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हिंदुत्व' से 'मोदित्व' की ओर बढ़ती भाजपा?

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पिछले दिनों मुंबई में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक संपन्न हुई। बजाए इसके कि इस कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी द्वारा किया गया कोई चिंतन-मंथन अथवा राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र लिया गया कोई निर्णय चर्चा का विषय बनता, ठीक इसके विपरीत पार्टी की भीतरी कलह, नरेंद्र मोदी, बी एस येदियुरप्पा, वसुंधरा राजे सिंधिया व अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं का कार्यकारिणी की बैठक में आना या न आना चर्चा का विषय बना रहा। और आखिरकार भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के पहले ही दिन संगठनात्मक मतभेद इस हद तक सामने आए कि गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी को मनाने के लिए तथा मुंबई में हो रही इस बैठक में उनके शामिल होने के चलते पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य संजय जोशी को अपना त्यागपत्र तक देना पड़ा।
नरेंद्र मोदी को मनाने के लिए संजय जोशी को अपमानित किया जाना स्वयं जोशी को इस हद तक नागवार गुज़रा कि उन्होंने कार्यकारिणी से त्यागपत्र देने के कुछ ही क्षणों बाद भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। यह और बात है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी पार्टी में 'सब कुछ ठीक-ठाक है' का माहौल बनाने के लिए यह कहते दिखाई दिए कि जोशी ने पार्टी के हितों के मद्देनज़र ही अपना त्यागपत्र दिया है। यदि जोशी ने स्वेच्छा से या पार्टी के हितों के मद्देनज़र त्यागपत्र दिया होता तो वे कार्यकारिणी से अपना त्यागपत्र देने के साथ ही न तो भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र देते और न ही त्यागपत्र देने के पश्चात भूमिगत हो गए होते।

बहरहाल, भाजपा में हुए इस राजनैतिक घटनाक्रम से पार्टी की भविष्य की कई संभावनाएं उजागर हो रही हैं। एक तो यह कि हिंदुत्व के नाम पर अपनी राजनीति परवान चढ़ाने वाली भारतीय जनता पार्टी अब केवल 'हिंदुत्व' के ही सहारे नहीं बल्कि 'मोदित्व' की राजनीति की भी मोहताज दिखाई दे रही है बावजूद इसके कि पार्टी का प्रत्येक बड़े से बड़ा नेता नरेंद्र मोदी के अक्खड़ स्वभाव तथा मनमर्जी की राजनीति करने की उनकी विशेष शैली से बखूबी वाकि़फ है। उनकी इसी अक्खड़ शैली ने उन्हें गुजरात में अपने से कहीं वरिष्ठ रह चुके शंकर सिंह वाघेला व केशुभाई पटेल जैसे नेताओं से आगे लाकर खड़ा कर दिया है। और उनकी यही शैली व स्वभाव अब पार्टी के उन राष्ट्रीय नेताओं को भी खटकने लगा है जो पार्टी के राष्ट्रीय क्षितिज पर इस समय चमकते दिखाई दे रहे हैं तथा अपने उज्जवल राजनैतिक भविष्य के सपने देख रहे हैं। निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी को मनाने हेतु संजय जोशी जैसे संघ द्वारा भाजपा में भेजे गए नेता को हटाया जाना पार्टी में नरेंद्र मोदी की ज़रूरत व उनके बढ़ते हुए कद को दर्शा रहा है।

गौरतलब है कि संजय जोशी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक होने के पश्चात संघ द्वारा भाजपा में गुजरात के संगठन मंत्री के रूप में ठीक उसी प्रकार नियुक्त किए गए थे जैसे कि 1980 के दशक में नरेंद्र मोदी को राज्य भाजपा का संगठन मंत्री बनाया गया था। अन्य संगठनों में संगठन मंत्री का पद कोई विशेष अहमियत भले ही न रखता हो परंतु भाजपा में संघ द्वारा बनाया गया संगठन मंत्री पार्टी व संघ के बीच सामंजस्य स्थापित करने जैसा महत्वपूर्ण कार्य करता है। नरेंद्र मोदी पूर्व में यह जि़म्‍मेदारी बखूबी निभा चुके हैं। परंतु जब संजय जोशी को गुजरात में इसी पद पर नियुक्त किया गया तो नरेंद्र मोदी व संजय जोशी के सुर आपस में नहीं मिल सके। मोदी को ऐसा आभास होने लगा कि शायद संजय जोशी उनके विरुद्ध लॉबिंग कर रहे हैं। मोदी ने तभी से न सिर्फ संजय जोशी का विरोध करना शुरु कर दिया बल्कि उनसे मिलना-जुलना, बात करना तथा उनका सामना करने तक से परहेज़ करना शुरु कर दिया। परंतु इन सब के बावजूद नागपुर से संबद्ध संजय जोशी की न केवल संघ में अच्छी पैठ थी बल्कि वे नितिन गडकरी के भी खास कृपापात्र माने जाते थे। लिहाज़ा मोदी की इच्छा के विरुद्ध गडकरी ने जोशी को इसी वर्ष उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में उमा भारती के साथ राज्य का प्रभारी भी बना दिया। नरेंद्र मोदी को यह बात इतनी बुरी लगी कि वे उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में निमंत्रण के बावजूद नहीं गए।
कहा तो यहां तक जा रहा है कि कुछ समय पूर्व संजय जोशी का जो सेक्स सीडी प्रकरण उजागर हुआ था, उसके पीछे भी नरेंद्र मोदी का ही हाथ था।

बहरहाल, संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाए जाने की शर्त पर कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होकर नरेंद्र मोदी ने पार्टी में अपनी ताकत का एहसास तो करा ही दिया है, साथ ही साथ उन्होंने यह भी साबित कर दिया कि उन्हें भले ही भाजपा की ज़रूरत हो या न हो परंतु भाजपा को नरेंद्र मोदी की बहरहाल ज़रूरत है। इस बात की भी संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं कि 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव भाजपा संभवत: नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे रखकर लड़ेगी। ज़ाहिर है यह खबर भाजपा में मोदित्ववादियों के लिए एक अच्छी खबर तो हो सकती है परंतु पार्टी में अपने उज्जवल राजनैतिक भविष्य की बाट जोह रहे सुषमा स्वराज व अरुण जेटली के लिए कतई अच्छी खबर नहीं कही जा सकती। कार्यकारिणी की इस बैठक में पार्टी द्वारा जो तीन प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं- एक तो यह कि भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने वाले घटक दलों का चुनाव पूर्व और अधिक विस्तार करने का प्रयास करेगी। दूसरा यह कि पार्टी देश के मतदाताओं के मध्य अपना जनाधार 2014 से पूर्व इतना अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करेगी ताकि उसके मतदाताओं की सं या में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सके। और तीसरा यह कि अपने दूसरे लक्ष्य अर्थात् अपने मतदाताओं में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने हेतु पार्टी अल्पसंख्‍यकों, दलितों व गरीबों के मध्य अपनी सक्रियता बढ़ाने की कोशिश करेगी।

उपरोक्त तीनों प्रमुख लक्ष्यों में एक ही लक्ष्य सर्वप्रमुख दिखाई दे रहा है, और वह है अल्पसंख्‍यक मतों को अपनी ओर आकर्षित करना। गोया पार्टी देश के लगभग 12 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं की अनदेखी कर सत्ता में आने पर संदेह कर रही है। दूसरी ओर पार्टी नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव तथा गुजरात में उनकी अपने विशेष शौली के चलते उन्हें मिलने वाली लोकप्रियता को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहती। ऐसे में सवाल यह है कि 2002 के गोधरा कांड व उसके बाद मोदी सरकार द्वार संरक्षण प्राप्त अल्पसंख्‍यक विरोधी दंगों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम हो चुके नरेंद्र मोदी को पार्टी का अगुवाकार बनाकर 2014 के चुनावों में भाजपा क्या कुछ अर्जित कर सकेगी? मोदी को आगे रखकर क्या पार्टी का अपने मतदाताओं में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी का सपना साकार हो सकेगा। ज़ाहिर है भाजपा में अब तक मात्र अटल बिहारी वाजपेयी का ही एक ऐसा व्यक्तित्व था जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल घटक दलों ने अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया था। और आज वाजपेयी के उसी गठबंधन काल को लेकर भाजपा बराबर गठबंधन सरकार के सफल संचालन को लेकर अपनी पीठ थपथपाती रहती है। इसके अतिरिक्त लाल कृष्ण अडवाणी के नाम पर भी राजग घटक दल कभी एकमत नहीं नज़र आए। ऐसे में भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रथम नेता के रूप में यदि 2014 में प्रस्तुत किया जाता है, तब राजग घटक दल नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर सकेंगे ऐसा हरगिज़ दिखाई नहीं देता।

बहरहाल राजग घटक दलों के विस्तार का निर्णय और वह भी नरेंद्र मोदी के पार्टी में बढ़ते कद के साथ निश्चित रूप से एक विरोधाभासी पैदा करने वाली बात मालूम होती है। सर्वप्रथम तो यही देखना होगा कि स्वयं भाजपा में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता किस हद तक है और पार्टी के अन्य शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के अक्खड़पन, उनकी बदमिज़ाजी व उनकी राजनैतिक शैली को सहन कर पाएंगे अथवा नहीं। हां, संजय जोशी की कुर्बानी से एक बात तो ज़रूर साफ नज़र आने लगी है कि हिंदुत्व की राह पर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी अब हिंदुत्व के साथ-साथ मोदित्व की भी शायद अनदेखी नहीं कर पा रही है। परंतु मोदी का पार्टी में बढ़ता कद व मुंबई कार्यकारिणी में दिखाई दिया उनका दबदबा और साथ-साथ पार्टी द्वारा अल्पसं यक मतों को अपनी ओर आकर्षित करने की योजना दोनों ही दो अलग-अलग ध्रुव प्रतीत होते हैं। मुंबई कार्यकारिणी बैठक में इस प्रकार के फैसले यह भी साबित करते हैं कि भाजपा अभी स्वयं संशय की मुद्रा में है तथा भ्रमित नज़र आ रही है।

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