आखिरकार तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को उनके पद से हटवाकर अपने खास मुकुल रॉय को रेल मंत्रालय का जिम्मा दिलवा ही दिया। ये वही मुकुल रॉय हैं, जिन्हें ममता बनर्जी पहले भी रेलमंत्री बनाना चाहती थीं, लेकिन प्रधानमंत्री ने उन्हें रेल राज्य मंत्री ही बनाया। एक वक्त वह भी था, जब 1956 में हुए अडियालूर रेल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। इस हादसे में डेढ़ सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे, जबकि दूसरी तरफ मौजूदा रेलमंत्री मुकुल रॉय जब रेल राज्यमंत्री के तौर पर काम कर रहे थे, उस वक्त असम में रेल हादसे के दौरान प्रधानमंत्री के कहने के बावजूद वह घटनास्थल पर नहीं गए थे।
मुकुल रॉय का कहना था कि मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास है। तृणमूल कोटे से रेलमंत्री रहे दिनेश त्रिवेदी ने जहां बी. कॉम के साथ ही एमबीए तक की शिक्षा हासिल की थी, वहीं मौजूदा रेलमंत्री मुकुल रॉय ने बीएससी-पार्ट वन तक की पढ़ाई की है यानी हमारे नए रेलमंत्री स्नातक भी नहीं हैं। दिनेश त्रिवेदी जहां रेलवे में सुरक्षा और बदलाव की बात करते थे, वहीं मौजूदा रेलमंत्री सिर्फ एक ही बात दोहराते हैं कि किस तरह दीदी ने रेल और बंगाल को बदला। यही नहीं, उनकी एक खासियत और भी है कि वे ममता बनर्जी की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं करते। यही वजह थी ममता की मंशा के खिलाफ जब दिनेश त्रिवेदी ने रेल किराया बढ़ाया तो ममता ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर त्रिवेदी को पद से हटाने और उनकी जगह पर मुकुल रॉय को लाने की मांग भी की।
ममता का कहना था कि किराया बढ़ने से आम आदमी पर दबाव बढ़ेगा और हम आम आदमी को प्रभावित नहीं करेंगे। दरअसल, ममता बनर्जी की चिंता आम आदमी से ज्यादा पार्टी के भीतर खुद के राजनीतिक वर्चस्व की है। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद कई दिनों तक तृणमूल कोटे से किसी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा नहीं दिया गया था। जो भी हो, मौजूदा रेलमंत्री मुकुल रॉय ने रेल बजट में प्रस्तावित यात्री किराये में बढ़ोतरी को पूरी तरह से (एसी-1 और एसी-2 को छोड़कर) वापस ले लिया। ममता की मंशा पूरी करने की वजह से अब रेल मंत्रालय को प्रस्तावित 5,766 करोड़ रुपये की आमदनी से वंचित होना पड़ेगा। ऐसा पहली बार हुआ, जब रेल बजट में किराया बढ़ोतरी की बात हुई तो जनता में उसको लेकर कोई खास नाराजगी दिखाई नहीं दी। वैसे भी देश के संसदीय इतिहास में यह अपनी तरह का अनोखा मामला है, जब एक रेलमंत्री ने बजट पेश किया और उस पर चर्चा किसी दूसरे रेलमंत्री ने की।
देश का रेल नेटवर्क दुनिया के सबसे बड़े नेटवर्क में से एक है और भारतीय रेल हर दिन सवा करोड़ से ज्यादा लोगों को उनकी मंजिल पर पहुंचाती है। देश में आए दिन होने वाले रेल हादसों से सवाल उठता है कि रेल यात्रियों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? दिनेश त्रिवेदी ने अपने बजट भाषण में जिक्र किया था कि जान है तो जहान है, अगर ममता बनर्जी को वाकई चिंता आम आदमी की है तो उन्हें यह बात याद रखनी होगी कि हर साल रेल हादसे में औसतन 400 लोगों की मौत होती है और इन हादसों के बाद जांच जैसी औपचारिकताओं और मामले की लीपा-पोती के अलावा कुछ भी नहीं होता।
रेल मंत्रालय का जिम्मा संभाल चुकी ममता बनर्जी इस बात को तो जानती ही होंगी कि दुनिया के कई विकसित देश आर्थिक वजहों से अब तक एंटी कोलिजन डिवाइस तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं तो क्या भारतीय रेलवे ऐसी माली हालत में देश भर में एंटी कोलिजन डिवाइस तकनीक का इस्तेमाल कर सकती है? देश में अब तक तीन रेलवे क्षेत्रों में ही इसे लगाने की मंजूरी मिली है। क्या यह चिंता का विषय नहीं है कि रेल सुरक्षा के मद में खर्च होने वाली राशि काफी कम होती है? नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की ऑडिट रिपोर्ट में भी रेलवे की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए गए थे और इस बात का जिक्र किया गया था कि वर्ष 2009-10 में हर यात्री की सुरक्षा पर मात्र 2.86 रुपये ही खर्च किए गए। टेस्ट ऑडिट में यह भी पाया गया था कि करीब 74 रेलवे स्टेशनों में करीब 30 फीसदी प्रवेश द्वारों पर कोई सुरक्षा बल तैनात नहीं था। ऐसी एक दो नहीं, अनेक खामियां हैं, जिस पर रेल मंत्रालय को ध्यान देने की जरूरत है।
संप्रग-2 में अगर ममता बनर्जी के दौरान रेल मंत्रालय की बात की जाए तो उन्होंने रेलवे सुरक्षा से ज्यादा ध्यान रेल लाइनों को बढ़ाने पर दिया और इसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह दूसरे दलों का दबाव या फिर अपने राज्य के लोगों को खुश करना भी था। ममता बनर्जी बढ़ा रेल किराया वापस कराकर भले ही अपनी पीठ थपथपा रही हों, लेकिन क्या वह बताएंगी कि देश में 19 हजार किलोमीटर पटरियों के आधुनिकीकरण पर खर्च होने वाली राशि कहां से आएगी? रेलवे सुरक्षा को तभी मजबूत बनाया जा सकता है, जब इसके लिए बजट में ज्यादा धनराशि का प्रावधान हो और रेलवे सुविधाओं के साथ ही अपनी आमदनी बढ़ाने पर भी ध्यान दे। सेफ्टी फंड तो बना दिया गया है, लेकिन अगर बात पुरानी सिग्नल व्यवस्था को बदलने की हो या फिर ट्रैक को बदलने की तो हालात में कोई खास तब्दीली नहीं आई है। भारतीय रेल में आज भी आला अफसरों से लेकर कर्मचारी स्तर तक ज्यादातर पद खाली पड़े हैं, लेकिन इस बात की कोई सुध नहीं लेता।
रनिंग स्टॉफ की कमी के चलते लोगों को छुट्टियां नहीं मिलती हैं और दिन-रात ड्यूटी करने वाले रनिंग स्टॉफ के तनाव में रहने की वजह से भी कई बार रेल गाडि़यां हादसे की शिकार हो जाती है, लेकिन इन बातों की किसी को भी फिक्र नहीं है।
सवाल रेल मंत्रालय पर तृणमूल कांग्रेस की राजनीतिक रोटी सेंकने भर का नहीं है, यह देश का दुर्भाग्य है कि गठबंधन राजनीति के दौर में जिस किसी के भी हिस्से में रेल मंत्रालय आया, उसने इसे अपनी राजनीतिक जागीर मानकर ही फैसले लिए। सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर कब तक रेल मंत्रालय राजनीति की भेंट चढ़ता रहेगा? अगर रेलमंत्री मध्य प्रदेश से होगा तो उस प्रदेश को नई गाडि़यों की सौगात मिलेगी और अगर बिहार से हुआ तो फिर हर गाड़ी बिहार से होकर ही गुजरेगी। इन दिनों रेल मंत्रालय पश्चिम बंगाल पर मेहरबान है।
ऐसा कब होगा जब कोई रेलमंत्री खुद को अपने प्रदेश का रेलमंत्री समझने के बजाय पूरे देश का रेलमंत्री समझेगा? यह बात ठीक है कि उन प्रदेशों में जहां पर आबादी के हिसाब से रेल सुविधाएं दुरुस्त नहीं हैं, वहां पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है फिर चाहे वह उत्तर प्रदेश हो या बिहार या कोई दूसरा राज्य, लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि रेल योजनाओं को वोट की राजनीति के मकसद से नहीं देखा जाना चाहिए? तत्कालीन रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी का यह कहना ठीक था कि जिस तरह हिमालय के बिना देश की कल्पना नहीं की जा सकती, ठीक उसी तरह भारतीय रेल के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। दिनेश त्रिवेदी की पढ़ी हुई ये पंक्तियां वाकई प्रासंगिक हैं, देश की रगों में दौड़ती है रेल, देश के हर अंग को जोड़ती है रेल। धर्म, जात-पात को नहीं जानती रेल, छोड़े-बड़े सभी को अपना मानती है रेल। भारतीय रेल आपकी संपत्ति है। इन पंक्तियों के मायने को समझने की जरूरत है। वरना, गठबंधन राजनीति के दौर में सहयोगी दल या फिर कोई मंत्री रेल को अपनी ही जागीर समझने की भूल करता चलेगा।