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अण्णा का आंदोलन, छद्म इवेंट और मीडिया चालन

अखबारनामा
 
‘‘सच में बड़ा चमत्कारी है अन्ना का तथाकथित आंदोलन. टी.वी. बंद करते ही गायब हो जाता है, फिर कहीं नजर नहीं आता... टी.वी. खोलते ही प्रकट हो जाता है.’’-  फेंसबुक पर रितु रंजन कुमार का कमेंट.

चेतावनी के दो शब्द: जो मीडिया की वजह से जीते हैं वे मीडिया की वजह से ही मर जाते हैं. अण्णा के आंदोलन को मीडिया के ऑक्सीजन के आगे जीना सीखना होगा.-  राजदीप सरदेसाई, ट्विटर पर

अण्णा हजारे के आंदोलन की वजह से भारतीय समाज और राजनीति में मीडिया की भूमिका को लेकर नई बहस छिड़ गई है. यह आंदोलन लोकपाल बिल के एक खास ड्राफ्ट को कानून बनवाने की माँग को लेकर है. इस आंदोलन को मीडिया का जबर्दस्त प्यार दुलार मिला और यहाँ तक कहा जा रहा है कि मीडिया की वजह से ही यह आंदोलन इतनी प्रमुखता हासिल कर पाया, वरना यह चंद शहरी इलीट का आंदोलन है.

अगस्त महीने की 15 तारीख की घटना को इस मामले में उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सकता है. इस दिन शाम को अण्णा लगभग 30 समर्थकों के साथ राजघाट पर आए और समाधि के सामने अकेले बैठ गए. उन्हें तीन ओर से घेरकर उनके समर्थक भी बैठ गए. टेलीविजन चैनलों को इसकी सूचना पहले से थी. वहां लगभग 70 कैमरे और लगभग 200 मीडियाकर्मी मौजूद थे. उनकी वजह से उत्पन्न कौतूहल की वजह से भीड़ बढ़ती गई और लाइव कवरेज का असर यह हुआ कि आस पास से लगभग 2000 लोग इकट्टा हो गए. पूरे देश ने टीवी के परदे पर इस इवेंट को देखा, जो दरअसल कोई इवेंट था ही नहीं, और अगर टीवी इसे न दिखाता तो राजघाट आने वाले चार-पाँच सौ लोगों के अलावा इसकी जानकारी किसी को भी नहीं हो पाती. यह मीडिया मैनेजमेंट है. यह पब्लिक रिलेशन है.  आंदोलन या छद्म घटना (यानी स्यूडो इवेंट).

पब्लिक रिलेशन के तहत कई तरह के छद्म आयोजन यानी स्यूडो इवेंट आयोजित किए जाते हैं. ये घटनाएँ या आयोजन सिर्फ मीडिया को लक्ष्य करके आयोजित किए जाते हैं. इन आयोजनों में पत्रकार उपस्थित न हों तो इनका कोई मतलब नहीं होगा. प्रेस कॉन्फ्रेंस, ब्रीफिंग, मीडिया इंटरेक्शन, मीडिया टूर, प्रोडक्ट लॉन्च, फिल्म प्रमोशन, इंटरव्यू ऐसे ही स्यूडो इवेंट हैं. इन्हें आयोजित किया जाता है. मास मीडिया के लिए सूचनाओं और समाचारों के लिए ये आयोजन प्रमुख स्रोत हैं. डेनियल बस्र्टीन ने 1961 में अपनी किताब द इमेज में पहली बार स्यूडो इवेंट जुमले का इस्तेमाल किया था. पीआर एजेंसियां और कॉरपोरेट कम्युनिकेशन एक्जिक्यूटिव बिजनेस चैनलों के लिए कंपनियों के अधिकारियों का लाइव इंटरव्यू आयोजित करते हैं. एक्सक्लूसिव कवरेज भी इसी मकसद से आयोजित किया जाता है. मीडिया कवरेज के लिहाज से छद्म इवेंट काफी असरदार हो सकते हैं. वास्तविक घटनाओं से भी ज्यादा कवरेज इन छद्म घटनाओं को मिल सकता है.

अण्णा ने जब अपना धरना प्रदर्शन शुरू नहीं किया था, तब इन्हीं स्यूडो इवेंट के जरिए उनकी बात मीडिया ने लोगों तक पहुँचाई थी. इसे एक उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है. एक छद्म घटना 13 मई, 2006 को मुंबई में हुई थी, जब उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने के खिलाफ मेडिकल छात्रों ने राजभवन के सामने प्रदर्शन किया था. इस आंदोलन के दौरान लाठीचार्ज की तस्वीरें पूरे देश में देखी गईं और आंदोलन को तेज करने में ये काफी कारगर साबित हुईं. यह एक मीडिया इवेंट था, जिसे आयोजित किया गया था. राॅक शो आयोजित करने वाली एक कंपनी के दो एक्जिक्यूटिव ने इसे ऑर्गनाइज किया था. इसके लिए कैमरापर्सन और पत्रकारों को पहले से ही जानकारी दे दी गई थी. 18 मई, 2006 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक, संभावित गिरफ्तारी से बचने के लिए इन दोनों इवेंट मैनेजर ने जमानत के लिए अदालत में अर्जी डाली थी.

ऐसे छद्म आयोजन कई शक्लों में होते हैं उनका काफी असर मीडिया कंटेंट पर पड़ता है. कुल मिलाकर यह स्थिति है कि किसी भी समाचार संगठन में जब सुबह न्यूज लिस्ट बनती है तो लगभग सभी रिपोर्टर किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस, मीडिया ब्रीफिंग (ऑन रिकॉर्ड या ऑफ रिकॉर्ड), किसी मीडिया इवेंट, या मीडिया स्टेटमेंट या प्रेस रिलीज पर काम कर रहे होते हैं. इन सब स्थानों पर पब्लिक रिलेशन किसी न किसी रूप में सक्रिय होता है. पत्रकारों के लिए ज्यादातर इंटरव्यू भी पब्लिक रिलेशन के जरिए ही ऑर्गनाइज होते हैं. कोई अधिकारी किसी विषय पर बोलेगा या नहीं, यह अक्सर पब्लिक रिलेशन एक्सपर्ट ही तय करते हैं.

मीडियाचालन की ओर बढ़ती राजनीति और अण्णा

मीडिया को जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते थे तो इसका आधार यही है कि मीडिया की लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन लोकतंत्र की बाकी संस्थाओं से यह कमतर है. इसलिए इसका पायदान ‘चौथा’ यानी सबसे नीचे माना गया है. लोकतंत्र और मीडिया के संबंधों के इस स्तर पर मीडिया की जनमत निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. यह राजनीति का मीडियाकरण है. यह मीडिएटेड पॉलिटिक्स है. ऐसी राजनीति में लोगों के बीच और लोगों तथा सत्ता के बीच सम्वाद और सूचनाओं के आदान प्रदान का आधार मीडिया होता है. शासकों को लोगों की राय के बारे में सूचनाएं मीडिया के जरिए मिलती हैं और इसी तरह शासक भी अपनी बात मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंचाते हैं.पब्लिक ओपिनियन यानी जनमत निर्माण में मीडिया की भूमिका के बारे में वाल्टर लिपमैन (पब्लिक ओपिनियन, न्यूयॉर्क, मैकमिलन, 1922) ने लगभग एक सदी पहले लिखा था. वहां से वक्त आगे बढ़ गया है.

मीडिया और राजनीति के अंतर्संम्बन्धों की दृष्टि से भारत में 1991 को कट ऑफ का वर्ष माना जा सकता है, जिसके बाद से उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया तेज होती है. इस दौर में मीडिया पर लगी कई तरह की पाबंदियां खत्म होती है. मीडिया में विदेशी निवेश का रास्ता खुलता है. उदारीकरण के साथ ही निजी कंपनियों के लिए विज्ञापन और मार्केटिंग की जरूरत बढ़ जाती है और बाजार में बढ़ती होड़ के साथ विज्ञापनों की संख्या और विज्ञापन की दर-  दोनों में तेजी से बढ़ोतरी होती है. अखबार रंगीन हो जाते हैं क्योंकि रंगीन विज्ञापन छापने की सम्भावना सामने होती है. ज्यादा विज्ञापन छापने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं में पन्ने बढ़ाए जाते हैं. आमदनी का मुख्य स्रोत विज्ञापन होने के कारण अखबारों को लागत मूल्य से काफी कम पर बेचना मुमकिन हो जाता है. टेलीविजन पर निजी समाचार चैनलों के आने के साथ ही समाचार का पूरा परिदृश्य बदल चुका है. समाचारों की दुनिया 21वीं सदी के पहले दशक में तेजी से बदली है और इसके साथ ही मीडिया और राजनीति के रिश्तों का धरातल भी बदल गया है.

वह पुरानी बात हो गई जब मीडिया में कुछ भी छपने से किसी को फर्क नहीं पड़ने की बात की जाती थी. दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम ‘‘आज तक’’ के वर्ष 2000 में 24 घंटे के चैनल बनने के साथ ही टेलीविजन न्यूज चैनलों के क्षेत्र में एक बड़े विस्फोट की शुरुआत हुई. लगभग 10 साल बाद, 2010 में देश में 512 चैनलों को प्रसारण करने की इजाजत हासिल हैं. देश में 461 टीवी चैनलों से प्रसारण होता है जबकि 2008 में 389 चैनलों से ही प्रसारण होता था. इससे भारत में टीवी के विस्तार की रफ्तार का अंदाजा लगाया जा सकता है. देश में टेलीविजन के लगभग 50 करोड़ दर्शक हैं, जबकि समाचारपत्रों के कुल पाठकों की संख्या 35 करोड़ है. पाँच साल पहले देश के 50 फीसदी घरों में टेलीविजन देखा जाता था. 2010 में ऐसे घरों की संख्या 60 फीसदी तक पहुँच गई.

यानी अब देश की बहुत बड़ी आबादी मीडिया कवरेज के दायरे में है. मीडिया अब पहले की तरह निरीह और लाचार नहीं रहा, जब नेता उसका मजाक उड़ाया करते थे. अब वह देश की सबसे ताकतवार संस्थाओं में से एक बन गया है. मीडिया के ताकतवर होने का भय राजनेताओं को इस कदर सताने लगता है कि मीडिया स्वामित्व को लेकर नियमन की जरूरत महसूस होने लगती है और मीडिया मोनोपली को रोकने के तरीके सुझाने के लिए केन्द्र सरकार टेलीकॉम रेगुलेटर-ट्राई-को रिपोर्ट देने को कहती है. 2008 में यह रिपोर्ट आ जाती है, लेकिन सरकार इसमें दिए सुझावों की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाती है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस कौंसिल के पूर्व चेयरमैन जस्टिस पी बी सावंत के मुताबिक न्यायपालिका के बाद संभवत यह समाज की सबसे ताकतवर संस्था है.: जस्टिस सावंत की राय में मीडिया ताकतवर तो हो गया है लेकिन इसका संचालन पैसे वालों के हाथों में होने के कारण इसमें कई गड़बड़ियां भी हैं और इसकी कई सीमाएं भी हैं. उनका मानना है कि मीडिया के स्वामित्व की संरचना को देखते हुए इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नीचे से लेकर ऊपर तक प्रशासन हमेशा आर्थिक रूप से ताकतवर के पक्ष में झुका होता है.

21वीं सदी के पहले दशक के अंत में मीडिया का राजनीति पर असर बढ़ा है. बड़े देशों और बड़े समाजों में वैसे भी लोकविमर्श का माध्यम मास मीडिया ही है. यहां एक व्यक्ति के बाकी लोगों के साथ मिलने की सीमाएं स्पष्ट हैं. भारत में खासकर राष्ट्रीय राजधानी के स्तर की राजनीति में मीडिया अब उपकरण से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने लगा है. टेलीविजन स्टूडियो अब राजनीतिक विमर्श के सबसे महत्वपूर्ण ठिकाने हैं. राजनीतिक दलों ने अपने मीडिया विभाग हैं और चैनल, विषय और वक्ताओं का पैनल देखकर यह तय किया जाता है कि किस कार्यक्रम में गेस्ट के तौर पर किस नेता को भेजना है. राजनीतिक दलों के बड़े नेता अमूमन हर रोज शाम और रात का अपना खासा समय टीवी स्टूडियो या कैमरे के सामने बैठकर बात करते हुए बिताते हैं.

टीवी पर होने वाली इन चर्चाओं में राजनीति दलों का प्रतिनिधित्व अक्सर वकील और पत्रकार से नेता बने लोग करते हैं. टीवी पर एक मजमा जुटाया जाता है और नेताओं के परफॉर्मेंस होते हैं. इसलिए इनमें हिस्सा लेने की योग्यता राजनीतिक गुणों से नहीं बल्कि टीवी कैमरे के सामने परफॉर्म करने की क्षमता से तय होती है. टीवी के लिए बने नेताओं की लिस्ट में अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, अभिषेक मनु सिंघवी, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, सीताराम येचुरी, अमर सिंह आदि प्रमुख हैं. राजनीति में इनके महत्वपूर्ण होने की बड़ी वजह टीवी पर इनकी उपस्थिति भी है. नेता मीडिया के माध्यम से लोगों से संवाद करने लगे हैं. प्रमुख राजनीतिक दल हर दिन नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं और अपनी बात मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंचाते हैं.  मीडिया की बढ़ती ताकत या कहें राजनीति स्पेस में मीडिया तर्क या मीडिया लॉजिक (डी एल एल्थीड, सेज, 1979) का प्रभावी होना कई स्तरों पर तनाव को भी बढ़ाता है. मीडिया तर्क और राजनीतिक तर्क के बीच वर्चस्व के लिए लगातार खींचतान चलती है. मीडिया की बढ़ती ताकत राजनीतिक सत्ता को चुभने लगती है. तब मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशें तेज होती हैं. भारत में मीडिया नियमन को लेकर सरकार और मीडिया के बीच चल रही रस्साकशी को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है. पेड न्यूज के चलन को रोकने के उपाय सुझाने के लिए प्रेस कौंसिल की पहल और उसकी रिपोर्ट पर विचार करने के लिए केंन्द्र सरकार द्वारा मंत्रियों के समूह का गठन इसी रस्साकशी का एक हिस्सा है. टीवी के कंटेंट रेगुलेशन के लिए सरकार की ओर से लगातार प्रयास किए जा रहे हैं. मीडिया मोनोपली राजनीतिक सत्ता के लिए चिंता का कारण है. हालांकि मीडिया ज्यादातर मामलों में सेल्फ सेंसरशिप बरतता है और सरकार को खास मौकों पर ही हस्तक्षेप करना पड़ता है.

मीडिया चालित राजनीति

यूरोपीय देशों में लगभग 100 फीसदी आबादी मीडिया के दायरे में है और वहां मीडिया के वर्तमान दौर की शिनाख्त मीडियाचालन या मिडियाटाइजेशन के रूप में की जा रही है. राजनीति का मीडियाटाइजेशन (मुजोलिनी और शुल्ज, पॉलिटिकल कम्युनिकेशन, रॉटलेज, 1997) विकसित देशों में हकीकत है. इस प्रक्रिया के बारे मे भूपेन सिंह लिखते हैं ‘‘... मीडिया तर्क इतना ताकतवर हो जाता है कि मीडिया अपने फ़ायदे के लिए नैतिकता की हर हद तोड़ने लगता है. ऐसे हालात में कई बार राजनीतिक-सामाजिक किरदार मीडिया तर्क और राजनीतिक तर्क का फ़र्क भी भूल जाते हैं. इस तरह यहां एक तरह से राजनीति, मीडिया लॉजिक का उपनिवेश बन जाती है. राजनीतिक किरदार पूरी तरह मीडिया तर्क के सामने समर्पण कर देते हैं. मीडिया का इस्तेमाल राजनीति को मनमुताबिक ढालने में होने लगता है.’’

अण्णा हजारे के संदर्भ में देखें तो भारत में भी मीडियाचालित राजनीति के कुछ लक्षण दिखने लगे हैं. दरअसल राजनीति के परंपरागत उपकरण पिछले दो दशक में कमजोर पड़े हैं. इस दौर में एक ओर राजनीतिक गोलबंदी के परंपरागत उपकरणों को भोथरा बनाया गया है वहीं दूसरी और राजनीतिक गोलबंदी के साधन के रूप में मीडिया एक प्रभावशाली विकल्प के रूप में सामने आया है. टीएन शेषन के चुनाव सुधारों का घोषित मकसद बेशक चुनावी राजनीति में सफाई लाना रहा होगा, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक इच्छा के प्रदर्शन के परंपरागत तरीके कमजोर पड़ गए.

अण्णा का 2011 का आंदोलन मीडिया और राजनीति के रिश्तों को नए ढंग से परिभाषित कर रहा है. राजनीति के तौर तरीके हो सकता है कि इसके बाद निर्णायक रूप से बदल जाएं. इस आंदोलन को इस नजरिए से भी देखने की जरूरत है.
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—dilipcmandal/gmail.com

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