भारत मल्होत्रा
सपनों की उड़ान में उम्र कभी बाधा नहीं होती। सपने पलकों के घरौंदों में पलते हैं। दिल की उर्वर धरती उसका पोषण करती है। और हौंसला कच्ची मिट्टी के उन सपनों को एक मजबूत इमारत में तब्दील कर देते हैं। सपने जरूर पूरे होते हैं, बशर्ते आप में उन्हें हकीकत में बदलने की कुव्वत हो। बोमन ईरानी एक ऐसी ही शख्सियत का नाम है, जिसने न सिर्फ सपना देखा, बल्कि उसे पूरा भी किया। उन्होंने उस उम्र में फिल्मी दुनिया में अपना करियर बनाने की सोची जब हिन्दुस्तान की अधिकतर आबादी अपने बच्चों के भविष्य निर्माण की चिंता में डबल शिफ्ट काम कर रही होती है।
बोमन एक अभिनेता हैं। सही मायने में एक संपूर्ण अभिनेता। कहते हैं अच्छे अभिनेता की निशानी यही होती है कि उसे पर्दे पर देखकर इस बात का अहसास ही न हो कि वह अभिनय कर रहा है। बल्कि सब कुछ वास्तविक लगना चाहिए। इसे 'अफर्टलेस' अदाकारी कहते हैं। यानी सब कुछ यूं आसानी से कर गुजरना जैसा कि कुछ हो ही नहीं। पर्दे के बाहर पैसे खर्च कर फिल्म देख रही जनता तभी किसी कलाकार से खुद को जोड़ पाती है जब वह उसे अपना ही हिस्सा लगे। इस समाज की अच्छाइयों, बुराइयों, खामियों और खूबियों का मिश्रण। ना पूरी तरह सफेद और न ही पूरा तरह काला। कुछ-कुछ ग्रे रंग का। यूं ही तो है आज की दुनिया जहां कुछ भी सिर्फ स्याह या सिर्फ सफेद नहीं है। सब में सब कुछ मिला हुआ है। इसी को पर्दे पर जीवंत करते हैं बोमन ईरानी। आप उनकी फिल्मों को देखिए तो उनमें बाणभट्ट के नायत्व नजर नहीं आएंगे और न ही वह एक संपूर्ण खलनायक नजर आएंगे। वह हमारे बीच का ही एक हिस्सा लगते हैं। यूं लगता है कि जैसे पड़ोस की गली में रहना वाला कोई प्रौढ़ व्यक्ति हो जो बच्चों को शोर मचाने पर डांटता भी है और शाम को सभी बच्चों को गली में टॉफियां भी बांटता है।
'मुन्ना भाई एमबीबीएस' का डॉक्टर अस्थाना हो, जो अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद किसी भी सीमा को लॉंघ सकता है... अपनी गलती का अहसास होने पर माफी भी मांग लेता है... या फिर 'लगे रहो मुन्नाभाई' का चालाक बिल्डर हो जो मकान हासिल करने के लिए तमाम प्रपंच करता है... अपनी बेटी की खुशी के लिए झूठ भी बोलता है... और आखिर में फिल्म के नायक के सामने उसे अपनी 'हार' स्वीकार करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। उनके चरित्र जीवन की बहती धारा से किसी नहर की मानिंद निकलते हैं, जो कई इलाकों में हरियाली बिखेरते हुए गुजरते हैं। 'शीरीं फरहाद की तो निकल पड़ी' में वे अधेड़ उम्र के एक प्रेमी का किरदार जीते हुए कहीं न कहीं अपने निजी जीवन की कहानी ही कहते हैं- ' जो काम आपको पसंद है उसमें उम्र कभी रोड़ा नहीं बननी चाहिए'।
यहां 'थ्री इडियट्स' का जिक्र किए बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। याद कीजिए उस सनकी प्रोफेसर 'सहस्त्रबुद्धि' को। जिसकी नजर में दुनिया एक दौड़ है। और इसमें उसी को बने रहने का हक है जो पहले नंबर पर आने लायक है। उसकी नजर में नंबर वन के अलावा बाकी सब नंबर बेकार हैं। इसी जिद के चलते वह अपने बेटे को भी खो चुका है, लेकिन बावजूद इसके वह अपनी थ्योरी पर कायम है। इस फिल्म ने उन्हें 2010 में आईफा का सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार भी जिताया।
यूं तो बोमन की निजी जिंदगी ही बदलावों से पटी पड़ी है। बोमन अगर अपने निजी जीवन की कहानी पर अपने पसंदीदा निर्देशक राजकुमार हिरानी को फिल्म बनाने के लिए राजी कर लें तो ऐसी फिल्म को देखना दिलचस्प होगा। एक वेटर से लेकर, बेकरी वाला और फिर फोटोग्राफर से लेकर एक मंझे हुए कलाकार का तक उनका सफर खुद किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है। बोमन उस पारसी समाज से आते हैं जिसने भारत के विकास में महती भूमिका अदा की है। भारतीय समाज के दूध में चीनी की तरह घुले इस समाज ने ओद्यौगिक क्षेत्र के इतर भी सामाजिक और फिल्मी दुनिया में भी ने भरपूर योगदान दिया है।
बहरहाल, कई भाषाओं के जानकार बोमन ईरानी का जीवन उन लोगों के लिए एक मिसाल की तरह है जो उम्र या संसाधनों की कमी को बहाना बनाकर अपनी क्षमता का संपूर्ण दोहन नहीं कर पाते। अगर मन में सही लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं। आकाश में छेद हो सकता है, बस जरूरत तबीयत से पत्थर उछालने की है।
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