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नए सूचना कानूनों पर बहस की जरूरत

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सूचना तकनीक संशोधन अधिनियम 2009 के प्रस्तावित मसौदे को कानून बने एक महीने से अधिक का वक्त हो गया। पिछले 11 अप्रैल सरकारी गजट में इस संबध में तमाम कानूनों को प्रकाशित कर दिया गया था, लेकिन इतने महत्वपूर्ण विषय पर जितनी बहस होनी चाहिए थी वह न पहले हुई और न बाद में। प्रस्तावित मसौदे पर सूचना तकनीक मंत्रालय ने आम लोगों से 28 फरवरी तक राय मांगी थी, लेकिन सिविल सोसाइटी की तरफ से जितने भी सुझाव दिए गए उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। नए कानून में साइबर सुरक्षा से लेकर अनेक तरह के साइबर अपराधों पर अंकुश के बाबत प्रावधान हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले इन कानूनों को लेकर साइबर संसार में अपेक्षित बहस का नदारद रहना दुर्भाग्यपूर्ण है।

आइटी एक्ट के नए नियमों में मध्यवर्ती संस्थाओं की नई जिम्मेदारी तय की गई है। नए नियमों में मध्यवर्ती संस्थाओं की परिभाषा है। कोई भी कंपनी जो दूसरों के लिए इलेक्ट्रॉनिक डाटा इकट्ठा करती है, संभालती है या प्रसारित करती है। इसका मतलब यह है कि टेलीकॉम नेटवर्क, वेब होस्टिंग कंपनियां, इंटरनेट सेवा प्रदाता सर्च इंजन, ऑनलाइन पेमेंट लेने वाली और ऑक्शन करने वाली साइट व साइबर कैफे इस श्रेणी में आएंगी। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रस्तावित नियमों में ब्लॉग भी इसी श्रेणी में रखे गए हैं जो किसी सूचना को होस्ट नहीं कर सकता। नए नियमों में अश्लीलता परोसने वाली, राष्ट्र विरोधी मनी लॉड्रिंग या जुए से संबंधित घृणा फैलाने वाली, निजता का दखल करने वाली, नुकसान पहुंचाने वाली, धमकाने वाली जैसी जिन तमाम सीमाओं का जिक्र किया गया है, उसका फैसला करने की जिम्मेदारी मध्यवर्ती संस्थाओं की है। इनके के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि वो दूसरों से संबंधित सूचनाओं को प्रकाशित न करें। इसका अर्थ हुआ खोजी पत्रकार या नागरिक दूसरे से संबंधित अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं कर सकते। यानी भारत में किसी विकीपीडिया के जन्म से पहले ही सरकारी डंडा तैयार है।

इस नियम में कई बातें खासी हैरान करती हैं। मसलन भारत में घोड़ों की दौड़ पर जुआ चल सकता है और गोवा में कैसियो, लेकिन जुए से संबंधित कोई भी बात नियम का उल्लंघन करती है। नए नियमों के मुताबिक साइट संचालक, ब्लॉगर, ट्विटर आदि को पुलिस वाला बनना होगा यानी अपने लिखे के साथ दूसरों की प्रतिक्रियाओं पर भी चौकस नजर रखनी होगी। व्यावहारिक रूप में ब्लॉग लेखन का मतलब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, जिसका अब हनन होता दिखता है। अगर ब्लॉग लेखक के ऊपर लेखन से संबंधित तमाम दबाव होंगे तो वह क्या खाक वैचारिक लेखन करेगा। पीसीओ बूथ से आप फोन कर सकते हैं तो आपको किसी तरह के आइकार्ड दिखाने की जरूरत नहीं है, लेकिन साइबर कैफे के लिए आवश्यक होगा। क्या भारत में हर व्यक्ति के पास आइकार्ड है, दूसरी मुसीबत साइबर कैफे मालिको की है जिन्हें पूरे साल हर उपयोक्ता का पूरा विवरण रखना होगा। जानकारों का मानना है कि नया नियम साइबर कैफे के व्यवसाय को प्रभावित करेगा। भारत में अभी इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या महज आठ करोड़ है और देश में इंटरनेट के विस्तार के लिए साइबर कैफे जैसे सेंटरों की काफी जरूरत है।

अभी नए नियमों का हंटर किसी पर पड़ा नहीं है, लिहाजा इस पर बहस शुरू नहीं हुई है। आने वाले दिनों में ब्लॉगर या साइट संचालकों को नए नियमों का आधार बनाकर निशाना बनाया जा सकता है। सरकार ने सिविल सोसाइटी के सुझावों को दरकिनार कर साफ कर दिया है कि उसकी मंशा ऑनलाइन अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम को अपने मुताबिक चलाने की है। आखिर, ऐसे कितने लोग हैं जो बेवजह झंझट में फंसना चाहते हैं। आखिर, एक लंबी-चौड़ी पोस्ट में ब्लॉगर विषय के अलावा कितनी बातों का ध्यान रखेगा। ऑनलाइन कंटेंट को लेकर सरकार की कई चिंताएं जायज हो सकती हैं, लेकिन नया कानून ऑनलाइन अभिव्यक्ति पर कानूनी अंकुश की साजिश सरीखा है। विडंबना यही रही कि साइबर संसार में इंडियंस ब्लॉगर्स कंट्रोल एक्ट के नाम से चर्चित इस कानून पर अभी तक न तो बहस छिड़ी और न ही इसे आवश्यक समझा जा सका है।

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