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राख

कहानी
भयानक बीमारी और बेरहम मौत भी शमा के चेहरे की कशिश को खत्म नहीं कर सकी... जमाल ने फ़र्श पर रखी बीवी की लाश को देखते हुए सोचा. शमा का मुर्दा जिस्म सफेद चादर से ढका हुआ था, केवल चेहरा खुला था.

शमा की घनी काली पलकें झुकी हुई थीं और वह एकटक उसके सुर्ख व सफेद चेहरे को देख रहा था. शमा ने प्याली उठाकर कॉफ़ी का एक घूँट लिया लेकिन उसकी पलकें उसी तरह झुकी रहीं.
 
‘‘तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ वह मेज पर थोड़ा झुक गया. ‘‘मैं बहुत सीरियसली कह रहा हूँ. मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ. जमाल ने शमा से कल भी यही बात कही थी, लेकिन शमा ने कोई जवाब नहीं दिया था. केवल झुरझुरी लेकर रह गई थी. जमाल की इस इच्छा को सुनकर वह भयभीत हो गई थी. उसे शादी के उस तसव्वुर ही से बुखार सा हो जाता था. जिसे सारी दुनियाँ की औरतें सुरक्षा समझती हैं. बाबा को अगर पता चल गया कि मैं एक मुसलमान लड़के से शादी करना चाहती हूं तो... सोचकर ही वह काँप जाती थी.


जमाल से उसका परिचय दो वर्ष पूर्व फोटोग्राफी के एक एग्ज़िबिशिन में हुआ था. जिसे तीन अमेच्यर फोटोग्राफर ने मिलकर तरतीब दिया था. शमा को एक तस्वीर बहुत पसन्द आई थी जिसका शीर्षक था-  ‘जिन्दगी’ जिसमें एक ‘सी गल’ को समुन्दर की बिखरी मौजों से कुछ ऊपर उड़ते दिखाया गया था.
 
शमा ने जब एग्ज़िबीशन के प्रबन्धक से इस फोटोग्राफर के बारे में पूछा तो उसने महीने फ्रेम का चश्मा लगाए एक साँवले से नवजवान की तरफ़ इशारा किया था-  ‘‘जमाल अहमद’’... उसने एक ढीली-ढाली शर्ट और जीन्स पहल रखी थी. वह एक औरत से हँस-हँस कर बातें कर रहा था. जमाल को एक सुन्दर तस्वीर पर बधाई देने का विचार छोड़कर जब वह गैलरी की सीढ़ियाँ उतरने लगी तब उसने सोचा कि यह फ़नकार की नाक़दरी होगी. वह लौटकर एग्ज़िबीशन हॉल में आ गई थी और उस औरत के जाने का इन्तज़ार करने लगी थी जो अपनी सूती साड़ी और बिना बाहों के ब्लाउज़ और हैंडलूम के झोले के कारण कोई आर्ट क्रिटिक मालूम हो रही थी. उस औरत के चले जाने के बाद शमा ने जमाल के निकट जाकर अपना परिचय देते हुए तस्वीर की तारीफ़ की और बातचीत के दौरान उसने बता दिया था कि वह जे.जे.स्कूल आफ ऑर्टस में इंस्ट्रक्टर है और नौकरी का यह उसका पहला साल है. दूसरे दिन जमाल ने कॉलेज में जाकर शमा को वही तस्वीर उपहारस्वरूप दे दी थी. दोनों की रस्मी मुलाक़ातें दोस्ती में और दोस्ती जल्दी ही मुहब्बत में बदल गई थी. 

‘‘जमाल अगरबत्तियाँ कहाँ हैं?’’ जमाल ने गर्दन घुमाकर देखा. फोटोग्राफर मनोज उससे सम्बोधित था. जमाल ने वॉल कैबिनेट खोलकर अगरबत्ती का पैकेट निकालकर मनोज को दिया. मनोज ने अगरबत्तियाँ शीशे के एक गिलास में सुलगाकर शमा के सिरहाने रख दीं. धुआँ धीरे-धीरे बल खाता हुआ फ़ज़ा में ऐसे घुलने लगा जैसे कमरे के बोझिल माहौल से वह भी उदास हो. मनोज ने जमाल के करीब आकर उसके कंधे पर हाथ़ रखते हुए पूछा-  ‘‘क्या तुमने अपने डैडी को खबर कर दी है?
 
जमाल ने ‘हाँ’ में सर हिलाया.

‘‘और शमा के बाबा को?’’

जमाल ने सिर झुका लिया. शमा के बाबा को उसने दादर हिन्दू कॉलोनी में ख़ुद जाकर ख़बर दी थी. उन्होंने शमा की मौत की ख़बर एक गहरी ख़ामोशी के साथ सुनी थी. और उसके घर से बाहर निकलते ही दरवाजा बन्द कर दिया था.

‘‘शमा और मैं शादी करना चाहते है.’’ जमाल के इस जुमले पर शमा के बाबा का चेहरा एकदम से सुर्ख़ हो गया था. उन्होंने अपने जनेऊ में अँगूठा डालकर उसे दो बार ऊपर-नीचे किया और फिर मोटे चश्मे के पीछे से उसे घूरते हुए बोले थे, ‘‘तुम जानते हो हम लोग पूनेरी ब्राह्मण हैं. मेरे पिता जी पूने में इस उम्र में भी जन्म, लगन और मृत्यु की रस्में करते हैं और तुम एक माँसाहारी मुसलमान!’’ जमाल इस सवाल के लिए पहले ही से तैयार था उसने फ़ौरन कहा, ‘‘मैं धर्म बदल लूँगा.’’ जमाल के इस जवाब ने रसोई में माँ के साथ छिपकर दोनों की बातें सुन रही शमा के दिल के बोझ को कम कर दिया था.

‘‘कोई भी ग़ैर हिन्दू, हिन्दू नहीं बन सकता.’’ बाबा उठ खड़े हुए और उनकी उँगलियाँ जनेऊ में तेजी से ऊपर नीचे होने लगीं.

‘‘और अगर मैं आर्यसमाजी तरीक़े से हिन्दू बन जाऊँ क्या तब भी आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे?’’

‘‘नहीं. कभी नहीं.’’ बाबा ने सख़्त लहजे में जवाब दिया. ‘‘कौन किस धर्म में पैदा होगा यह ईश्वर की इच्छा से होता है इन्सान की मर्जी से नहीं, समझे!’’

‘‘तब तो मेरे मुसलमान होने में भी मेरी मर्ज़ी का नहीं, भगवान की इच्छा का दख़्ल है तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर है.’’ जमाल ने ठहर-ठहरकर अपनी दलील रखी.
 
‘‘मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता.’’ उनका स्वर तीखा हो गया था.

बातचीत के दौरान शमा की माँ ने जमाल के लिए अपनी छोटी बेटी के हाथ जब स्टील के गिलास में पानी भिजवाया तो बाबा ने बड़ी नर्मी से लड़की से कहा, ‘‘शीशे के गिलास में पानी लाओ.’’... जमाल पानी पिए बिना ही उठकर चला आया था. दूसरे दिन जमाल को शमा ने बताया कि उसके चले जाने के बाद उसे पहली बार पता चला कि बाबा मुसलमानों को सख़्त नापसन्द करते हैं. ‘‘वह कह रहे थे मेरी बेटी अगर किसी महार के साथ भी भाग जाए तो मुझे इतना दुख नहीं होगा, जितना एक मलेच्छ के साथ शादी करने से होगा.’’ कहते हुए शमा रो पड़ी थी. ‘‘मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती थी जिम्मी.’’ हिचकियों से उसके कन्धे हिलने लगे थे.

उसी दिन जमाल ने अपनी माँ को शमा के बारे में बता दिया था. वह कुछ देर तक तो ख़ामोशी से अपने जवान बेटे के इतने बड़े इरादे पर ग़ौर करती रहीं, फिर कहा, ‘‘अगर वह मुसलमान हो जाती है तो मेरे ख़याल में तुम्हारे अब्बू को कोई एतराज़ नहीं होगा.’’

जमाल दस-बारह दिनों तक शमा से रोज़ ही मिलता रहा किन्तु धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव उसके सामने रखने की हिम्मत वह अपने में जुटा नहीं पा रहा था. एक दिन जहाँगीर आर्ट गैलरी के समावर रेस्टोरेंट में जमाल ने शमा से स्नैक्स के लिए पूछा तो उसने याद दिलाया कि आज उसका मंगलवार का व्रत है वह केवल नींबू पानी लेगी....

जमाल ने कॉफ़ी ख़त्म कर ली लेकिन वह अपनी मंशा बयान न कर सका. शमा ने ठंडे नींबू पानी के गिलास पर उभर आने वाली नमी को उँगली से फैलाते हुए कहा, ‘‘मेरे बाबा तुम्हारे हिन्दू हो जाने के बाद भी तुम्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो मैंने भी फैसला कर लिया है.’’ कहकर वह थोड़ा रुकी और फिर निणर्यात्मक स्वर में कहा-  ‘‘मैं ही मुसलमान हो जाती हूँ.’’ वह सोच भी नहीं सकता था कि शमा इतना बड़ा फैसला इतनी जल्दी कर लेगी. उसने ध्यान से शमा के चेहरे को देखा. भावनाओं से प्रेरित चेहरे पर उसकी आँखें लबालब भर आई थीं....

शमा ने एक दिन ख़ामोशी से बदन के कपड़ों के साथ घर और धर्म दोनों छोड़ दिए. जामा मस्जिद में कलमा पढ़कर वह शमा कुलकर्णी से शमा जमाल हो गई. मस्जिद ही में जमाल और शमा का निकाह हुआ था. निकाह में शमा की तरफ़ से केवल मनोज ही शामिल हुआ था जबकि जमाल के घर के लगभग सारे ही लोग मौजूद थे.

जमाल की बड़ी बहन ने कमरे में शमा के मुर्दा जिस्म को देखते ही एक दबी-दबी चीख मारी और जमाल से लिपटकर रोने लगी. जमाल की आँखें सूखी थीं. उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे सीने में गाढ़ा धुँआ भर गया हो.

‘‘ये कैसे हो गया जमाल...’’ वह कहती जाती थीं और रोती जाती थीं.

‘‘ख़ुदा को यही मंज़ूर था बाजी.’’

बड़ी बहन ने दुपट्टे से आँसू पोंछते हुए अपने वालिद और वालिदा के बारे में पूछा कि वह अब तक क्यों नहीं पहुँचे? फिर उसने मराठी अनुवाद वाले क़ुरान को अलमारी से उतारा और उसके क़रीब बैठकर धीमी आवाज़ में पढ़ने लगी.  शमा अरबी तो नहीं पढ़ सकी थी. अलबत्ता वह कभी-कभार क़ुरान का मराठी अनुवाद अवश्य पढ़ लिया करती थी.

जमाल को इस बीच एक एडवरटाइजिंग एजेन्सी में सीनियर फ़ोटोग्राफर का जॉब मिल गया था. एजेन्सी ने ही उसे बोरीवली में सिंगल रूम का एक फ्लैट भी एलॉट कर दिया था जो मियां बीबी के लिए काफ़ी था. वह इस फ्लैट में शमा के साथ शिफ़्ट हो गया था, लेकिन हफ़्ते के दिन दोनों मोहम्मद अली रोड पर स्थित जमाल के पिता के घर अवश्य जाते थे. शमा ने एक दिन सोचा कि इतना समय हो गया है बाबा ने न सही आई (माँ) ने तो उसकी ग़लती को माफ़ कर दिया होगा. वह जमाल को बताए बिना कॉलेज से दादर हिन्दू कॉलोनी पहुँच गई. दरवाज़े पर खड़ी बेल बजाती रही, लेकिन किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला. शायद आईहोल से उसे देख लेने के बाद ऐसा किया गया था. उसके बाद फिर कभी उसने माँ की देहलीज़ पर क़दम नहीं रखा था.

शमा ने स्वयं को जमाल के घर की तहज़ीब के अनुसार ढालने की पूरी कोशिश की थी. रमज़ान के रोजे़ उसने पहली बार रखे. मंगलवार के व्रत भी बराबर रखती रही. जमाल जब तक घर नहीं आ जाता वह खाना नहीं खाती थी. उसने ये आदत अपनी आई से पायी थी. आई कहा करती थी पति परमेश्वर होता है, उससे पहले खाना नहीं खाना चाहिए. जमाल ने उसे कई बार समझाया कि उनके यहाँ इस प्रकार की कोई तहज़ीब नहीं है, उसे समय पर खाना खा लेना चाहिए, लेकिन वह सदैव हँसकर टाल जाती. लोग कहते हैं कि महबूबा जब बीवी बनती है तो उसमें पहले जैसी कशिश नहीं रह जाती है, लेकिन शादी के बाद दोनों की मुहब्बत में न सिर्फ शिद्दत आ गई थी, बल्कि दोनों एक-दूसरे के बिना ख़ुद को अधूरा समझते थे.

कमरे में शमा के बेजान जिस्म के क़रीब ही बाजी और कुछ दूसरी रिश्तेदार औरतें और लड़कियाँ कु़रान पढ़ रही थीं. अब्बू और अम्मी भी पहुँच गए थे. अम्मी तो शायद रास्ते भर रोती रही थीं. उनकी आँखें सूजी हुई थीं. उन्होंने आते ही जमाल को सीने से लगाकर भींच लिया-जैसे वह उसके सीने का सारा दर्द अपने कलेजे में उतार लेना चाहती हों. तब भी उसकी आँखें सूखी रहीं.

बेटे गुसाला (स्नान कराने वाली) को मैंने खबर कर दी है. वह बस आती ही होगी. उन्होंने अपनी आँखें पोछते हुए कहा. अब्बू दरवाजे के करीब सोसायटी के दूसरे लोगों के बीच अपनी बहू की मिलनसारी और सुघड़पन की तारीफे कर रहे थे-  रमजान के महीन में बहू ने सारे रोजे रखे और पाँचों समय नमाज़ अदा की. कोई कह ही नहीं सकता था कि वह गै़र कौम से आई है. मय्यत में आने वाले भी मरने वाली की इन्ही खूबियों की प्रशंसा कर रहे थे.

पिछले एक महीने से शमा की तबियत खराब रहने लगी थी. डॉक्टर ने पीलिया बताया था और सचेत किया था कि इस बीमारी के भयानक परिणाम भी हो सकते हैं क्योंकि शमा गर्भवती थी. जमाल ने कभी सोचा भी नहीं था. कि उसकी यह बीमारी इतनी खतनाक साबित होगी वरना वह दफ्तर से छुट्टी लेकर स्वयं ही उसकी देखरेख करता. यही कारण था कि उसने बीमारी के दिनों में भी शमा को मंगलवार का व्रत रखने से नहीं रोका. दो-तीन दिन पूर्व शमा को दिन में चार-पाँच बार क़ै (उल्टी) हुई तो वह रुँआसी हो गई. उसने जमाल से कहा-  ‘‘दीवाली में अपने बाबा और आई का आशीवार्द लेने नहीं गई थी ना, शायद उसका पाप है.’’ जमाल ने इस बात पर उसे मोहब्बत भरी डाँट पिलाई थी कि वह पढ़ी-लिखी होकर इस तरह के वहम रखती है. उसने कहा था-  ‘‘बहम है या हक़ीक़त मैं नहीं जानती, किन्तु पुनर्जन्म में मेरा विश्वास अवश्य है. मेरी ऊपर वाले से यही प्रार्थना है कि दूसरे जन्म में भी वह मुझे तुम्हारी ही पत्नी बनाये.’’ इस जुमले पर जमाल ने बेइख़्तियार उसकी ज़र्द पेशानी को चूम लिया था. कल रात अचानक ही शमा की तबियत बिगड़ गई. डॉक्टर को बुलवाया गया. डॉक्टर ने दवाएँ और इन्जेक्शन देकर इस बात का संकेत दिया था कि पीलिया आखिरी स्टेज पर है इसलिए शमा को कल सवेरे ही किसी अच्छे अस्पताल में दाखि़ल कराना बहुत ज़रूरी है. जमाल ने आँखों में ही सारी रात काट दी. इन्जेक्शन के कारण शमा गहरी नींद जरूर सोई किन्तु सुबह जागने के बाद उसकी हालत फिर बिगड़ गई. कल शमा की ऐसी हालत देखकर जमाल बुरी तरह नर्वस हो गया था. उसने डॉक्टर को फ़ोन किया लेकिन डॉक्टर के आने से पहले ही शमा बुझ गई थी.

‘‘बेटे सभी लोग आ चुके हैं. नहलाने वाली ने मय्यत को नहला दिया है.’’ अब्बू जमाल को क़रीब बुलाकर बोले- ‘‘तदफ़ीन कब करनी है? मग़रिब बाद या ईशा बाद...?’’

अब्बू को जवाब देने के बजाये जमाल शमा की लाश को देखने लगा, जिसे नहलाने के बाद कफ़न पहनाकर दिखाने के लिए रखा गया था. नहलाने के बाद चेहरा कुछ और निख़र आया था. उसे लगा जैसे वह उठकर कहेगी-  ‘‘अरे मुझे जगाया क्यों नहीं....’’ अकसर छुट्टी के दिन जमाल पहले उठ जाता तो ख़ुद ही चाय बनाकर पी लेता. शमा के जागने पर नाश्ता दोनों साथ ही में करते थे. शमा को गहरी नींद से जगाने में उसे इसलिए तकल्लुफ़ होता था कि वह हफ़्ते के छः रोज़ बड़े सवेरे उठकर घर के कामकाज में जुट जाती थी. जमाल को दफ़्तर भेजने और कॉलेज जाने की तैयारी में उसे काफ़ी वक़्त लगता था इसलिए आम दिनों में सुबह सवेरे उठना उसकी मजबूरी थी.

मेहरा साहब ने कहा कि ‘‘एजेन्सी की ओर से शमा की एक  ऑबीचुअरी टाइम्स ऑफ इंडिया में दी जाये.’’ मनोज ने एक क़ागज उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा.

जमाल ने काग़ज पर नज़र डाली.
शमा जमाल
जन्मतिथि- 18 अप्रैल बरोज़ बुध 1968
देहान्त- 2 जून बरोज़ मंगल 1995
 
जमाल की नज़र तारीख़-ए-वफ़ात पर ठहर गई. ओह आज मंगलवार है. शमा के व्रत का दिन! शमा ने उसे बताया था कि ‘‘मैंने जबसे होश सँभाला है तब से मंगलवार का व्रत रख रही हूँ. कभी नाग़ा नहीं किया.’’ उसने बड़े गर्व से कहा था. शमा की आवाज़ देर तक जमाल के कानों में गूँजती रही.

‘‘जमाल मियाँ तुमने बताया नहीं तदफ़ीन कब होगी?’’ अब्बू ने दोबारा उसे याद दिलाया. जमाल ने नम आँखों से शमा की लाश की ओर देखा. सिरहाने अगरबत्तियाँ सुलग रही थीं. धुएँ की पतली गाढ़ी लकीरें फ़ज़ा में धीरे-धीरे रेंग रही थीं. अम्मा और बाजी की तिलावत की आवाज़ माहौल को और अधिक सोगवार बना रही थी.

‘‘शमा को क़ब्रिस्तान नहीं श्मशान ले जाना है.’’

‘‘हैं!!’’ जमाल के इस जवाब पर अब्बू बहुत ज़ोर से चौंके और उनका मुँह खुला का खुला रह गया. कुछ क्षणों तक वह बेटे के चेहरे को देखते रहे जो फ़र्ते ज़ज़्बात से लरज़ रहा था. फिर उन्होंने शमा की लाश को गौ़र से देखा और ग़ुस्से से भरी आवाज़ में पूछा-  ‘‘क्या ये मरने वाली की अन्तिम इच्छा थी?’’

‘‘नहीं शमा और मेरे बीच कभी इस विषय पर बात नहीं हुई और फिर इतनी जल्दी ये सब हो जायेगा हमने कभी सोचा भी न था.’’

‘‘देखो मियाँ वह मुसलमान हो चुकी थी उसने कलमा पढ़ा था वह....’’ अब्बू दाँतों को भींचकर सख़्त किन्तु दबी हुई आवाज में बोले.

‘‘शमा ने मेरे धर्म से प्रभावित होकर अपना धर्म नहीं बदला था. मुझे हासिल करने के लिए उसने मज़हब तब्दील करने की महज़ रस्म अदा की थी.’’ जमाल ने शमा के ज़र्द चेहरे को देखते हुए कहा.

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’ अब्बू की आवाज़ ग़ुस्से से बुलन्द हो गई. कमरे और राहदरी में मौजूद तमाम लोग चौंककर उनकी तरफ देखने लगे.

‘‘मैं कह चुका हूँ जो मुझे कहना है. मैं उसकी आत्मा को सुक़ून पहुँचाना चाहता हूँ.’’ जमाल ने सर झुकाकर मज़बूत लहजे से कहा.

‘‘आत्मा!’’ अब्बू ने दाँतों को किचकिचाकर कहा-  ‘‘क्या मुर्दा जिस्म को जलाने से उसकी आत्मा को सुक़ून मिल जायेगा?’’ उनका लहज़ा तेज़ और तीखा था. अम्मी और बाजी जल्दी से कलाम मजीद रहेल पर बन्द करके बाप-बेटे के क़रीब चली आयीं.

‘‘अब्बू ज़रा सोचिए तो...शमा ने मेरे लिए मज़हब बदल दिया तो क्या मैं उसकी आत्मा को सुक़़ून पहुँचाने के लिए इतना भी नहीं कर सकता?’’

अम्मी और बाजी ने उसे ख़ुदा का वास्ता देकर समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसका एक ही जवाब था, ‘‘शमा की आत्मा को दाह संस्कार से ही सुकू़न मिलेगा.’’

इस जवाब पर अब्बू अपने गु़स्से को बर्दाश्त न कर सके और अम्मी का हाथ पकड़कर खींचते हुए सीढ़ियों से धम-धम करते हुए उतर गये. बाजी कुछ पलों तक उसका मुँह तकती रहीं फिर शमा के बेजान चेहरे पर एक नज़र डालकर बुर्क़ा पहनते हुए वह भी चली गयीं. एक-एक करके सारे रिश्तेदार और पहचान वाले अपनी तीखी निगाहों की गर्मी को कमरे में छोड़कर चले गये. कमरे में सिर्फ़ अगरबत्तियों का धुआँ था जो दर्दनाक खामोशी के साथ लिपटकर मातम कर रहा था.

मनोज की दस्तक पर दरवाज़ा खुला. सामने शमा के बाबा खड़े थे. उनके पीछे आई मुँह में पल्लू दिए ऐसे खड़ी थीं जैसे रो पड़ेंगी. बुझे हुए चेहरे और धुँधली आँखों से उन्होंने मनोज के पीछे खड़े जमाल को शिकायत भरी नज़रों से देखा. जमाल ने आगे बढ़कर पीतल की एक छोटी सी कलसी जिसके मुँह पर लाल कपड़ा बँधा हुआ था, बाबा की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं आपकी बेटी को लौटाने आया हूँ.’’

बाबा ने कलसी की तरफ़ काँपते हुए हाथ बढ़ाया. आई दोनों हाथों को मुँह पर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ीं और जमाल की आँखों में ठहरा हुआ आँसुओं का सैलाब भी बह निकला. ©

अनुवाद- सीमा सग़ीर
उर्दू विभाग, ए.एम.यू. अलीगढ़
- प्रेमकुमार
कृष्णाधाम कॉलोनी,
 आगरा रोड़़, अलीगढ़ (उ.प्र.)
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