लीजिए अब सबकुछ खुल्म खुल्ला ही बोल दिया गया। न कोई बीप लगाई गई और न ही डायलॉग चबाई गई। और तो और डबल मीनिंग का कोई लफड़ा भी नहीं...सब कुछ सिंगल मीनिंग। आमीर खान की डेल्ही बेली देखी। वाहवाही की मलाई खान साहब ले रहें हैं, लेकिन इस फिल्म में गालियों के फिल्मी संस्करण का पूरा श्रेय लेखक और सहनिर्देशक अक्षत वर्मा को ही जाता है, जिन्होंने पूरी फिल्म में हिन्दी में दी जाने वाली गालियों का रायता फैला दिया। गजब कर दिया। अंग्रेजी के शिट और हिन्दी के शिट के बीच का फासला इन्होंने पौने दो घंटों में नापकर रख दिया। इतना ही नहीं हमारे बॉलीवुड में चीप क्लास की जिन गालियों को अब तक बीप लगाकर बोला जा रहा था, इस फिल्म में उन्हीं गालियों को हाई सोसाइटी की जुबान में ऊंगल डालकर निकला कर रख दिया है। शिट हैपेंस कहते हुए फिल्म का प्रोमोशन किया गया, लेकिन फिल्म में सिर्फ शिट होपेंस नहीं हुआ है....यहां तो पूरा का पूरा शिट का हिन्दी शब्दकोश तैयार कर दिया गया। जिन गालियों को रेलवे स्टेशन, चांदनी चौक, ब्लू लाइन बस, बस अड्डों पर सुनने भर से दिमाग में ज़हर घुल जाया करता था, इस फिल्म ने उन्ही गालियों पर मुंह दबा दबा कर हंसने पर मजबूर कर दिया। कहा जाए तो इस फिल्म ने हिन्दी गालियों को दिल्ली की सड़कों, तंग गलियों, बस्तियों, झुग्गी झोपड़ियों से निकाल कर इनका पूरा ग्लोबेलाइजेशन कर दिया है। हां, ये बात है कि ग्लोबेलाइजेशन हो जाने से इनके मायनों में अंग्रेजी की गालियों वाली हाई क्लास नफासत नहीं आयेगी, लेकिन जब भी किसी को अपने भीतर का शैतान बाहर निकालना होगा तो देसी गालियों का ये शब्दकोश उनके जिगर की गर्मी को जरूर ठंडा कर सकेगा।
देल्ही बेली के साथ ही एबी कॉरपोरेशन की भी फिल्म आयी थी, बुड्ढा होगा तेरा बाप। उसमें जब भी अमिताभ बच्चन को गाली देनी होती तो वे बीप बोलते हैं....बीप बोले तो रिश्तों की गाली। सही भी है, परिवार बच्चों, मां बाप, बड़े बुजुर्गों के अनसेंसर्ड गालियां सुनने में बुरी लगती है। लेकिन यहां किसी को ‘यू’ सर्टिफिकेट चाहिए ही नहीं थी, इन्हें तो ‘ए’ फिल्म ही बनानी थी। इसलिए बीप लगाने का चक्कर ही नहीं रखा। उसपर भी ‘ए’ फिल्म में ‘एक्स’ फिल्म का मसाला भी मिला दिया। कलाकारी देखिए कि पब्लिक उसपर भी हॉल में ठहाके लगा रही है। जिन्हें फिल्म के गाने भाग डी के बोस से आग लगी थी, उनका हाल भी फिल्म के किरदार नितिन की तरह हो गया होगा। नितिन अपना जिवाश्म इधर उधर छलकता जा रहा था, तो इनका दिमागी जिवाश्म बौधिक मंचों पर छलक रहा होगा। लेकिन वे बुद्धिजीवी भी फिल्म देखने हॉल तक पहुंचें होंगे। बच्चों को घर पर छोड़ कर पहुंचे होगें। और गालियों के देसी संस्करण पर अपने शब्दकोश से भी एक दो देसी संस्करण वाले गालियों को जोड़कर फिल्म की पूरी चुटकी भी ली होगी।
कुल मिला कर ये ही कहना है कि देसी गालियां पहली बार किसी फिल्म की यूएसपी बनकर उभरा है। और वो भी पूरी कलाकारी के साथ। इस फिल्म ने दर्शकों में क्लास डिफिरेंस को मिटाकर रख दिया। अब तक इस तरह की गालियों वाली सी ग्रेट और छोटे शहरों की टॉकीज़ में लगने वाली फिल्मों में होती थी। इस फिल्म ने जता दिया कि अगर आपमें कलाकारी है तो बिना किसी बड़ी स्क्रीप्ट के एक आम शहरी जिंदगी को उसकी अपने खाटी अंदाज में दिखाकर भी फिल्म को हिट के मुकाम तक पहुंचाया जा सकता है। वैसे भी देल्ही बेली में आम बॉलीवुड मसाला होकर भी नहीं था। आइटम सांग से लेकर रोमांस, सेक्स, लोकेशन सब के साथ एक्पेरिंमेंट हुआ और सब कुछ सक्सेफुल रहा। कुछ उसी तरह से जैसे थ्री ईडियट्स ने पहली बार बलात्कार, ईमोशन मां, हिटलर पिता और यहां तक कि लेबर पेन पर न सिर्फ फिल्मी सेट पैर्टन को बदलकर रख दिया बल्कि दर्शकों को बदल दिया। कुछ ऐसी ही बदलाव लाने की कोशिश देल्ही बेली ने भी की गई है। और इसमें गलत भी क्या है... क्या शिट डज़ नॉट हैपेन।