आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से दशमी तिथि तक नौ दिनों की यह रथयात्रा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसे श्री गुण्डिचा यात्रा भी कहते हैं। इस रथयात्रा का विस्तृत वर्णन स्कन्द पुराण में मिलता है, जहां श्रीकृष्ण ने कहा है कि पुष्य नक्षत्र से युक्त आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि को मुझे, सुभद्रा तथा बलभद्र को रथ में बिठाकर यात्रा कराने वाले मनुष्य की सभी मनोःकामनाऐं पूर्ण होती है। इस रथयात्रा महोत्सव में श्रीकृष्ण के साथ श्री राधिका जी न होकर सुभद्रा और बलराम होते है, जिसके सम्बन्ध में एक विशेष कथा प्रचलित है।
एक समय द्वारिकापुरी में माता रोहिणी से श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी व अन्य रानियों ने राधारानी व श्रीकृष्ण के प्रेम-प्रसंगों एवं ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जिस पर माता ने श्रीकृष्ण व बलराम से छिपकर एक बन्द कमरे में कथा सुनानी आरम्भ की तथा सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने को कहा, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् श्रीकृष्ण एंव बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा के द्वारा अन्दर जाने से रोकने पर श्रीकृष्ण व बलराम को कुछ संदेह हुआ तथा वे बाहर से ही अपनी सूक्ष्मशक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रजलीलाओं को श्रवण करने लगे।
कथा सुनते-सुनते श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत भाव एवं प्रेम उत्पन्न हुआ तथा उनके हाथ व पैर सिकुड़ने लगे। वे तीनों राधा रानी की भक्ति में इस प्रकार भाव-विभोर हो गये कि स्थायी प्रतिमा के समान प्रतीत होने लगे। अत्यंत ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे। श्री सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे तथा भगवान के इस रूप को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रीहरि से कहा कि हे प्रभु! आप सदा इसी रूप में पृथ्वी पर निवास करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कलियुग में इसी रूप में नीलाचल क्षेत्रा (पुरी) में प्रकट होने की सहमति प्रदान की।
कलियुग आगमन के पश्चात् एक समय मालव देश के राजा इन्द्रद्युम्न को समुद्र में तैरता हुआ लकड़ी का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मिला। राजा के मन में उस टुकड़े को निकलवा कर भगवान श्रीहरि की मूर्ति बनवाने की इच्छा जागृत हुई। उसी समय देव शिल्पी विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप में वहां आकर राजा की इच्छानुसार प्रतिमा निर्माण का प्रस्ताव रखा तथा कहा कि ’मैं एक एकान्त बन्द कमरे में प्रतिमा निर्माण करुंगा तथा मेरी आज्ञा न मिलने तक उक्त कमरे का द्वार न खोला जाये अन्यथा मैं मूर्ति-निर्माण बीच में ही छोड़कर चला जाऊंगा’। राजा ने शर्त मान ली, किन्तु कई दिन व्यतीत होने पर भी जब बढ़ई की ओर से कोई समाचार न मिला तो राजा ने द्वार खोलकर कुशलक्षेम लेने की आज्ञा दी।
जब द्वार खोला गया तो बढ़ई रूपी विश्वकर्मा अन्तर्धान हो चुके थे तथा वहां लकड़ी की तीन अपूर्ण मूर्तियां मिलीं। उन अपूर्ण प्रतिमाओं को देखकर राजा अत्यंत दुःखी हो श्रीहरि का ध्यान करने लगे। राजा की भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर भगवान ने आकाशवाणी की ’हे राजन! देवर्षि नारद को दिये वरदान अनुसार हमारी इसी रूप में रहने की इच्छा है, अतः तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवा दो’। अन्ततः राजा ने श्रीहरि की इच्छानुसार नीलाचल पर्वत पर एक भव्य मंदिर बनवाकर वहां तीनों प्रतिमाओं की स्थापना करवा दी। जिस स्थान पर मूर्ति निर्माण हुआ था, वह स्थान गुण्डिचाघर कहलाता है, जिसे ब्रह्मलोक तथा जनकपुर भी कहते हैं। ये तीन मूर्तियां ही भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा जी के स्वरूप हैं।
पुरी में रथयात्रा हेतु तीनों देवताओं के लिए प्रतिवर्ष तीन अलग-अलग नये रथों का निर्माण होता है। रथ के लिए लकडि़यां इकट्ठा करने का कार्य बसंत पंचमी से शुरू होता है तथा रथ निर्माण कार्य अक्षय तृतीया से आरम्भ होता है। रथ का निर्माण मंदिर द्वारा चयनित विशेष परंपरागत बढ़ई ही करते हैं। पुराने रथों की लकडि़यों को श्रद्धालुजन खरीद कर घर के निर्माण में प्रयोग कर लेते हैं। रथ निर्माण में पूर्ण रूप से लकड़ी का प्रयोग होता है, कहीं भी लोहे या कील का प्रयोग वर्जित है।
रथयात्रा आरम्भ होने से एक दिन पूर्व ही तीनों रथ मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बने गरुड़स्तम्भ के निकट खड़े कर दिये जाते हैं। रथयात्रा में सबसे आगे लाल और हरे रंग के ’तालध्वज’ नामक रथ पर बलभद्र जी विराजमान होते हैं। रथयात्रा के मध्य में लाल और नीले रंग के ’दर्पदलना’ अथवा ’देवदलन’ नामक रथ पर देवी सुभद्रा विराजमान रहती हैं। सबसे अन्त के ’नन्दीघोष’ नामक रथ भगवान श्री जगन्नाथ रथारूढ़ होते हैं, जोकि लाल और पीले रंग का होता है। रथयात्रा में ’पोहण्डी बिजे’, ’छेरा पोहरा’, ’रथटण’, ’बहुडाजात्रा’, ’सुनाभेस’, ’आड़पदर्शन’, तथा ’नीलाद्रिविंज’ आदि पारंपरिक रीतिरिवाजों को अत्यंत श्रद्धा एवं भक्ति के साथ निभाया जाता है।
रथयात्रा उत्सव में सर्वप्रथम सुदर्शनचक्र को सुभद्रा जी के रथ पर पहुंचाया जाता है। तत्पश्चात् ढ़ोल-नगाड़ों और गाजे-बाजों के साथ कीर्तन करते हुए भगवान की मूर्तियों को मंदिर से मस्ती में झूमते-झुलाते हुए रथ पर लाया जाता है, जिसे ’पोहण्डी बिजे’ कहते हैं। जब तीनों प्रतिमाऐं अपने-अपने रथ में विराजमान हो जाती हैं, तब पुरी के राजा पालकी में आकर तीनों रथों को सोने की झाडू से बुहारते (झाड़ते) हैं, जिसे ’छेरा पोहरा’ कहते हैं। इसके उपरान्त रथयात्रा आरंभ होती है। सैकड़ों-हजारों भक्तगण रथ को खींचते हैं, जिसे ’रथटण’ कहते हैं। तीन मील के बड़दंड की यात्रा कर तीनों रथ सायंकाल तक गुण्डिचा मंदिर पहुंचते हैं। जहाॅ 9 दिनों तक भगवान प्रवास करते हैं। 8वें दिन श्री गुण्डिचा मंदिर के शरघाबालि मैदान में तीनों रथों को घुमाकर सीघा किया जाता है। दशमी तिथि को वापसी यात्रा आरम्भ होती है, जिसे ’बहुडायात्रा’ कहते हैं। वापस आने पर तीनों देवता एकादशी के दिन मंदिर के बाहर ही रथ पर दर्शन देते हैं तथा भक्तों द्वारा उनका स्वर्ण एवं रत्नाभूषणों द्वारा श्रृंगार किया जाता है, जो ’सुनाभेस’ कहलाता है। मंदिर से बाहर 9 दिनों के दर्शन को ’आड़पदर्शन’ कहा जाता है। द्वादशी तिथि पर रथों पर ’अघरापणा’ के पश्चात् प्रतिमाओं का मंदिर में पुनः प्रवेश होता है, जिसे ’नीलाद्रिविंज’ कहते हैं।
जिस विक्रमी संवत् के आषाढ़ मास में अधिमास होता है, उस वर्ष रथयात्रा उत्सव के साथ एक विशेष उत्सव भी मनाया जाता है, जिसे ’नवकलेवर-उत्सव’ के नाम से जाना जाता है। इस उत्सव में भगवान जगन्नाथ जी अपना पुराना कलेवर का परित्याग कर नया कलेवर धारण करते हैं अर्थात् पुरानी मूर्तियों की जगह लकड़ी की नयी मूर्तियां बनायी जाती हैं तथा पुरानी प्रतिमाओं को मंदिर-परिसर के ’कोयली वैकुण्ठ’ नामक स्थान पर भूमि में समाधि दे दी जाती है। श्री जगन्नाथ पुरी महोत्सव कुल दस दिनों तक चलता है। स्कन्दपुराण के उत्कलखण्ड के अनुसार भगवान ने कहा है कि वे वर्ष में एक बार अपने प्रिय क्षेत्रा नीलाचल अवश्य जायेगें। इसी उपलक्ष्य में रथयात्रा-उत्सव मनाया जाता है।
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