Guest Corner RSS Feed
Subscribe Magazine on email:    

यह है उत्तर प्रदेश में दलितों के उत्थान की हकीकत

dalit politics in up, up politics bsp

उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री सुश्री मायावती अपने राजनैतिक गुरु स्वर्गीय कांशीराम के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में 1980 में घूम-घूम कर आखिरकार दलित समाज को यह समझा पाने में सफल रही थीं कि यदि दलित समाज सिर उठाकर समाज में जीना चाहता है तथा अपना व अपने बच्चों का मान-सम्‍मान, विकास एवं उत्थान चाहता है तो वह बहुजन समाज के साथ मिलकर हमें सत्ता सौंपे। दलित समाज ने स्वर्गीय कांशीराम व मायावती की बातों पर विश्वास करते हुए व उनके द्वारा बताई जा रही प्रस्तावित नई सामाजिक व्यवस्था पर विश्वास करते हुए आखिरकार उन्हें राजनैतिक शक्ति दे डाली। परिणामस्वरूप आज मायावती अपनी बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार की मुख्‍यमंत्री हैं तथा देश के सबसे बड़े राज्य की दलित परिवार की प्रथम महिला मुख्‍यमंत्री होने का गौरव प्राप्त कर रही हैं। वे इससे पूर्व भी तीन बार राज्य की गठबंधन सरकार की अथवा अन्य राजनैतिक दलों द्वारा समर्थन प्राप्त मुख्‍यमंत्री रह चुकी हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजि़मी है कि क्या वास्तव में देश के इस सबसे बड़े राज्य में दलितों का विकास व उत्थान हो रहा है? क्या राज्य में दलितों की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति पहले से कुछ अधिक मज़बूत हो सकी है? क्या समाज की जड़ों तक पहुंच चुका दलितों के प्रति अस्पृश्यता का भाव समाप्त हो रहा है? क्या राज्य के दलित समाज के लोग आज तथाकथित उच्च जाति के लोगों के साथ बराबर से उसी तरह चलते दिखाई दे रहे हैं जैसे कि व्यक्तिगत् स्तर पर स्वयं मायावती जी समाज के सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलती हुई टेलीविज़न पर दिखाई देती हैं? आखिर बहुजन समाज पार्टी के शासनकालों के दौरान राज्य में ज़मीनी स्तर पर दलितों का कितना उत्थान हुआ है?

मायावती ने अपने शासनकाल के दौरान कई नए जि़लों का गठन किया। इनमें अधिकांश जि़लों के नाम गौतम बुद्ध, अंबेडकर तथा साहूजी जैसे अन्य कई दलित समाज से संबंध रखने वाले महापुरुषों के नाम पर रखे गए। इसके अतिरिक्त लगभग पूरे राज्य के प्रमुख नगरों में इन्हीं महापुरुषों के नाम पर सैकड़ों पार्क बनवाए गए, इनकी मूर्तियां लगवाई गईं। जगह-जगह इन्हीं महापुरुषों के नाम पर शिक्षण संस्थान, अस्पताल आदि खुलवाए गए, तमाम योजनाओं का नामकरण इन्हीं के नाम पर किया गया। सड़कों व गलियों के नाम इन्हीं नामों पर रखे गए। प्रदेश के शैक्षिक पाठ्यक्रम में इन्हीं में से तमाम महापुरुषों को शामिल किया गया। इस प्रकार की और कई योजनाएं दलित नेताओं के नाम पर शुरु की गईं। नि:संदेह उपरोक्त सभी बातें देखने में अत्यंत लुभावनी तो ज़रूर प्रतीत होती हैं परंतु क्या उपरोक्त योजनाओं में से कोई एक योजना ऐसी नज़र आती है जिससे प्रारंभिक स्तर पर, ज़मीनी तौर से किसी एक दलित परिवार का भला होता हुआ या उसका विकास होता हुआ दिखाई दे?

कांग्रेस पार्टी ने अपने 40 वर्षों के शासनकाल में शायद उत्तर प्रदेश में महात्मा गांधी या पंडित जवाहर लाल नेहरू की इतनी मूर्तियां नहीं लगवाई होंगी जितनी कि मायावती ने दलित उत्थान के नाम पर अपनी-अपनी पार्टी के चुनाव निशान हाथी की, स्वर्गीय कांशीराम की तथा अपने माता-पिता की लगवा डालीं। आखिर यह बेशकीमती मूर्तियां किस प्रकार समाज में दलित समुदाय को ऊंचा कर रही हैं या उन्हें मान-सम्‍मान दे रही हैं यह बात समझ से परे है।

दलित उत्थान के नाम पर एक ओर तो इस प्रकार की लोकलुभावनी योजनाएं चल रही हैं तो दूसरी ओर उनके ऊपर कभी यमुना एक्सप्रेस हाईवे के निर्माण को लेकर उंगली उठती है तो कभी वे देश के प्रमुख बिल्डरों के साथ मिलकर देश में अब तक का सबसे मंहगा आयोजन फार्मूला-1 कार रेस को संरक्षण देती दिखाई देती हैं। क्या इन योजनाओं में भी दलित उत्थान की कोई गुंजाईश दिखाई देती है? वैसे भी मायावती पर पहले कई बार अपनी पार्टी के टिकटार्थियों से पैसे मांगने के आरोप लग चुके हैं। ऐसे कई लोग उनकी पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में भी शामिल हो चुके हैं। करोड़ों रुपये की नोटों की विवादित माला पहनते हुए भी अब तक सिवाय मायावती के देश के किसी अन्य नेता को नहीं देखा गया। अपने जन्मदिन पर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से बहुमूल्य तोहफे लेने की सबसे अधिक ललक मायावती में ही देखी गई। मज़े की बात तो यह है कि यह सब कुछ वे केवल दलित समाज को ऊंचा करने तथा समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाए जाने के नाम पर ही करती आ रही हैं। उनका यह दावा भी है कि उनके शासनकाल में दलित समाज का सिर ऊंचा हुआ है तथा उनका सामाजिक विकास व उत्थान भी हुआ है।

परंतु ज़मीनी हकीकत तो दरअसल कुछ और ही है। आज भी अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग की रिपोर्टें यही बताती हैं कि अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश में ही आज भी दलितों के साथ भेदभाव व अत्याचार के सबसे अधिक मामले दर्ज होते हैं। आम लोगों की तो बात क्या करनी वहां का पुलिस प्रशासन भी मायावती की परवाह करता नहीं दिखाई देता। इसी वर्ष गत् मई माह में प्रदेश के सीतापुर जि़ले के खैराबाद थाना क्षेत्र में एक दलित महिला को निर्वस्त्र कर उसकी पिटाई की गई। इस शर्मनाक अपराध का आरोप खैराबाद थाने की पुलिस पर ही लगा। इस प्रकार के मामले प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी पहले की ही तरह होते रहते हैं। सवाल यह है कि मायावती द्वारा हाथी अथवा स्वयं अपनी बनवाई जाने वाली मूर्तियां या उनकी तमाम 'महामाया' योजनाएं क्या ऐसे अपराधों को रोक पाने में सक्षम हो सकेंगी? अफसोस की बात तो यह है कि इस प्रकार की घटनाओं के बाद मायावती द्वारा सीधे तौर पर कोई सख्‍त निर्देश या चेतावनी भी जारी नहीं की जाती जिससे कि समाज में भय का वातावरण पैदा हो तथा इस प्रकार की घटनाएं दोहराई न जा सकें।

इसी प्रकार अभी चंद दिनों पहले उत्तर प्रदेश के ही बस्ती जि़ले में एक ऐसा हादसा पेश आया जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी सुनने को नहीं मिला। समाचारों के अनुसार दलित परिवार के राम सुमेर नामक व्यक्ति के दो बेटे थे। जिनके नाम थे नीरज कुमार व धीरज कुमार। उधर उसके पड़ोसी तथाकथित स्वर्ण जाति के जवाहर चौधरी के घर भी नीरज व धीरज नाम के ही उसके दो जवान पुत्र थे। संभव है कि राम सुमेर ने जवाहर चौधरी के बेटों के नाम को देख कर ही अपने बेटों के नाम भी वही रख दिए हों। परंतु जवाहर चौधरी को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। उसने राम सुमेर को कई बार समझाया तथा बाद में धमकाया भी कि वह अपने दोनों बेटों के नाम बदल दे अन्यथा उसे इसके परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। राम सुमेर, जवाहर चौधरी की इन धमकियों को गंभीरता से नहीं लेता था। गत् 22नवंबर को रात के समय अपने घर में खाना खा कर राम सुमेर का 14 वर्षीय पुत्र नीरज कुमार अपने एक पड़ोसी के घर टीवी देखने चला गया। उसके बाद रात में नीरज घर वापस नहीं आया। अगले दिन 23 नवंबर को गांव के पास ही नीरज की लाश मिली। उधर नीरज की हत्या की घटना को अंजाम देने के बाद जवाहर चौधरी के दोनों बेटे नीरज व धीरज घर से फरार हो गए। इस प्रकार की घटना कि तथाकथित उच्च जाति का व्यक्ति किसी दलित व्यक्ति के बच्चे को केवल इसलिए मार दे क्योंकि उसका नाम मेरे बेटे के नाम जैसा क्यों है, ऐसा वाक्या उत्तर प्रदेश तो क्या संभवत: पूरे देश में कहीं भी सुनने को नहीं मिला। क्या ऐसे हादसों को ही उत्तर प्रदेश में दलितों के सामाजिक उत्थान का उदाहरण कहा जाए?

सामाजिक समरसता को समझने के लिए यहां इसी घटना से मिलती-जुलती एक घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। मेरा एक ड्राईवर जोकि दलित समाज से था उसका नाम जसमेर था। वह जब भी मेरे घर आता मैं उसे डाईनिंग टेबल पर बिठाकर उन्हीं बर्तनों में खाना खिलाती जिनमें परिवार के सभी सदस्य खाते-पीते हैं। वह यदि स्वयं कहीं नीचे बैठने की कोशिश करता तो भी मैं उसे कुर्सी अथवा सोफा पर बैठने को ही कहती। जिस समय वह मेरी गाड़ी चलाता था उसी दौरान उसकी नई-नई शादी हुई थी। मेरा बेटा जिसका घरेलू नाम जॉनी है, जसमेर उससे बहुत प्यार करता था तथा उसे खिलाता व दुलार करता था। जसमेर अक्सर कहा करता था कि यदि उसके घर बेटा पैदा होगा तो वह भी उसका नाम जॉनी रखेगा। और कुछ समय बाद कुदरत ने उसके घर बेटा ही दिया और जसमेर ने अपने बेटे का नाम जॉनी ही रखा। मुझे यह जानकर हमेशा खुशी ही होती थी कि उसने मेरे बेटे के नाम पर ही अपने बेटे का भी नाम रखा। परंतु उत्तर प्रदेश के बस्ती जि़ले में घटी घटना ने तो हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं। सामंती विचारधारा इस कद्र समाज के तथाकथित उच्च जाति के लोगों में घर कर गई है इस बात की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

उत्तर प्रदेश के इस ताज़ातरीन हादसे की चर्चा पूरे विश्व के मीडिया में हुई। साथ-साथ यह चर्चा भी छिड़ी कि एक दलित मुख्‍यमंत्री के शासनकाल में इतना बड़ा व दर्दनाक हादसा पेश आया। लिहाज़ा मायावती जी को शहरों, जि़लों, पार्कों, सड़कों व योजनाओं के नामकरण के बजाए दलित समाज के ज़मीनी उत्थान तथा सामाजिक व आर्थिक स्तर पर भी समानता के उपाय तलाशने चाहिए। एक ओर मायावती स्वयं को दलित महिला कहकर दलितों से वोट मांगती हैं तो दूसरी ओर पूर्ण बहुमत न मिलता देख कर ब्राह्मण समाज के साथ जुडऩे की कोशिश करने लगती हैं। अच्छी बात है, सत्ता को हासिल करने के लिए राजनैतिक तकाज़े जो कुछ भी कहें वह सब करना पड़ता है। परंतु यह एक हकीकत है कि यदि स्वयं उनके अपने शासनकाल में राज्य में सामाजिक समानता तथा जातिवादी समरसता पैदा नहीं हो सकी जिस अकेले एजेंडे के नाम पर वे सत्ता में आई हैं फिर आखिर किसी दूसरे दल के शासन काल से दलित समाज क्या उ मीद कर सकेगा? केवल आरक्षण, नामकरण अथवा नियम-कानून आदि ही इस जातिवादी प्रदूषित व्यवस्था को तोड़ पाने के लिए काफी नहीं हैं। इसके लिए मायावती को ज़मीनी स्तर के उपाय तलाश करने होंगे जो वास्तव में लोक-लुभावने होने के बजाए लोकहितकारी हों।

More from: GuestCorner
27451

ज्योतिष लेख

मकर संक्रांति 2020 में 15 जनवरी को पूरे भारत वर्ष में मनाया जाएगा। जानें इस त्योहार का धार्मिक महत्व, मान्यताएं और इसे मनाने का तरीका।

Holi 2020 (होली 2020) दिनांक और शुभ मुहूर्त तुला राशिफल 2020 - Tula Rashifal 2020 | तुला राशि 2020 सिंह राशिफल 2020 - Singh Rashifal 2020 | Singh Rashi 2020