प्रकाश झा की फिल्म ‘चक्रव्यूह’ के चर्चित गीत ‘महंगाई...’ से सुर्खियों में आये संगीतकार विजय वर्मा अब हिन्दी सिनेमा जगत में नयी पहचान गढ़ रहे हैं। मूलत: बिहार के रहने वाले विजय वर्मा ने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए काफी पापड़ बेले हैं। लेकिन, अब उन्हें लग रहा है कि उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। उनके संघर्ष, कामयाबी और आगामी योजनाओं पर उनसे बात की पीयूष पांडे ने।
सवाल : ‘चक्रव्यूह’ के लिए आपको पूरा क्रेडिट नहीं मिला। यह सवाल इसलिए क्योंकि शुरुआती दौर में पोस्टरों पर आपका नाम दिखायी पड़ा लेकिन बाद में आपका नाम गायब हो गया?
जवाब : नहीं मैं ऐसा नहीं मानता। फिल्म में पाँच गाने हैं और पाँच म्यूजिक डायरेक्टर हैं। फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक सलीम-सुलेमान ने दिया है, तो पोस्टर पर संगीत-निर्देशक के रुप में उनका नाम गया। फिल्म में हम सभी का नाम दिया गया है। वैसे, यह हमारे एग्रीमेंट में था, इसलिए इस मसले को तूल देने जैसी कोई बात नहीं है।
सवाल : चलिए छोड़िए इस सवाल को। यह बताइए इंडस्ट्री में आना कैसे हुआ?
जवाब : मैं बिहार के छपरा ज़िले के अपहर गाँव का रहने वाला हूं। ग्रेजुएशन तक पढ़ाई बिहार में ही की फिर कलकत्ता चला गया। वहां कॉस्ट एकाउटेंसी की। नौकरी शुरु की तो पहले पैनासोनिक के साथ काम किया। फिर मुंबई में नौकरी लग गई। दिल के एक कोने में संगीत बचपन से बसा था तो धीरे-धीरे लगने लगा कि जब जुनून संगीत का ही है तो बाकी काम करने से क्या फायदा। खुद को जोखिम में डालना जरुरी लगने लगा, क्योंकि जब तक आपको दूसरी तरफ जाने का रास्ता दिखायी देता है, तब तक आप जोखिम नहीं लेते। अंतत: मैंने फैसला किया कि अब संगीत ही करुंगा। 1999 से म्यूजिक की फील्ड में हूं। पहले टेलीविजन में काम किया। कई विज्ञापन फिल्मों के लिए काम किया। प्रिया गोल्ड-अकाई टीवी सरीखे कई एड किए। फिर फिल्मों में तो आना ही था। पाँच साल से कोशिश कर रहा था। एक मौका आया, जब लोगों को मेरा काम अच्छा लगा। मैं मानता हूं कि यह संयोग का खेल है। आप रातों रात प्रतिभाशाली नहीं होते। मैं पहले भी इसी तरह का म्यूजिक रचता था, लेकिन लोगों ने अब पहचाना तो संयोग की बात है।
सवाल : संगीत निर्देशक बनने के लिए संगीत की प्रॉपर ट्रेनिंग की कितनी जरुरत है?
जवाब: देखिए, मेरा निजी तौर पर मानना है कि म्यूजिक कंपोज करने के लिए क्लासिकल म्यूजिक की डिग्री से कोई लेना देना नहीं है। जो बंदा पेंटर है तो वो है। म्यूजिक में दिल रमता है तो रमता है। मैंने 9वीं क्लास से कंपोज करना शुरु कर दिया था। हालांकि,मैं खुद म्यूजिक में ग्रेजुएट हूं लेकिन बड़ी मुश्किल में मैंने उस पढ़ाई को ‘अनलर्न’ किया।
सवाल : म्यूजिक की फील्ड में नए ट्रेंड्स को लेकर क्या आकलन है?
जवाब : मेरा मानना है कि कोई नया ट्रेंड नहीं है। यह सब गिमिक है। बदलते दौर में ड्रेस बदलते हैं, लेकिन मैटेरियल वही रहता है,वही हाल म्यूजिक का भी है। हर दौर में एक फ्लेवर एड होता है। कंपोजर का मूल बातों से लेना देना है बाकी लोगों की पसंद और बदलते दौर की कुछ अलग जरुरतों के हिसाब से फ्लेवर बदल जाता है। एक लाइन में कहूं तो ट्रेंड अच्छा गाने का है।
सवाल : आजकल संगीत आधुनिक वाद्ययंत्रों पर निर्भर हो गया है। तो प्रयोग की गुंजाइश कम हो गई है या ज्यादा?
जवाब : प्रयोग की गुंजाइश बहुत ज्यादा हो गई है। एक दौर में जिन आवाजों को हम दाँत से या रबर से निकालते थे, वैसी सैकड़ों आवाज़ें आज सॉफ्टवेयर में उपलब्ध हैं। उन आवाज़ों का क्रिएट करना आसान नहीं है, लेकिन सॉफ्टवेयर ने उस परेशानी को हल कर दिया है। साउंड खोजना नहीं बजाना है। इससे प्रयोग की गुंजाइश बढ़ गई। लेकिन दूसरी तरफ नयी ध्वनि यानी साउंड खोजने की गुंजाइश कम हो गई है। अब मामला बहुत स्पष्ट हो रहा है। साउंड खोजने का काम कुछ लोग करेंगे और उन्हें इस्तेमाल का काम दूसरे। मतलब यह काम अलग अलग विशेषज्ञता का हो गया है अब।
सवाल : अच्छा संगीत अच्छे बोल के बिना अधूरा है। तो क्या आज अच्छे गीत लिखे जा रहे हैं। आज के गीतकारों के बारे में आपका क्या मानना है?
जवाब : मैं तो मानता हूं कि बोल ही मुख्य हैं, संगीत दूसरे नंबर पर है। म्यूजिक सिर्फ माध्यम है। एक गाने में शब्दों के जरिए कोई बात कही जाती है, वो लोगों के दिल पर सीधे वार करे या उनके दिल को छुए, इसलिए उसे तरन्नुम में ढाला जाता है। मुझे लगता है कि आज शब्दों से खेलने का काम ज्यादा हो रहा है, भावों से कम। गीतकार में अपनी बात कहने के लिए एक एटीट्यूड होना जरुरी है। आज अमूमन हो यह रहा है कि पहले से यह तय करने की कोशिश होती है कि हिट गाना लिखा जाए। यहीं से मामला बिगड़ जाता है। आप अपनी संवेदनाओं के आधार पर गीत लिखिए-हिट की चिंता मत कीजिए। अच्छा कवि-गीतकार होने के बावजूद हिट की डेस्पेरेशन खेल बिगाड़ देती है। मैं पहले गीत लिखवाता हूं,फिर म्यूजिक कंपोज करता हूं। क्योंकि अल्फ़ाजों को दिलों तक पहुंचाना है,तो मालूम होना चाहिए कि आखिर बात कही क्या जा रही है।
सवाल : संगीत निर्देशकों को निर्देशकों की तरफ से कितनी छूट मिलती है। खासकर छोटे बजट की फिल्मों में।
जवाब : यह अलग अलग निर्देशकों पर निर्भर है। प्रकाश झा जी की कहानी में कथ्य होता है। उनकी कहानी का एक कैरेक्टर होता है। वहां बोल का महत्व होता है। मसलन-महंगाई गाने को हमने एक दिन में कंपोज कर दिया लेकिन बोल पर तीन दिन तक माथापच्ची होती रही।
सवाल : आपने तो टेलीविजन में काम किया है। टेलीविजन में संगीत निर्देशकों के लिए स्कोप है?
जवाब : बिलकुल स्कोप नहीं है। जिंदगी की जद्दोजेहद को आसान बनाने यानी पैसा कमाने के लिए काम ठीक है। पर रचनात्मकता के लिए वहां ज्यादा जगह नहीं है। बीस सेकेंड के टाइटल ट्रैक में आप क्या कर सकते हैं? बैकग्राउंड स्कोर भी पूरी तरह मशीनी हो गया है।
सवाल : मुंबई में शुरुआती दौर का अनुभव कैसा रहा। उत्तर भारतीय होना क्या राह में रोड़ा बनता है यहां।
जवाब : अच्छा बुरा अनुभव रहा। अच्छा रहा तो शहर की अच्छाई की वजह से और खराब रहा तो अपनी कमियों की वजह से। मैं कलकत्ते में भी रहा और दिल्ली में भी। मुझे लगता है कि सभी महानगरों में मुंबई सबसे अच्छा है। यहां के लोग अच्छे हैं। उत्तर भारतीय वाला मसला मुझे राजनीतिक ज्यादा लगता है। अच्छी-बुरी चीजें दो-चार लोगों पर असर डालती ही हैं। लेकिन, मैं इस मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण नहीं मानता कि इसे तूल दिया जाए।
सवाल : आप आजकल कौन सी फिल्में कर रहे हैं।
जवाब : प्रकाश झा की ‘सत्याग्रह’। मनीष वात्सल्य की ‘दशहरा’। अनिल शर्मा की ‘सिंह साहब द ग्रेट’। इसके अलावा भैयाजी सुपरहिट और चोर जैसी फिल्में कर रहा हूं। हां, इनमें से किसी फिल्में में मैं अकेला म्यूजिक डायरेक्टर नहीं हूं। किसी में तीन गाने हैं तो किसी में सिर्फ एक। सोलो फिल्म की योजना बन रही है, लेकिन अभी उसके बारे में बात करना ठीक नहीं।
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