकते रहे. उन्हें लग रहा था जैसे उनके अपने पेट के भीतर से बर्फीली हवाओं का तूफान उमड़ रहा हो. बार-बार वे कंबल खींचकर अपना बदन समेट रहे थे. फिर न जाने कब उन्हें नींद ने अपने आगोश में ले लिया. आज नींद रामराज के लिए एक और जिन्दगी लेकर आई थी. उन्होंने देखा कि वे एक बग्घी पर सवार हैं जो बिल्कुल बड़े ददन की बग्घी की तरह थी. बगल में फूला लाल चटख साड़ी पहने, माँग में सेंदुर और पाँव में आलता भरे बैठी थी. रामराज बीच-बीच में जब फूला को देखते तो वह मीठी हंसी हंस देती थी और रामराज का शरीर कुछ और अकड़ जाता था. बग्घी गाँव पंचायत बनपुरवा के सभी मजरों से होकर गुजर रही थी. गाँव की औरतें और बच्चे उन्हें देखकर रास्ते पर किनारे खडे़ होकर हाथ हिला देते थे. उनमें से कइयों को तो रामराज पहचान भी सकते थे. एक जगह काफी भीड़ हाथ जोड़े खड़ी थी. उसमें छोटे ददन और पंडित परधान भी थे जो शायद कालोनी, खेती का पट्टा, बेसहारा पेंशन या शायद लाल कार्ड माँग रहे थे. उन सबके हाथ में जरूरी कागजात और तुड़ी-मुड़ी दरखास्तें थीं. रामराज सबको तसल्ली दे रहे थे और ऐसा करते हुए फूला को लगातार देख रहे थे. फिर उनकी बग्घी तेजी से आगे बढ़ गई और पीछे से ‘जिन्दाबाद-जिन्दाबाद, जिया हो-  जिया हो ’ की आवाजें आती रहीं. फिर शायद बग्घी तेज हिचकोले लेने लगी और फूला रामराज के सीने से आ लगी. फूला की सांसें ज्यादा तेज थीं या शायद हवा के झोकों में सिहरन ज्यादा थी, जो भी हो रामराज नींद के आगोश से फिसल पड़े. उनका पूरा जिस्म पसीने से तर-बतर बेतरह काँप रहा था. रामराज ने देर तक उखड़ी नींद का सिरा थाम झटके से दूर जा गिरी जिन्दगी में वापस जाने की नाकाम कोशिश की. फिर अँधेरे को निशाना बना एक बार पच्च से थूक फूला को प्यार भरी गाली दी और कंबल सिर तक खींच लिया. फिर पूरी रात एक बारगी रामराज की जिन्दगी पर रेंग गई.


एक जिन्दगी का न होना

रात इतनी नई और खुशगवार थी कि रामराज को सुबह की जरूरत नहीं महसूस हुई. पहले बीवी और बच्चों ने जाना फिर पूरे बनपुरवा और फिर पूरी पंचायत ने जाना कि रामराज सिधार गए. धीरे-धीरे लोगों का जमावड़ा लग गया. जितने लोग उतनी बातें. बीमारी, ठंड और भूख तीनों वजहें हवा में थीं. फूला आई और थोड़ी देर में छोटे ददन भी आए. अखबारों ने अगले दिन बनपुरवा में भूख और शीतलहरी से एक मौत की खबर छापी. फिर लेखपाल- सेक्रेटरी, नायब-बीडिओ, तहसीलदार-यसडियम सब आए.जिले के हाकिम ने भी यसडियम से फोन पर जानकारी ली और शाम तक रिपोर्ट तलब की. रिपोर्ट में कुछ खास नहीं था. लिखा था- 

महोदय अवगत कराना है कि सूचना मिलने पर तत्काल ग्राम पंचायत बनपुरवा में मौका जाँच की गई. रामराज पासवान पुत्र गनेशी पासवान, उम्र लगभग 45 बरस की मृत्यु बीमारी-बुखार से हो गई. उसके परिवार में बीवी और चार बच्चे-तीन लड़कियाँ और एक लड़का है. तलाशी के दौरान घर से लाल कार्ड और एक टिन गेहूँ बरामद हुआ. मृतक सरपंच का भाई था जिसे खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं थी. भुखमरी की खबर असत्य और निराधार है क्योंकि पोस्टमार्टम में मृतक के पेट से अनाज निकला था. सर्दी या शीतलहरी से मौत की बात भी बेबुनियाद है क्योंकि मृतक को एक कंबल भी दिया गया था. फिर भी एहतियात के तौर पर सरपंच से कहकर मृतक के घर पर पचास किलो गेहूँ-चावल रखवा दिया गया है. रिपोर्ट महोदय की सेवा में अवलोकनार्थ सादर प्रेषित है....

कुछ रोज बाद मा. मुख्यमंत्री जी ने जन विकास पार्टी द्वारा कराए गए विकास कार्यों पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और ‘प्रिय पत्रकार साथियो’ को भोजन के लिए आमंत्रित करने से पहले एक वाक्य जोड़ना नहीं भूले कि उनकी सरकार में पिछले चार साल में अब तक भूख से एक भी इन्सान की मौत नहीं हुई है जो अपने-आप में एक रेकार्ड है. मा. मुख्यमंत्री जी की बात पर पूरे हाल में गूँजे ठहाके ने हामी की मुहर मार दी थी. ©

हरिओम
जन्म: 15 जुलाई, जनपद-सुल्तानपुर, उ.प्र.
शिक्षा: इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली.
प्रकाशन: धूप का परचम(गजल संग्रह), अमरीका मेरी जान (कहानी संग्रह), कपास के अगले मौसम में (कविता संग्रह), सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित.
सम्मान: राजभाषा पुरस्कार, फ़िराक सम्मान
सम्पर्क: 21 गुलिस्ताँ कालोनी, लखनऊ.

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