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रविवार, 30 सितंबर, 2007

राजेंद्र त्यागी का व्यंग्य : अर्थ मार्ग धर्म मार्ग

राजेन्द्र त्यागी पेशे से क़लम के सिपाही हैं। नुक्ताचीनी में माहिर हैं, सो व्यंग्य लिखने की मौलिक प्रतिभा उनमें होनी ही थी। नए प्रतीकों और रुपकों के ज़रिए अपनी बात कहने का उनका अलग अंदाज़ है। त्यागी जी के तीन व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। "मस्ती की बस्ती" पर इस बार पढ़िए उनका व्यंग्य - "अर्थ-मार्ग धर्म-मार्ग"।

उसने कहाँ-कहाँ धक्के नहीं खाए। कौन-कौन से ब्राण्ड के पापड़ नहीं बेले, मगर अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग प्राप्त करने में वह असफल ही रहा। दरअसल वह कोई सस्ता, सुंदर और टिकाऊ रास्ता चाहता था। ऐसा रास्ता जिसमें अर्थ तो बरसे मगर छप्पर सुरक्षित रहे। काजल की कोठरी से काजल तो समेटे, मगर कुर्ता चमकता रहे। इसके लिए उसने सत्यनारायण की कथा भी नियमित रूप से कराई। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से उल्लुओं को भी खूब चबेना चबाया। अर्थ प्राप्ति हुई भी हुई, मगर दाग़ ने पीछा नहीं छोड़ा।

अर्थ प्राप्ति के सुगम व सुरक्षित रास्ते के रूप में उसने पत्रकारिता के पेशे में भाग्य आज़माया। नेताओं की परिक्रमा की, उनके लिए दलाली की। अर्थ भी खूब बटोरा, मगर संतोष की प्राप्ति नहीं हुई। एक अज्ञात भय से भयभीत रहा। दलाली करते-करते पत्रकारिता का त्याग कर समाज सेवकी का पेशा अख़्तियार किया। वहाँ भी सेवा की मेवा खूब बटोरी, मगर अज्ञात भय ने वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। समाज सेवकी से उसने राजनीति के बाज़ार में प्रवेश किया और नेता बन बैठा। अर्थ की धारा उसकी तरफ़ और भी तीव्र गति से प्रवाहित होने लगी। मगर कभी पक्ष तो कभी विपक्ष और कभी स्टिंग ऑपरेशन तो, कभी सीबीआई उसे पीछा करते दिखलाई देते रहे।

दाग़ से कैसे पीछा छुड़ाए, यह प्रश्न बराबर उसे विचलित करता रहा। एक के बाद एक असफलता से हताश कभी-कभी वह सोचता, 'पता नहीं अंधे के हाथ बटेर कैसे लग जाती है? लगती भी है या बिना लगे ही मार्केटिंग कर दी जाती है। मार्केटिंग का फ़ण्डा है ही कुछ ऐसा अपने-अपने अंधों के हाथ बटेर थमा कर उपलब्धि रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी जाती हैं।'

हैरान-परेशान, परेशान मुन्नालाल ने एक दिन एक ही झटके में कुर्ता-पयजामा उतार खूंटी पर टांग दिया और राजनीति के बाज़ार से अपना कारोबार समेट सुरक्षित किसी नए व्यवसाय की तलाश में लेफ़्ट-राइट शुरू कर दी। दोस्तों के सामने अपनी पीड़ा रखी, जन-परिवारजनों के साथ सलाह-मश्विरा किया और अंतत: स्वामी अभेदानंद की शरण में जाने का निश्चय किया। अध्यात्म में उसकी रुचि बालकाल से ही थी, इसलिए उसने सोचा अर्थ प्राप्ति का न सही धर्म मार्ग ही सही। उसका ऐसा फ़ैसला करना स्वाभाविक भी था, क्योंकि एक सीमा तक चूहों का भक्षण करने के बाद परलोक सुधारने के मंशा से बिल्लियां अक्सर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़ती हैं।

स्वामी अभेदानंद के समक्ष वह चरणागत हुआ और उद्देश्य निवेदन किया। राजनीति को धर्ममय बनाए रखने के लिए धर्मगुरु व राजनीतिज्ञों के बीच सांठगांठ आवश्यक है। इसी धर्म का निर्वाह करते हुए स्वामीजी ने मुन्नालाल को शिष्य के रूप में ग्रहण कर अपने पवित्र आशीर्वाद से धन्य किया। मुन्नालाल भी पूर्ण समर्पण भाव से उनकी सेवा में लग गया। उसकी सेवा से प्रसन्न हो कर एक दिन स्वामीजी बोले, 'पुत्र मुन्नालाल! तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी शंकाएँ ऐसे छद्म ज्ञानियों के समान हैं, जो ज्ञान विहीन होते हुए भी ज्ञानी कहलाए जाते हैं। परंतु तुम्हारे अंतर्मन में धर्म व अर्थ दोनों के बीज सुषुप्त अवस्था में विद्यमान हैं और मैं तुम्हारे बुद्धि-चातुर्य और सेवा दोनों से प्रसन्न हूँ अत: तुम्हें अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग बतलाता हूँ। पुत्र! अर्थ प्राप्ति का केवल मात्र एक ही सुगम व सुरक्षित मार्ग है और वह है, धर्म-मार्ग। धर्म-मार्ग ही बिना किसी अवरोध के सीधा कुबेर के आश्रम की ओर जाता है।'

स्वामीजी के ऐसे वचन सुन मुन्नालाल हैरान था, उसे लगा कि वह आसमान से गिरकर खजूर पर लटक गया है और स्वामीजी उसे खजूर के पत्ते पर ही दंड-बैठक करने की सलाह दे रहें हैं। वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, 'स्वामीजी, धर्म-मार्ग और अर्थ! धर्म मार्ग तो मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाता है। अर्थ तो धर्म-मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है। पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत भी कुछ ऐसा ही कहता है।'

मुन्नालाल के वचन सुन स्वामीजी मुस्करा दिए और बोले, 'वत्स! अभी तक तुम किसी योग्य गुरु के पल्ले नहीं पड़े हो, तभी ऐसे तुच्छ विचार रखते हो। मोक्ष की ओर नहीं पुत्र! धर्म-मार्ग अर्थ की ही ओर जाता है। पुरुषार्थ चतुष्टय का सिद्धांत भी यही प्रतिपादित करता है। अपने मस्तिष्क के सॉफ़्टवेयर को तनिक एक्टिवेट करो और सोचो पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में धर्म के बाद क्या अर्थ नहीं आता? अरे, मूर्ख मोक्ष तो उपरांत में आता है। पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत भी यही कहता है, धर्म मार्ग अपना कर अर्थ प्राप्त करो और अर्थ तुम्हें काम व मोक्ष प्रदान करेगा।'

मुन्नालाल बोला, 'मगर गुरुजी! धर्म मार्ग अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग कैसे है?'
स्वामीजी बोले, 'आभामंडल! पुत्र आभामंडल, इसी आभामंडल के कारण कुबेर हमारे यहाँ पानी भरता है और उसी के प्रभाव से समूचा जनतंत्र हमारे समक्ष नतमस्तक है। बड़े-बड़े पूर्व, भूतपूर्व व अभूतपूर्व मंत्रियों से लेकर संतरी तक हमारे समक्ष चरणागत हैं। फिर असुरक्षा का प्रश्न कहाँ? आभामंडल लक्ष्मण रेखा है, कोई भी दाग़ उसे लांघ नहीं पाएगा। न आयकर, न सेवाकर, न व्यवसाय कर। बस धर्ममार्ग पर चल और दोनों कर से अर्थ एकत्रित कर। जाओ पुत्र धर्म मार्ग का अनुसरण करो, उसे ही अपना व्यवसाय बनाओ और इस व्यवसाय में 'कॉर्परेट कल्चर' का समावेश करते हुए कुबेर के खज़ाने का निर्भय पूर्वक उपभोग करो।'

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बुधवार, 18 जुलाई, 2007

आलोक पुराणिक का प्रपंचतंत्र : सत्यसेल्स और सेल्ससत्य की कहानी

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं। इस बार पढ़िए आलोक पुराणिक की प्रपञ्चतन्त्र शृंखला का एक और व्यंग्य - “सत्यसेल्स और सेल्ससत्य की कहानी”।


स्मार्ट डिपार्टमेंटल स्टोर में दो सेल्समैन काम किया करते थे। एक का नाम था सत्यसेल्स और दूसरे का नाम था सेल्ससत्य। सत्यसेल्स नामक सेल्समैन का मानना था कि सेल्स का आधार सत्य होना चाहिए और कस्टमर से हमेशा सत्य ही बोलना चाहिए। उसका मानना था कि सत्य के आधार पर की गयी सेल से कस्टमर परमानेंट बनते हैं। इसलिए हमेशा कस्टमर के हितों की ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए। इसलिए वह हमेशा कहा करता था कि सत्य ही सेल्स का आधार है।

उधर सेल्ससत्य नामक सेल्समैन का मानना था कि सेल्स ही परम सत्य है, क्योंकि सेल से ही सारे खेल होते हैं। मुनाफ़ा सेल से ही आता है। इसलिए जैसे भी हो, सेल करनी चाहिए। सेल्ससत्य का मानना था कि कोई क़ारोबारी दुकान अपने मुनाफ़े के लिए खोलता है, ना कि कस्टमर के मुनाफ़े के लिए।

सेल्ससत्य का मानना था कि आख़िर दुकान का उद्देश्य कमाई करना होता है। और रही बात कस्टमर सेटिस्फ़ेक्शन की, तो उसका मानना था भारतवर्ष की जनसंख्या बहुत ज़्यादा है। सबको बारी-बारी से बेवकूफ़ बनाया जाये, तो भी आसानी से पूरी ज़िंदगी मुनाफ़े कमाये जा सकते हैं।


पेपर सोप से वीसीडी प्लेयर

एक बार दो कस्टमर स्मार्ट स्टोर में आये। एक सत्यसेल्स के काउंटर पर गया और उसने पेपर सोप मांगा, सत्यसेल्स ने पेपर सोप दे दिया और वह कस्टमर वापस चला गया।

दूसरा कस्टमर सेल्ससत्य के काउण्टर पर गया और उसने पेपर सोप मांगा। सेल्ससत्य ने कहा – “हेलो, आप कैसे हैं? ओह पेपर सोप चाहिए, लगता है कि आप कहीं यात्रा पर जा रहे हैं।”
कस्टमर ने कहा – “मैं नहीं मैं नहीं, मेरी बीबी मुंबई जा रही है मायके गरमी की छुट्टियों में।”
सेल्ससत्य बोला – “ओह, फिर तो आपको अकेला रहना पड़ेगा। एक महीने का टाइम कैसे काटेंगे। इधर टीवी चैनलों के प्रोग्राम तो बहुत बेकार के आते हैं। आप कहें, तो एक ऑप्शन बताऊँ?”
कस्टमर बोला - “क्या?”
सेल्ससत्य बोला - “देखिये, स्मार्ट कंपनी ने नया वीसीडी प्लेयर लॉञ्च किया है। इसे ले लीजिये। इसके साथ आपको बीस सीडी मुफ़्त में दी जायेंगी। आपका टाइम आराम से कट जायेगा।
कस्टमर बोला - “पर मैं तो इसके लिए पैसे नहीं लाया।”
सेल्ससत्य ने कहा - “कोई बात नहीं। यहाँ पर फाँसू बैंक का बंदा बैठा है, यह अभी आपको लोन दे देगा। बाक़ी की फ़ॉर्मेलिटी ये आपके घर में जाकर करवा लेगा। डोंट वरी।”

सो साहब, जो कस्टमर सिर्फ़ पेपर सोप ख़रीदने निकला था, वह एक वीसीडी प्लेयर और बीस सीडी लेकर निकला। उधर फाँसू बैंक के सेल्समैन ने भी क़रीब पाँच सौ रुपये का कमीशन सेल्ससत्य को दिया।

स्मार्ट स्टोर का मालिक इस पूरे कारनामे को देख रहा था, वह सेल्ससत्य के पास आकर बोला - “ग्रेट! ऐसा सेल्समैन नहीं देखा जो पेपर सोप ख़रीदने वाले को वीसीडी प्लेयर भी चेंप दे।”
इस पर सत्यसेल्स ने कहा - “वैसे यह तो अनुचित है। हमें कस्टमर को वही माल बेचना चाहिए, जो उसे चाहिए होता है। इस तरह से लोन दिलवाकर माल बेचना तो ठीक नहीं है। ऐसा सुनकर स्मार्ट स्टोर के मालिक ने सत्यसेल्स को डाँटा - “अबे तू मेरा इंप्लाई है या उस कस्टमर का इंपलाई! जा फूट, मैंने तुझे नौकरी से निकाल दिया और सेल्ससत्य का प्रमोशन करके मैं इसे चीफ़ सेल्समैन बनाता हूँ।

शाम को रोते हुए सत्यसेल्स से चीफ़ सेल्स ऑफ़ीसर सेल्ससत्य बोला - “हे मूरख! बेच, सिर्फ़ बेच। ऐसे भी बेच, वैसे भी बेच, कैसे भी बेच। ईमान, सत्य की बातें तब करना ठीक है, जब इनकी क़ीमत ठीक मिलती हो। बेटा आजकल सत्य–ईमान की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले बाबा लोग भी मौक़ा-मुकाम देखकर अपने चेलों को कैसेट, चूरन-चटनी, शैंपू, दवाईयाँ बेच रहे हैं। बंदा मोक्ष पाने के लिए बाबा के पास आता है, और कैसेट और हर्बल शैंपू लेकर वापस जाता है। इसलिए बेच, कस्टमर की चिंता मत कर।

सत्यसेल्स उसके वचन सुनकर बोला - “अगली नौकरी मैं तेरे ही वचनों का पालन करुंगा।”


एक रुपये का मोबाइल, सौ रुपये की मोटरसाइकिल

सत्यसेल्स को नौकरी से निकाले जाने के बाद उसके बेटे - फ़ेयरप्राइज़ को कृपा-अनुकंपा के आधार पर नौकरी दी गयी। पर फ़ेयरप्राइज़ भी बाप की तरह से सच बोलने के दुर्गुणों से पीड़ित था। एक बार दो कस्टमर स्टोर में घुसे। एक कस्टमर फ़ेयरप्राइज़ की तरफ़ जाकर बोला - “उस वाले मोबाइल की क्या क़ीमत है?”
“दस हजार रुपये, टैक्स अलग – फ़ेयरप्राइज़ ने बताया।”
“उस वाली मोटरसाइकिल की क्या क़ीमत है” - कस्टमर ने पूछा।
“पचपन हज़ार टैक्स एक्स्ट्रा” - फ़ेयरप्राइज़ ने बताया। फ़ेयरप्राइज़ का कस्टमर वापस भाग गया।

दूसरा कस्टमर सेल्ससत्य के पास गया। उसे मोबाइल की क़ीमत बतायी गयी - एक रुपया और मोटरसाइकिल की क़ीमत बतायी गयी सौ रुपये। कस्टमर ने रुचि दिखायी। जब वह सहमत-सा हुआ, तो सेल्ससत्य ने कहा - “पैसे की चिंता बिलकुल मत कीजिये, हम लोन दिलवा देंगे। कस्टमर ने कहा – ओके।”

कस्टमर ने लोन के पेपर पर मज़े-मज़े में बिना देखे साइन कर दिये। यह सोचकर कि एक रुपया का और सौ रुपये का लोन तो चाहे जब चुका दूंगा। पर जब उसे फाँसू बैंक के सेल्समैन ने बताया - “जी आपकी महीने की किश्त चार हज़ार रुपये बनी है, जो आपको पच्चीस महीने तक देनी होगी। आप सारे दस्तावेज़ों पर साइन कर चुके हैं। इसमें यह शर्त आपने मंज़ूर की है कि अगर आप लोन लेने से इन्कार करते हैं, तो भी आपको एक लाख रुपये प्रोसेसिंग फ़ीस और डिफ़ॉल्ट चार्ज के बतौर हमें देने होंगे।”

कस्टमर फंस चुका था, वो बोला - “पर आपने तो बताया था कि एक रुपये का मोबाइल और दस रुपये की मोटरसाइकिल।”
सेल्ससत्य इस पर बोला - “महाराज, मोबाइल की क़ीमत तो एक ही रुपया है। पर 9,999 रुपये उसकी एक्सेसरीज़ के हैं। हम मोबाइल की डोरी को छोड़कर हर आइटम को एक्सेसरीज़ मानते हैं। पहले आपको सिर्फ डोरी के पैसे बताये गये थे। ऐसी ही मोटरसाइकिल तो सिर्फ़ दस रुपये की है। पर बाक़ी की रकम हम आफ़्टर सेल्स सर्विस के लिए लेते हैं।”

एक लाख रुपये डिफ़ॉल्ट फ़ीस चुकाने के बजाय कस्टमर ने बेहतर समझा कि एक रुपये का मोबाइल और दस रुपये की मोटरसाइकिल ले ली जाये। यह पूरा कांड देखकर फ़ेयरप्राइज़ समझ गया और सेल्ससत्य से बोला - “सर अब से मैं भी कार सौ रुपये की बेचा करुंगा।”

इन कहानियों से हमें निम्न शिक्षाएँ मिलती हैं -

1. बेचो, बेचो। हर सेल्समैन को तमाम बाबाओं को फ़ॉलो करना चाहिए। जो हर तरह का आइटम बेचने पर उतारु हैं। जिनके पास बंदे मोक्ष लेने जाते हैं और हर्बल शैंपू लेकर लौटते हैं।
2. समझदार सेल्समैन हेलीकॉप्टर भी सौ रुपये में बेचता है।

सावधान - आलोक पुराणिक! प्रपंचतंत्र को प्रकाशित करने का अधिकार सिर्फ़ “मस्ती की बस्ती” को है। किसी और ब्लॉग, यहाँ तक कि अपने ब्लॉग पर भी प्रकाशित किया तो कार्रवाई हो सकती है।

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बुधवार, 11 जुलाई, 2007

मुरली मनोहर श्रीवास्तव का व्यंग्य : गुरु शिष्य दोऊ खड़े काके लागू पाय

मूलतः इलाहाबाद के रहने वाले श्री मुरली मनोहर श्रीवास्तव पेशे से इंजीनियर हैं। व्यंग्य विधा पर उनकी अच्छी पकड़ है और नियमित तौर पर कई अख़बारों में लिखते रहते हैं। श्रीवास्तवजी का एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। पेश है “मस्ती की बस्ती” के पाठकों के लिए उनका मज़ेदार व्यंग्य।

यह गद्य अंश उस शोध विद्यार्थी की थीसिस का हिस्सा है, जिसने अभी-अभी आधुनिक शिक्षा मे कबीर की प्रासंगिकता विषय पर डॉक्टरेट प्राप्त की है। वह लिखता है कि कबीर को आज मात्र गुरु और गोविन्द के सन्दर्भ तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। वस्तुत: आज गुरु और गोविन्द की तुलना का कोई अर्थ नहीं रहा, क्योंकि गोविन्द को लोग मात्र एक चमत्कार करने वाले के रूप मे देख उसका मज़ाक उड़ाने लगे हैं। बच्चे भी कहते हैं कि गणेश जी के लिये शीतल पेय ट्राई करें क्या? गर्मी बहुत पड़ रही है, मिल्क का मूड न हो क्या पता? या फिर यदि समुद्र का पानी मीठा हो सकता है, तो मेरे पूजा करने से मेरा होमवर्क भी पूरा हो जायेगा।

ऐसे में गुरु के महत्व की तुलना करने के लिये शिष्य की आवश्यकता है। जैसा की सर्वविदित है, गुरु गुड़ ही रहता है और चेला शक्कर हो जाता है। फिर भी कबीर दास की प्रासंगिकता इसी में है कि वे कहते हैं - भले ही चेला शक्कर हो जाये , गुरु का महत्व कम नहीं होता। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिष्य की मांग आज के समाज में गुरु से अधिक है और शिष्य गुरु से महान भी है, परन्तु गुरु के बड़प्पन को नकारा नहीं जा सकता।

जिन्हें शिष्य के महान होने के विषय मे शंका हो, उनके लिये मैं आगे लिखता हूँ कि जिस गुरुकुल मे होनहार शिष्य जाते हैं, पैसे वाले शिष्य जिस गुरु से कोचिङ्ग लेते हैं, वह गुरु अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। कहने को तो शिक्षा का दान दिया जाता है, परन्तु आज के समाज मे दान का महत्व नहीं रह गया है। लोग दान को भिक्षा की तरह समझने लगे हैं। जिसका नतीजा है कि जिन स्कूलों और विद्यालयों में अनुदान के माध्यम से नाम मात्र को फ़ीस लेकर शिक्षा प्रदान की जाती है, वहाँ के विद्यार्थी नेता बनने के अतिरिक्त अपना कोई भविष्य नही देखते और ऐसे में जब कोई गुरु शिष्य के भविष्य से खिलवाड़ करता है, तो शिष्य यह ज़रूर बता देता है कि महान और महत्वपूर्ण वही है गुरु नहीं।

वैसे गुरु को आज के ज़माने में भी कम समझना कभी-कभी भारी पड़ सकता है। जैसा कि अनेक विश्वविद्यालयों में सामने आया है कि ऐसे गुरु शिष्य के सामने अपना महत्व बनाये रखने कि लिये घर-परिवार को तिलांजलि दे कर अपनी शिष्याओं से प्रेमालाप करते हैं और एक तीर से दो शिकार करते हैं। वैसे अनचाहे ही शिकार तो कई हो जाते हैं, जैसे कि गुरु का उद्देश्य मात्र यह दिखाना होता है - हे शिष्य, मैं किसी भी मामले मे तुमसे कम नहीं हूँ और जिस शिष्या के तुम सपने देखते हो वह मेरे प्रेम में पागल है। इसके दो शिकार यह हुये कि शिष्य गुरु को उस सीमित समय के लिये अपने से बड़ा स्वीकार कर लेता है और गुरु को इस प्रसंग से प्रेम की नयी परिभाषा गढ़ने का आधार मिल जाता है।

तब उसकी किसी ज़माने मे लिखी और खुद के पैसे से छपवायी हुई पुस्तक की मांग बढ़ जाती है। साथ ही लोग उसे साहित्यकार भी स्वीकार करने लगते हैं। उसके लिखे शोध पत्र अनेक सेमीनारों मे पढ़े जाने लगते हैं और अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ाने के लिये इस बखेड़े को मीडिया नये रूप से पेश करता है जैसे - शिक्षक, शिष्या और पत्नी। तब दर्शक यह देखकर रोमांचित हो उठते हैं कि किस तरह एक भारतीय नारी अपने पति के अलौकिक प्रेम में रोड़ा बनते हुये अपनी सौत के बाल खींच-खींच कर पीट रही है।

इस घटना से बहुत से शिष्य इस कलियुग में महान होकर भी गुरु की शरण में आते हैं और कहते हैं - गुरुदेव, मैं आपके अनुभवों के सामने बच्चा हूँ। मेरे लिये अभी यह दो नावों की सवारी का अनुभव अपरिचित है। अरे! दो क्या हम तो एक नाव पर भी सवारी नहीं कर पाये और आपको देख कर लग रहा है कि हमारा विद्यार्थी जीवन नष्ट हो गया । मार-पीट में अव्वल न होने के कारण न तो हम नेता बन पाये और न ही नेता बनने की चाहत रखने के कारण रोमियो। ऐसे में यदि इस वर्ष हमें कॉलेज छोड़ना पड़ा तो इस स्वर्णिम काल की कौन-सी स्मृति मैं जीवन में सहेज कर रख पाऊंगा। सो हे गुरुदेव! मैं भले ही आज साधन-सम्पन्न हूँ और महत्वपूर्ण भी, किन्तु आपकी महानता के आगे हार मानता हूँ।

इस भक्ति पूर्ण वाक्य को सुन कर गुरु का हृदय पिघले बिना नहीं रह पाता और वह अपने शिष्य को ज्ञान का दान देने को तत्पर हो जाता है।

लेकिन भारत देश मे पुराना नियम है, जब तक समस्या में बाहरी हस्तक्षेप न हो मज़ा नहीं आता। तो यह समस्या (कौन सी सम्स्या?) यही गुरु शिष्य में से कौन महान है इस बात का निर्णय करने की। हाँ, तो यह समस्या अपने असली रूप में तब आती है जब गुरु-शिष्य महानता विवाद मे पुराने विद्यार्थी जो यहाँ से कोचिंग ले कर आज स्थापित नेता हो चुके हैं, कूद पड़ते हैं। वे बताते हैं कि हे गुरुदेव, आज यदि आप क्लास मे पढ़ा पा रहे हैं तो यह मेरी बदौलत, यदि इस विद्यालय से आपके परिवार का पालन-पोषण हो रहा है तो हमारे जैसे ही पूर्व विद्यार्थियों के अनुदान की बदौलत। सो आपसे अनुरोध है कि आप अपनी महानता के झूठे आवरण को चुपचाप ओढ़े रहिये और वे जो नये विद्यार्थी कॉलेज मे चुनाव नुमा खेल खेल रहे हैं, उन्हें खेलने दीजिये।

असली घपला यही होता है, वस्तुत: गुरु अपने आपको हर क्षेत्र मे महान समझता है और वह शिष्य के इस राजनीतिक चैलेंज को समझ नहीं पाता। वह रोमांस की तरह उस राजनीति में भी चुनौती देने का प्रयास करता है और मात खा जाता है।

आगे यह विद्यार्थी लिखता है कि अभी वह यह फ़ैसला नहीं कर पाया है कि गुरु और शिष्य साथ-साथ खड़े हों तो वह किसके पांव पहले छूये और यही इस शोध-ग्रन्थ की सफलता का राज़ भी है। क्योंकि उसे लग रहा है कि इस शोध के बाद वह महान साहित्यकार की श्रेणी मे आ जायेगा और पूरे राष्ट्र में इस विषय पर नयी बहस छिड़ जायेगी, जिसके केन्द्र में वही रहने वाला है। आप तो जानते ही हैं आजकल किसी भी क्षेत्र मे विवादित बने रहना कुछ पूरा कर दिखाने से ज़्यादा फ़ायदेमन्द है। सो जब तक यह गुरु-शिष्य विवाद चलेगा, मेरा अस्तित्व बना रहेगा। मैं इस शोध विद्यार्थी को एक सफल शोधकर्ता की उपाधि देना चाहता हूँ, आगे जैसा आप चाहें।

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मंगलवार, 3 जुलाई, 2007

अरुण अरोड़ा के व्यंग्यात्मक दोहे

फ़रीदाबाद के कवि अरुण अरोड़ा एक बार फिर हाज़िर हैं "मस्ती की बस्ती" में। इस बार वे सुना रहे हैं गुरू पर दोहे, लेकिन ज़रा नए अन्दाज़ में। आप भी इन दोहों का मज़ा लीजिए:

१.
गुरु गोविंद दोनो खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने कुर्सी दई दिवाय॥

भावार्थ:- असमंजस मे पडा चेले के सामने सतगुरु और भगवान दोनो खडे है, चेला दुविधा में है कि मै पहले किसके पाँव पड़ूँ।
हे गुरु! मै आप पर बलिहारी जाता हूँ, आपने मुझे कुर्सी दिलादी।
अर्थात् जो काम आये वही बडा है

२. बलिहारी गुरु आपने दिखा दियो जो बार।
दो पगन के लगत ही दिखन लगत है चार॥

भावार्थ:- कलियुगी सतगुरु आपने चेले को बार दिखा कर जीवन सफल कर दिया है, जहाँ दो पैग लगाते ही चार दिखाई देने लगते है।
अर्थात् सच्चा गुरु वही है जो मस्त रहना सिखाए।

३. संसद मंज़िल गुंडई नाव है बाक़ी सब बेकार।
जिस दिन तुम पा जाओगे, सारे दुखडे पार॥

भावार्थ:- प्रिय चेले, नाव रूपी तेरी गुंडागिरी ही तुझे संसद रूपी मंज़िल तक ले जायेगी। बाक़ी सब कुछ मिथ्या है। जिस दिन तुम अपनी मंज़िल पर पहुँच जाओगे, सारे दुःख और पाप समाप्त हो जायेंगे।
अर्थात् मंज़िल तक पहुँचना ही मुख्य उद्देश्य होना चाहिये, चाहे मार्ग कैसा भी हो।

४. गुरु सारे माल समेटिये, चेले को बस नाम।
मन राखि संतोषिये, घूम फिरत सब गाम॥

भावार्थ:- कलयुगी सतगुरु ने मुझे अपना नाम देकर सारा माल समेट लिया है। अब मैं मन में संतोष लिये गाँव-गाँव भटकता फिर रहा हूँ।
अर्थात् गुरु माल समेटे उस से पहले आप गुरु का माल समेट कर कल्टी हो लो, यही सत्य है।

५. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
जब तक माल बटोरो, कियो प्रेम व्यवहार॥
माया सारी निखस गई, दियो सरक पे डार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावण हार॥

भावार्थ:- अन्त नहीं है कलयुग के सतगुरु की महिमा का, अन्त नहीं है उनके द्वारा किये गये उपकारों का। जब तक खीसे मे माल था, गुरुदेव ने अत्यंत प्रेम पूर्वक व्यवहार किया, पर जब मैं माया से मुक्त हो गया, मुझे सड़क पर डाल दिया।
गुरु के इस कार्य ने मेरे लोचन अर्थात् नेत्र खोल दिये, जिससे मैं अब निरंतर अनंत देख पा रहा हूँ।
अर्थात् मुझ निपट अज्ञानी को गुरु ने ज्ञान देकर गुरु बनाने की बहुत कोशिश की पर मेरी अज्ञानता को अब गुरु ने दूर कर दिया है।

६. अच्छा सतगुरु मिल गया अच्छी मिल गई सीख।
गुरु तो खावै माल पुये, मैं घर-घर मांगू भीख॥

भावार्थ:- मुझे अच्छा सतगुरु मिल गया, अच्छी सीख भी मिल गई। अब मैं चिंताओ से मुक्त होकर घर-घर भीख मांगता हूँ और सतगुरु माल पुये खाते हैं।
अर्थात् चेले से गुरु बनना ज़्यादा सुखदाई है।

७. जा तन विष की बेलरी, नोट है सुख की खान।
सिर फोड़े जो नोट मिले तो भी ससता जान॥

भावार्थ:- यह तन नश्वर है, संसार असार है, बस नोट ही सुख देने वाले हैं – इस मिथ्या जगत में, अगर किसी का सिर फोड़कर भी नोटों की प्राप्ति होती है तो वह सस्ती है। क्योंकि नोट होने से तू हर पाप से मुक्ती का मार्ग निकाल सकता है।
अर्थात् इस मिथ्या संसार मे नोट से बढ़कर कुछ नहीं।

८. अब तो तू अधिकारी है लूट सके जो लूट।
रिटायर्मेंट के बाद में नसीब ना होगी फूट॥

भावार्थ:- अभी तू सरकारी अधिकारी है, जो माल बना सकता हो बना। रिटायर होने के बाद तुझे फूट (खरीफ़ की फ़सल में मक्का के साथ मे होने वाला एक छोटा-सा फल) भी खाने को नहीं मिलेगी।
अर्थात् आज और अभी माल बना, कल की योजना मत सोच।

९. कबिरा बास रिझाइ ले मुख अमृत गुण गाय।
मार्च माह है सर पर, कहीं प्रमोशन ना रह जाय॥

भावार्थ:- कबीर दास कहते हैं मुख मे अमृत जैसी मीठी वाणी लेकर बॉस के गुण गाने का समय है। मार्च का महीना चल रहा है, कहीं प्रमोशन ना रह जाय।
अर्थात् काम चाहे मत करो, पर बॉस को मक्खन लगाना मत भूलो

१०. कबिरा नोट ख़र्च करो, गिफ़्ट लो एक मंगाय।
वापे बोस को नाय लिखो, उसे घर पे दे के आय॥

भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कुछ पैसा ख़र्च कर एक अच्छा सा गिफ़्ट मंगा कर बास के घर जाकर खुद देकर आओ।
अर्थात् बॉस को ख़ुश करने का कोई मौक़ा मार्च माह में हाथ से नहीं जाने देना चाहिये।

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रविवार, 1 जुलाई, 2007

प्रियरंजन झा का व्यंग्य : भगवान के बूते से बाहर

बिहारी बाबू के रुप में प्रियरंजन व्यंग्यकार के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। उनके व्यंग्य का अभी तक अलग अंदाज़ रहा है - लेकिन इस बार आप प्रियरंजन का दूसरा अंदाज देखेंगे। " मस्ती की बस्ती" के लिखे गए इस व्यंग्य में प्रियरंजन बता रहे हैं क्या है भगवान के बूते से भी बाहर।

मैंने ख़बर पढ़ी कि हूजी के आतंकी साधु के भेष में देश में गड़बड़ी फैलाने आए हैं। ऐसे में आजकल हमारी हालत ख़राब रहती है। साधु के भेष में अब मुझे सब असाधु ही नज़र आते हैं। एक साधु जैसे दिखने वाले आदमी से मैंने पूछा, 'आप साधु के भेष में हूजीके आतंकी तो नहीं?' उसने कहा, 'लगता है बच्चा, तुम मृग मरीचिका के शिकार हो, इसलिए साधुको असाधु समझ रहे हो। वैसे, ग़लती तुम्हारी भी नहीं है। इस देश की हवा में ही भांग घुली हुई है, इसलिए सब कुछ उल्टा हो रहा है। लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि तुम परेशान क्यों हो रहे हो? जा करके जनता से पूछो, सब आनंद से हैं। बस एक तुम्हारे ही पेट में दर्द हो रहा है! हूजी...हूँ...।'

हमने सोचा, चलो जनता के आनंद का पता लगाया जाए। हम यूपी गए। वहाँ एक आदमी से पूछा, 'बहनजी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता रहा है, आप लोगों ने बावजूद इसके उनको मुख्यमंत्री बना दिया?' वह बिगड़ गया। उल्टे मुझसे से पूछने लगा, 'आप ऊँची जाति के हैं क्या? ... तभी यह आरोप लगा रहे हैं। पचास साल तक ऊँची जाति ने देश को खाया, तब तो आप लोगों के पेट में कभी दर्द नहीं हुआ, अब बहनजी की संपत्ति देखकर क्यों हो रहा है?'

उसे उलझते देख मेरे एक दोस्त ने मुझे समझाया, 'कहाँ परेशान हो रहे हो? नेताजी को कोसने की बजाय उनसे सीख लो। शेयर में पैसा इन्वेस्ट करने की बजाय नेतागिरी में इन्वेस्ट करो। जन्म सफल हो जाएगा!'

ख़ैर, अरबपति नेता से प्रभावित हुए बिना हम बहुचर्चित डिफॉल्टर नेता के बारे में जानने के लिए एक दूसरे नेता के पास पहुंचे। मैंने पूछा, 'आप लोगों ने एक डिफॉल्टर को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बना दिया है?' वह कुछ ज़्यादा ही गर्म हो गया, 'डिफॉल्टर तो हर कोई है। जो नेता बन गया, समझो डिफॉल्टर हो गया या फिर यह भी कह सकते हो कि डिफॉल्टर ही इस देश में नेता बन सकता है। अगर इतना क़ानूनची बनोगे, तो विदेश से नेता आयात करना पड़ेगा!'

लेकिन मुझे तो देसी नेता ही चाहिए, इसलिए मैं पहुँचा शिवसेना के ऑफ़िस। मैंने वहाँ बैठे एक कार्यकर्ता से पूछा, 'आप लोग हिंदुत्व की पॉलिटिक्स करते हैं, लेकिन अब मराठी के नाम पर पाटिल का समर्थन...? राजस्थानी हिंदू में क्या खोट है? आख़िर आप लोग कितने छोटे-छोटे टुकड़ों में लोगों को बांटकर राजनीति कर सकते हैं?' जवाब मिला, 'हमारे पार्टी प्रमुख इतने मंझे हुए नेता हैं कि एक आदमी पर भी राजनीति कर सकते हैं, यहाँ तो मामला अरब की जनसंख्या को करोड़ में ही बांटने का है! वैसे, आपको दिक़्क़त क्या है? कोई मराठा राष्ट्रपति बने, ये तो हमारा गौरव होगा।'

हिंदुत्व की बात चलते ही हमको फिर से हूजी याद आ गया। हमने फिर से एक दाढ़ी वाले व्यक्ति से पूछा, 'कहा जा रहा है कि आपके ही स्कूल में आतंकी सब आकर रुकते हैं।' वह कहने लगा, 'तो इसमें गड़बड़ क्या है? आप हिंदू हैं क्या? ...इसीलिए ऐसे कह रहे हैं। इस देश में जितना गड़बड़ होता है, सब के लिए हम ही तो दोषी होते हैं। नक्सली इतना कुछ करते हैं, उस पर तो आप लोग किसीको कुछ नहीं कहते, उनके समर्थक तो आपके देश में सत्ता में साझीदार हैं... उनका वर्ग संघर्ष है, तो हमारी भी धर्म की लड़ाई है। आप ख़ामख़ा परेशान हो रहे हैं। जाइए, आराम से घर में सोइए। चिंता से चतुराई घटती है और चतुराई घट गई, तो चतुर सुजानों के इस देश में आप चिंता करने लायक़ भी नहीं बचेंगे। अरबपति नेता, डिफॉल्टर नेता, साम्प्रदायिक नेता या हूजीको यहाँ आने से रोकना तो ख़ैर भगवान के बूते से भी बाहर की बात है!'

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गुरुवार, 28 जून, 2007

प्रपंचतंत्र : ऐबों के सुपरिणाम की कहानी

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं। इस बार पढ़िए आलोक पुराणिक की प्रपञ्चतन्त्र शृंखला का व्यंग्य - "ऐबों के सुपरिणाम की कहानी"।



जंगलपुरम् नाम शहर में तमाम कंपनियों के हेडक्वार्टर थे। हेडक्वार्टर में होता यह था जो कि भी अपने बास को क्वार्टर पहुंचाया करता था, वह हेड हो जाया करता था। इस तरह से कई बंदे प्रोग्रेस की राह पर आगे बढ़ रहे थे।

एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में शेर सिंह नाम का बास था, उसके दो जूनियर थे। एक का नाम था सियार सिंह और दूसरे का नाम था टाइगरप्रसाद। टाइगरप्रसाद दूर के रिश्ते के हिसाब से शेर सिंह का रिश्तेदार लगता था। टाइगरप्रसाद अपने नाम के अनुरुप गुणों से युक्त था। वह हमेशा सच बोलता था। वह सिगरेट, शऱाब से परहेज करता था। कैबरे-डिस्को से दूर रहता था। और तो और, वह झूठ तक नहीं बोलता था।

सियार सिंह मौके की नजाकत समझता था और तदनुरुप आचरण करता था। दो अक्तूबर यानी गांधी जयंती वाले दिन वह सत्य और नैतिकता पर आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाया करता था। पर इस पुरस्कार से प्राप्त राशि से वह निर्णायकों को क्वार्टर या अद्धा पिलाया करता था। इस तरह से जब सत्य में फायदा होता था, तो वह सत्य–सत्य करने लगता था। जब उसे लगता था कि फायदा अन्य गतिविधियों में है, तो वह अन्य गतिविधियों पर उतर जाता था।

उसका मानना था कि गतिशीलता में ही जीवन है। सवाल सत्संग का नहीं है, सवाल कुसंग का नहीं है। सवाल फायदे के संग का है। सियार सिंह ने तमाम संतों के प्रवचन स्थलों पर कैसेटों-किताबों के स्टाल लगाकर भी कमाया था और दारु की ब्लेक करके भी कमाया था। सियार सिंह कैबरे के ठिकानों को भी जानता था और यह भी जानता था कि शहर के श्रेष्ठ मंदिर कहां पर है। इस तरह से चौतरफा कार्रवाई करके वह प्रसन्न रहा करता था।

टाइगरप्रसाद का मामला एकतरफा था। वह सिर्फ और सिर्फ सत्य नैतिकता की बात करता था और अपने बास शेर सिंह को भी इसी तरह की बातें बताया करता था। शेर सिंह टाइगरप्रसाद से थोड़ा खुटका वैसे भी खाया करते थे क्योंकि वह जानते थे कि रिश्तेदारों से भले की उम्मीद कुछ इस तरह की है, जैसे गंजों के मुहल्ले में कोई कंघे की दुकान से मुनाफा कमाने की उम्मीद करे।

खैर, साहब कंपनी बहुराष्ट्रीय थी। रुस और ब्रिटेन नामक देशों से दो प्रतिनिधिमंडल आये। दोनों के हाथों में करोड़ों के आर्डर थे। शेर सिंह ने एक डेलीगेशन को मैनेज करने का जिम्मा टाइगर प्रसाद को सौंपा और दूसरे को मैनेज करने का जिम्मा सियार सिंह को सौंपा।

रुस वाले प्रतिनिधिमंडल को भारतीयता से परिचित कराने के उद्देश्य से टाइगरप्रसाद ने दिन में उन्हे तमाम मंदिरों का दौरा कराया और शाम को उन्हे वो कीर्तन में ले गया।
अगले दिन रुस वालों को टाइगरप्रसाद एक लोकल बाबा के प्रवचन सुनवाने ले गया। रुस वाले बोर हो गये और तीन दिन में टाइगर प्रसाद की कंपनी से फूट लिये और फिर कभी नहीं पलटे।

उधर सियार सिंह ने किया यह कि दिन में तो उसने ब्रिटेन वालों को मंदिर दिखाये। पर शाम होते होते सियार सिंह ने विदेशी अफसरों से कहा - भारतीय संस्कृति समग्रता की संस्कृति है। इसमें अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की बात हमारी संस्कृति करती है। इसलिए धर्म के बाद काम और अर्थ की बात करनी भी जरुरी है। अंगरेज समझ नहीं पाये। सियार सिंह फिर अंगरेज अफसरों को एक डिस्को में ले गया, जहां बहुत ही शानदार कैबरे नृत्य हो रहे थे। अंगरेज बम बम हो गये। फिर अति ही सुंदर सुरा अंगरेज अफसरों को पेश की गयी। अंगरेज अफसर घबराये, बोले, इट इज रांग।

सियार सिंह बोले - देखिये गलत बात तब होती, जब यह शऱाब होती। ना, यह तो अमृततुल्य प्रसाद है। भारत में कई देवताओं को इसे बतौर प्रसाद चढ़ाया जाता है और हमारे यहां कहा जाता है, अतिथि देवो भव। अर्थात अतिथि देवता होता है। आप हमारे देवता है, आपको अगर हमने यह प्रसाद नहीं चढ़ाया, तो हम पर पाप लगेगा। इस पाप का भागी होने से बेहतर है कि होटल की पांचवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर लूं। मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं क्योंकि मुझे आप मेरे धर्म का पालन नहीं करने दे रहे हैं -ऐसा कहता हुआ सियारसिंह छत की सीढ़ियों की ओर लपका।

अंगरेज अफसरों ने घबराकर उसे रोका और फिर अंगरेज दारु गटक गये। तत्पश्चात सियार सिंह ने कहा अर्थ को हमारे यहां बहुत बड़ा पुरुषार्थ माना गया है, इसलिए आपको पचास हजार रुपये का अर्थ पेशगी मंजूर करना पड़ेगा, बाकी का दस परसेंट हम आपको आर्डर मिलने के बाद दे देंगे। प्लीज अर्थ को स्वीकार कर लीजिये। वरना इसका मतलब होगा कि आप मुझे मेरे धर्म का पालन नहीं करने दे रहे हैं - सियार सिंह ने फिर कहा। इस बार एक अंगरेज अफसर अपराध भावना से भरकर बोला - बट यह तो रिश्वत है।

“नहीं यह रिश्वत नहीं है, यह तो पुरुषार्थ है जो आप कर रहे हैं। अर्थ का पुरुषार्थ। पैसा हाथ का मैल है। समझिये कि हम अपना मैल आपको दे रहे हैं। आप तो हमें कृतार्थ कर रहे है कि हम से मैल स्वीकार कर रहे हैं। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं समझूंगा कि आप हमे अपने धर्म का पालन नहीं करने दे रहे हैं” - सियारसिंह ने कहा। अंगरेज धर्म का पालन करने पर विवश हो गये।

अंगरेज अफसरों ने वापस जाते ही पचास करोड़ के आर्डर दिलवाये। रुसी अफसरों ने वापस जाते ही शेर सिंह को डांटा कि आपने जो आदमी हमें मैनेज करने के लिए रखा था, वह बहुत ही बोरिंग था। सिर्फ सत्य, नैतिकता की बातें करता था।

शेर सिंह ने टाइगरप्रसाद को नौकरी से डिसमिस कर दिया और सियार सिंह का प्रमोशन हो गया। तत्पश्चात इंस्टीट्यूट आफ बिजनेस ग्रोथ में रिश्वत देने के तरीके-विषय भाषण देते हुए सियार सिंह ने कहा -

1- सवाल सत्संग या कुसंग के बीच चुनने का नहीं है। सच यह है कि सत्संग से नोट मिलें, तो सत्संग करना चाहिए और कुसंग से नोट मिलें, तो कुंसंग कर लेना चाहिए। असली सवाल नोटों के संग का है।
2- रिश्वत को रिश्वत की तरह से नहीं देना चाहिए। उसे इस तरह से देना चाहिए मानो आप अपने धर्म का पालन कर रहे हैं और लेने वाला स्वीकार करके अपने धर्म का पालन कर रहा है।
3- तमाम किस्म के ऐबों को फिलोसोफिकल जाम पहना दिया जाये, तो मामला बहुत आसान हो जाता है।
4- बदमाश किस्म के अफसर सिर्फ इंडिया में ही नहीं होते, रुस और ब्रिटेन में भी पाये जाते हैं।

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सोमवार, 25 जून, 2007

विष्णु शर्मा का व्यंग्य : हर सड़क कुछ कहती है

विष्णु शर्मा – पंचतंत्र नहीं, बॉलीवुड तंत्र की उठापटक में लगे रहे हैं। बैग टेलीफ़िल्म्स के कार्यक्रम ‘ख़बरें बॉलीवुड की’ के प्रोड्यूसर हैं। हाल तक, स्टार न्यूज़ के पोल-खोल कार्यक्रम में भी अदृश्य तौर पर योगदान देते रहते थे। लेख कई लिखे, पर व्यंग्य इक्का-दुक्का ही लिखे हैं। “मस्ती की बस्ती” के लिए फिर व्यंग्य के मैदान में।

बुझे-बुझे से रहते हो कहो ध्यान किसका है,
पुरानी सड़क पर ये नया मकान किसका है?

आपको भी यह शेर अनचाहे ही हज़ारों बार झेलना पड़ा होगा। लेकिन मेरा सॉलिड दावा है कि मेरी तरह किसी ने इतना निठल्ला-चिंतन नहीं किया होगा। बहुतों से सुना था कि दिल में भी सड़क होती है। लेकिन इस शेर में किस सड़क और किस मकान की बात हो रही है, खुद शायर को भी नहीं पता होगा। बिलकुल वैसे जैसे आपको नहीं पता कि सड़क के कितने टाइप होते हैं। अब आप किसी ग्राम प्रधान की तरह इसे खडंजा और पडजा में डिवाइड मत कीजिएगा और न ही किसी ठेकेदार की तरह चार लैन और छह लैन में। हम तो सड़क को इमोशनली डिवाइड कर रहे हैं। मसलन कुछ सड़कें पूंजीवादी होती हैं। पूंजीवादी बोले तो उस शहर की सड़कें, जहाँ या तो बहुत-सी आईटी कंपनियाँ होती हैं या फिर जो सड़कें किसी बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी के किसी प्रोजेक्ट को बाक़ी शहर से जोड़ती हैं। ढेर सारी पूंजी जो लगी होती है। पूंजी तरलता यानी चिकनाई लाती है, सो ये सड़कें भी काफ़ी चिकनी बनी होती हैं। यानी टोटली खुरदुराहट फ़्री। ऐसे ही कुछ सड़कें घोर वामपंथी भी होती हैं, हम नहीं सुधरेंगे टाइप। पूंजी पसंद ही नहीं। वैसे कोई देता भी नहीं। किसी ने पैसा लगाकर थोड़ी-बहुत डेंटिंग-पेंटिंग करवा भी दी तो ऐसा लगता है मानो सड़क को ही पसंद नहीं आता, रात को करवटें बदल-बदल कर माक्र्सवादी सिद्धांतों की तरफ़ वापस लौट आती है। शायद चाहती है उस पर चलने वाले जितने ज़्यादा कष्ट भोगेंगे, उतने ही मज़बूत बनेंगे। यहीं पहली बार लगता है कि सर्वहारा के सिद्धांत से डार्विन का भी कुछ लेना देना था शायद।

जबकि कुछ सडकें संघी टाइप की होती हैं। दूर से बहुत लुभावनी होती हैं, एकदम चिकनी चौड़ी, आदर्शवादी – लेकिन स्पीड ब्रेकर इतने ज़बरदस्त होते हैं कि तौबा-तौबा। यूँ तो कॉलेज के लड़कों को स्पीड ब्रेकर ख़ासे पसंद होते हैं, लड़की पीछे बैठी हो तो हर स्पीड ब्रेकर पर झटके लेने का कुछ और ही मज़ा है। लेकिन संघी सड़कों पर स्पीड ब्रेकर इतने ऊँचे होते हैं कि लड़कियों को गाड़ी से उतरकर चलना ही मुफ़ीद लगता है। सो इन जोड़ों को संघी सड़कों से ख़ासी ऐलर्जी होती है। वैसे कुछ सड़कें सेकुलर टाइप की भी होती हैं, बोले तो किसी के लिए कोई मनाही नहीं। रिक्शे वाले भी सड़क के बीचों-बीच चलेंगे। दिन में भी ट्रक और बसें एलाउड हैं, गाड़ी के साइज़, स्पीड और लैन का तो कोई दूर-दूर तक भेद-भाव नहीं। अब ये आपकी किस्मत है कि गुड़ लेकर जा रही कोई बैलगाड़ी या भूसा लेकर जा रहा कोई ट्रैक्टर इतनी जगह घेर कर चले कि आपको साइड ही नहीं मिले। सारे लोग इस सड़क पर एक-दूसरे को गाली तो देते हैं, लेकिन सड़क को कभी नहीं। बाइक वाला टैम्पो वाले को, टैम्पोवाला रिक्शे वाले को, रिक्शा वाला कार वाले को और कार वाला ट्रक वाले को – लेकिन सड़क के सेकुलर करेक्टर पर कोई उंगली नहीं उठाता। वैसे कुछ सड़कें बुद्धिजीवी किस्म की भी होती हैं। आप कई बार कुछ सड़कों को देखकर सोचते होंगे कि ये ऐसे क्यों बनी हैं, इसकी बजाय वैसे बनी होतीं तो बेहतर होता। इसमें मोड़ यहाँ की बजाय थोड़ा पहले दे दिया गया होता तो ज़्यादा अच्छा होता। इसमें बीच में यू-टर्न आधा किलोमीटर दूर नहीं बनाया गया होता तो और भी अच्छा होता। यानी जो सड़कें आपको सोचने पर मजबूर कर देती हैं, बुद्धि पर ज़ोर डालने पर मजबूर कर देती हैं, वो बुद्धिजीवी किस्म की सड़कें होती हैं।

सड़कें अपनी हैसियत, उम्र और जन्म-स्थान आदि के हिसाब से भी डिफ़ाइन की जाती सकती हैं। बशर्ते मल्लिका शेरावत की तरह अपने नाम, उम्र इत्यादि में हेरा-फ़ेरी न करें। लेकिन सड़कों का नामकरण तो प्रजाति के आधार पर भी होता है। जैसे ‘दगड़ा’ या ‘दगरा’। आप इसे ‘डगर’ का अपभ्रंश रूप मान सकते हैं। दगरा वैसे दर्रे के काफ़ी निकट लगता है और दल्ले के भी। जैसे नेताओं के पीए या सेकेटरी या फिर दल्ले बाईपास रास्ते से आपको सीधे नेताजी तक पहुँचा देते हैं। वैसे ही दगरे गाँव या पोखर तक पहुँचने का बाईपास होते हैं। लेकिन ‘गैल’ शब्द थोड़ा व्यापक अर्थ लिए होता है। जैसे घूंसे को डुक्का बनाने के लिए उंगलियों के बीच में से अंगूठा निकालकर थोडा सोफ़िस्टीकेटेड लेकिन ज़्यादा मारक और असरदार बना दिया जाता है, वैसे ही जब हम ‘गैल’ की बात करते हैं तो दगरा, पीए या दल्ले की बजाय व्यापक अर्थ में पीआर कंपनी जैसा हो जाता है यानी एक बड़ी सोसायटी के लिए मैक्ज़िमम स्वीकार्य रूप। ये अलग बात है कि जहाँ ‘दगरे’ में पुरूष प्रधान खुरदुरा भाव नज़र आता है, वहीं ‘गैल’ में कर्णप्रिय स्त्रीत्व कोमलता होती है। बिलकुल ‘पगडंडी’ की तरह। साहित्यकारों ने ‘पगडंडी’ और फ़िल्मकारों ने ‘सड़क’ व ‘गलियों’ जैसे शब्दों को शायद उनके स्त्रीलिंग के चलते ही अपनाया होगा। लेकिन जब भी उनको रेस्पेक्ट देने का भाव मन में आता है, नेता लोग सड़क को ‘मार्ग’ कहने लगते हैं – बाबा साहब मार्ग, महात्मा गांधी मार्ग, बहादुर शाह जफ़र मार्ग। लेकिन अंगरेज़ लोग उसे सैक्सी नज़रों से देखते आए हैं, सो उसे ‘रोड’ का नाम दिया। कर्जन रोड, अक़बर रोड आदि। अगर कभी ‘वे’ भी कहते हैं तो उसमें निहित उपेक्षा या दूरी का भाव साफ़ दिखता है, चार ख़ूबसूरत इंटर्न लड़कियों के बीच एक बेचारे लड़के इंटर्न की तरह।

फ़िगर और शील के नज़रिए से भी सड़कों को देखा जा सकता है। आप गाँव की पतली पगडंडी को देखिए, जिस पर केवल साइकिल या स्कूटर ही चल सकता हो, बिलकुल बेदाग़ नज़र आएगी। बीच में ऐसा टर्न लेगी मानो किसी हसीना की कमर में बल पड़ गए हों। उसके किनारे खड़े सरकंडे ऐसे नज़र आते हैं मानो “इस ख़ूबसूरत लड़की को कोई और न देख-छेड़ ले” की मानसिकता वाले मोहल्ले के स्वंयभू कमसिन लौंडे लपाड़े हों। लेकिन दगरे का फ़िगर हमेशा बुलट पर सवार किसी सरपंच के छोकरे की तरह नज़र आता है, स्पीड कम लेकिन रूकावट फ़्री। ‘बुलट चले तो दुनिया रास्ता दे’ के मूलमंत्र के साथ। जबकि छोटे शहरों की सड़कें तो वहाँ की लड़कियों की तरह ही होती हैं, जब तक शादी नहीं हो जाती है, बस-स्टैंड के पान वाले से लेकर मिश्रा जी और उनके नाती के गैंग तक, सबकी नज़रों में छाई रहती हैं। लेकिन बहुत ही अल्पावधि सरकार की तरह जल्द ही शहीद हो जाती हैं और मार्केट से लापता। छोड़ जाती हैं अपनी यादों के निशान। तो बड़े शहर की ज़्यादातर सड़कें मल्लिका शेरावत और राखी सावंत की तरह नज़र आती हैं – चिकनी, चौड़ी, मादक और हरदम मानो इन्वीटेशन कार्ड देती हुईं। ज़रा-सी टूट-फूट हुई नहीं कि हफ़्ते भर के अंदर डेंट-पेंट। आजकल तो वैसे भी बड़े शहरों में नाक सीधी करने से लेकर झुर्रियाँ मिटाने के बर्टोक्स इंजेक्शन तक मौजूद हैं। बस जेब में नावाँ होना चाहिए। शहर की सड़कों पर तो वैसे भी नावें की कमी नहीं। इधर मेकओवर में लोगों के कमीशन भी फ़िक्स हैं – सो टेंशन ही नहीं। एक ख़ास बात और है। सभी पार्टियों के नेता लोग बड़े शहरों में ही रहते हैं। सो महानगरीय सड़कों के मेकओवर पर क्या वामपंथी और क्या संघी, सबकी आम सहमति है। हर फ़िल्म में आइटम गर्ल या आइटम डांस वैसे भी ज़रूरी बन गए हैं। इससे किसी को भी असहमति नहीं। अब तक आप भी सहमत हो गए होंगे कि हर सड़क कुछ कहती है।

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शुक्रवार, 22 जून, 2007

राकेश कायस्थ का व्यंग्य : साधु भूखा भाव का

वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के नज़रिए और बोलने के अंदाज़ में ही व्यंग्य है - लिहाज़ा उनका व्यंग्य लिखने का अपना अलग अंदाज़ है। अमर उजाला से लेकर दैनिक ट्रिब्यून तक कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उनके १५० से ज़्यादा व्यंग्य प्रकाशित हो चुके हैं। व्यंग्य की किताब जल्द बाज़ार में आने को है।

कॉलबेल की आवाज़ इतनी कर्कश थी कि बिस्तर से उठकर सीधा दरवाज़े की तरफ भागा। दरवाज़ा खोला तो सामने धर्म साक्षात खड़ा था। दैवदीप्तिमान व्यक्तित्व, ललाट पर त्रिपुंड, एक हाथ में कमंडल, दूसरे में मोबाइल और साथ चंदे की रसीद। पल भर को लगा कि गलती से चैनल तो नहीं बदल गया और एफटीवी की जगह संस्कार लग गया। दरअसल रात को एफटीवी देखते ही आंख लगी थी। ` साधु महाराज द्वार पर खड़े हैं और तुम अभी तक शयन कर रहे हो, जागो बच्चा, अपने कर्तव्य का निर्वाह करो।`

बाबाजी के आदेश से तंद्रा टूटी, जानना चाहा, धर्म-कर्म से रहित व्यक्ति की कोठरी में आने का कष्ट कैसे किया। बाबाजी ने कहा कि कारण विशेष है,लेकिन साधु महाराज पहले जलपान करेंगे, प्रयोजन बाद में बताएंगे। मैंने कहा- इस तुच्छ प्राणी की कुटिया में कुछ भी ऐसा नहीं कि बाबाजी भोग लगा सके। बाबाजी हंसकर शुभ वचन बोले— साधु तो भाव का भूखा होता है, बच्चा प्रेम से जो दे देगा, वही भोग लगा लेंगे।

अनजाने में बाबाजी ने मुझे सूत्र वाक्य दे दिया। सचमुच सारे साधु भाव के ही भूखे होते हैं। भाव ना मिले तो दुर्वासा हो जाते हैं। आडवाणी जी ने भाव नहीं दिया विश्व हिंदू परिषद के सारे साधु कमंडल का जल छिड़कने दौड़े। संघ के महात्माओं ने भी यही कहा कि अगर साधु संतों को भाव नहीं दिया तो बेभाव की ही पड़ेगी। थके-हारे आडवाणी जी वानप्रस्थ की तैयारी करने लगे। एनडीए का राज बदला, लेकिन भाव के भूखे साधु का क्रोध कम नहीं हुआ। नई सरकार में आरजेडी के आठ-आठ मंत्री बने, लेकिन साधु इस बात पर बिलखते रहे कि उनका नंबर नहीं आया।

.. निठल्ले चिंतन में मैं यह भूल ही गया था कि द्वार पर सचमुच के साधु महाराज बैठे हैं। बियर की बोतलें करीने से हटाने के बाद मैंने पूछा—मैगी खाएंगे क्या, मैं पिछले तीन दिन से यही खा रहा हूं। बाबाजी ने स्वीकृति में सिर हिलाया और मैं दो मिनट में मैगी बना लाया। भाव के भूखे साधु महाराज सचमुच के भी भूखे थे। विजातीय भोज्य पदार्थ पर टूट पड़े। जलपान समाप्त करके प्रयोजन बताया—चौराहे पर जो नया मंदिर बना है, उसकी प्राण प्रतिष्ठा होनी है। इसी के लिए सहयोग चाहिए। प्राण प्रतिष्ठा क्या होती है?`देवताओं का आह्ववान किया जाएगा, देवता आएंगे और प्रतिमाओं में प्रतिष्ठित हो जाएंगे`। साधु महाराज ने प्रकाश डाला। लेकिन मैं तो मनुष्य हूं, मैं क्या सहयोग कर सकता हूं? बहुत दिमाग़ दौड़ाने के बाद लगा शायद साधु महाराज प्राणी मात्र में ईश्वर को देखते हैं, शायद इसी लिए मेरे पास आये हैं। कलयुग में ऐसे महात्मा मिलते ही कहां हैं। धन्य हो साधु महाराज।

बाबाजी की महानता पर मन ही मन मुदित हो रहा था कि उन्होने बताया- सहयोग तुम्हे भंडारे और छज्जू चौबे एंड पार्टी की भजन संध्या के लिए करना है। कुछ समझ पाता इससे पहले बाबाजी ने चंदे की रसीद निकाली और 1100 रुपये लिख डाले। ` लेकिन बाबाजी यह रकम तो मेरे कमरे के किराये जितनी है।`

` अच्छा चलो 501 ही दे दो।` भाव का भूखा साधु मोल भाव पर आ गया।

`लेकिन बाबाजी इतने पैसे अगर आपको दे दिये, तो बिजली का बिल कहां से दूंगा, मोबाइल कैसे रिचार्ज कराउंगा।`

भोग विलास के लिए धन है, लेकिन धर्म के लिए नहीं। इसलिए तो हिंदू समाज का पतन हो रहा है। ठीक है, 201 रुपये ही दे दो।

बस का किराया कहां से चुकाउंगा, आपके जैसे महात्मा आ गये उन्हें क्या खिलाउंगा। साधु द्वार से भूखा जाएगा, तो पाप का भागी मैं ही बनूंगा ना। मैंने कातर होकर कहा। फिर अत्यंत श्रद्धा से 21 रुपये निकालकर बाबाजी के कर कमलों में रखे और दोनों हाथ जोड़ दिये—बस इतना ही सामर्थ्य महाराज। बाबाजी ने आग्नेय नेत्रों से देखा और बोले- तो यही है, तुम्हारी आस्था। डेढ़ घंटे ख़राब करके 21 रुपये दे रहो हो, पहले मालूम होता कि इतने कृपण हो, तो आता ही नहीं। बाबाजी का रौद्र रूप देखकर लगा कि मुझ जैसे कड़के की भेंट कतई स्वीकार नहीं करेंगे। दुखी मन से 21 रुपये वापस लेने के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन भाव के भूखे साधु ने क्रोध से मुट्ठी बंद कर ली और इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाता कमंडल थामकर मेरी गली पार कर गया।

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गुरुवार, 31 मई, 2007

आलोक पुराणिक का व्यंग्य : ई-शि और ताज सिंड्रोम

Satirist Alok Puranikआलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं। इस बार पढ़िए आलोक पुराणिक का व्यंग्य दफ़्तरों के लिए इजाद किए गए ख़ास जुमलों पर।



दफ़्तर में काम करने वाले याद नहीं रहते, क़िस्से सुनाने वाले याद रहते हैं। दफ़्तर में जमकर मेहनत करने वाले याद नहीं रहते, जुमलेबाज़ी करने वाले याद रहते हैं। सो वक़्त का तकाज़ा है कि सही से, नये से जुमले पेश किये जायें। सो दफ़्तरार्थियों के लिए कतिपय नये टाइप के जुमले इस प्रकार हैं।

जुमला नंबर वन - ई-शि

ई-शि कर दिया ना।
अरे ई-शि नहीं किया तो बताओ कि कैसे एक्शन किया जा सकता है।

ई-शि समझे ना? नहीं समझे तो समझिये कि इस दौर में माडर्न होने के लिए हर बात के आगे ई लगाना लाज़मी है। जैसे ई-गर्वर्नैंस, ई-मेल,ई-चेकिंग, ई-चैट, ई-चमचागिरी, ई-गपशप।

समझे कि नहीं ई का जलवा। समझिये, यूँ समझिये जैसे आपने किसी सरकारी दफ़्तर में किसी काम के लिए अप्लाई किया, उस पर बाबू ने लिखा - नौट यानी एनओटी एक्सेप्टेड यानी नामंज़ूर। इसके बाद आप एनओटी में एक ई और लगा दीजिये यानी नोट करेंसी वाला नोट। आपकी एप्लीकेशन फ़ौरन मंज़ूर हो जायेगी।

यानी ई को पहले लगाइए या बाद में, झक्कास रिजल्ट देता है। सो साहब ई-शि किया या नहीं? यानी ई-शिकायत की या नहीं। किसी को कोई भी प्राबलम हो, वह कोई शिकायत दर्ज कराना चाहता हो, उसे कहिए कि ई-शि कीजिये यानी ई-मेल के ज़रिये शिकायत कीजिये। यह व्याख्यान दीजिये कि क्योंकि हर शिकायत वाया ई-मेल करना बहुत ज़रुरी है। ई-शि नहीं की, बिल गेट्स बुरा मान जायेंगे। बिल गेट्स बुरा मान गये, तो बहुत दिक़्क़त हो जायेगी। ख़ैर साहब-ई-शि के फायदे इस प्रकार हैं-

1- ई-शि से आधी शिकायतें खुद-ब-खुद ख़त्म हो जाती हैं।
एक ज़माने में मैं जब एक दफ़्तर में काम किया करता था, तो जूनियर आते थे, पैन दे दीजिये, पेंसिल दे दीजिये, काग़ज़ दिलवाईये। स्टेशनरी दिलवाइए। मैंने नियम बनाया कि ई-शि कीजिये, ई-मेल के ज़रिये अपनी प्राबलम बताइए। आधे से ज़्यादा लोग ई-मेल की ज़हमत उठाने के बजाय अपनी जेब से ही पेन-पेंसिल लाने लगे।

बाकी बचे आधे ई-शि कर भी देते थे, तो मैं तीन दिन तक टहलाया करता था कि मुझे आपका ई-मेल मिला नहीं, शायद कंप्यूटर का सर्वर डाऊन है। सर्वर डाऊन है, यह बहाना एक हफ़्ते तक खींचा जा सकता है। बचे आधे में से आधे इस एक हफ़्ते में अपनी जेब से पैन-पेंसिल ख़रीद कर ले आते थे। इसके बाद भी जो बंदे पीछा नहीं छोड़ते थे, वो तो दफ़्तर के पैन-पेंसिल के हक़दार थे ही। ई-शि से दफ़्तर का बहुत ख़र्च बचने लगा।

2- ई-शि से दफ़्तर में पालिटिक्स बहुत कम हो जाती है। एक ज़माने में मैं जब एक दफ़्तर में काम किया करता था, तो शर्माजी वर्माजी के ख़िलाफ़ कुछ कहते थे और वर्माजी शर्माजी के ख़िलाफ़ कुछ कहते थे। मैंने नियम बना दिया कि ऑफ़ दि रिकॉर्ड पॉलिटिक्स नहीं होगी। जो भी होगा, ई-शि के ज़रिये होगा। वर्माजी ई-मेल के जरिये शर्माजी के बारे में बतायेंगे। ई-शि के ज़रिये लोगों ने पालिटिक्स करना छोड़ दिया। दफ्तर में बहुत शांति हो गयी।

3- ई-शि से एक बड़ा फ़ायदा यह होता है कि बास के लिए पालिटिक्स करना बहुत आसान हो जाता है। अब बास जिस कर्मचारी की छवि चमकाना चाहता है, उसके बारे में मीटिंग में सबके सामने कह सकता है कि देखिये इस कर्मचारी ने नयी तकनीक को कैसे आत्मसात किया है। हर बात यह नयी तकनीक के ज़रिये ही कहता है। ऐसी ही कर्मचारियों के बूते कंपनी का नव-निर्माण हो सकता है।

और ई-शि का इस्तेमाल उन कर्मचारियों के खिलाफ भी हो सकता है, जिनसे बास खुंदकायमान हो। जैसे सबके सामने मीटिंग में यह कहा जा सकता है कि देखिये, कैसे वेस्ट हो रही है नयी तकनीक। जिस तकनीक के ज़रिये गंभीर चिंतन होना चाहिए था। गंभीर बातें होनी चाहिए थीं, उसके ज़रिये हमारे कर्मचारी पैन, पेंसिल मांगते हैं। धिक्कार है हम सब पर। हाय बिल गेट्स हम पर हँसता होगा रे।

जुमला नंबर टू - ताज सिंड्रोम

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि कसे हुए जुमले सबको याद रहते हैं। ताज सिंड्रोम एक नया जुमला है, जो इस ख़ाकसार ने कल ही ईजाद किया है। इसे दफ़्तर में आप अपने प्रतिद्वंदियों को उखाड़ने और अपने बंदों को जमाने के लिए कर सकते हैं। आजकल हर दफ़्तर में पालिटिक्स इतनी नीरस टाइप हो गयी है कि बास लोग उससे परेशान हो गये हैं। आप अपने प्रतिद्वंदी को उखाड़ने के लिए शुरुआत कुछ इस तरह से करें, तो बास निश्चय ही आपको सुनेंगे। मान लीजिये कि आपके प्रतिद्वंदी मिस्टर शर्मा हैं। आप बास से बात की शुरुआत कुछ इस तरह से करें-

बास मिस्टर शर्मा आजकल ताज सिंड्रोम से ग्रस्त हैं।
बास पक्के तौर पर पूछेंगे-ये ताज सिंड्रोम क्या होता है।

ताज सिंड्रोम का मतलब यही होता है कि जिन चीज़ों की ज़रुरत नहीं है, उन पर तो बहुत पैसा ख़र्च किया जाये। और जिनकी ज़रुरत है, उन पर ध्यान नहीं दिया जाये। अब देखिये शाहजहाँ ने जब ताजमहल बनवाया था, तब आगरा में अकाल पड़ा हुआ था। इसके बावजूद शाहजहाँ ने ताजमहल में मोटी रकम लगा दी। इसीलिए तो औरंगजेब नाराज़ हुआ था शाहजहाँ से। मिस्टर शर्मा ने दफ़्तर में हर महीने क्लर्कों को एक के बजाय दो पैन देना शुरु कर दिया है। बताइए ये ताज सिंड्रोम है कि नहीं।
बास आपके ताज सिंड्रोम में डूब कर रह जायेगा।

और अगर किसी को जमाना है, तो ताज सिंड्रोम का इस्तेमाल इस तरह से कीजिये। मान लीजिये आपको मिस्टर वर्मा को जमाना है। बास के पास जाकर कहिये देखिये मिस्टर वर्मा आजकल ताज सिंड्रोम के लपेटे में आ गये हैं। अच्छा है।
बास पूछेगा- ये क्या होता है।
अरे ताज सिंड्रोम नहीं जानते, कैलीफ़ोर्निया जर्नल आफ मैनेजमेंट में इस पर पूरा लेख है। इसमें बंदा बहुत मेहनत से, बहुत लगन से किसी चीज को संवारता है। निखारता है। समय की चिंता नहीं करता है। वर्माजी भी आजकर नये प्रोजेक्ट में ऐसी ही लगे हुए हैं, जैसे ताजमहल बना रहे हों।

समझे कि नहीं, ताज सिंड्रोम? तो लीजिये ई-शि और ताज सिंड्रोम से हमें निम्नलिखित शिक्षाएँ मिलती हैं -
1- काम करने वाले नहीं, धाँसू जुमले देने वाले याद किये जाते हैं।
2- ई-शि से शिकायतें कम हो जाती हैं, दफ़्तर का ख़र्च कम हो जाता है।
3- ताज सिंड्रोम से आप किसी को भी जमा सकते हैं, किसी को भी उखाड़ सकते हैं।

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गुरुवार, 24 मई, 2007

प्रिय रंजन झा का व्यंग्य : क्रिया की कैसी-कैसी प्रतिक्रिया

बिहारी बाबू के रुप में प्रियरंजन व्यंग्यकार के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। उनके व्यंग्य का अभी तक अलग अंदाज़ रहा है - लेकिन इस बार आप प्रियरंजन का दूसरा अंदाज देखेंगे। " मस्ती की बस्ती" के विशेष आग्रह पर लिखे गए इस व्यंग्य में प्रियरंजन कर रहे हैं भौतिकी के नियम की नई व्याख्या।

हर क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है, यह गति का तीसरा नियम है। कहने को तो यह फीजिक्सकी थ्योरी है, लेकिन जिंदगी के हर क्षेत्र में लोग इस थ्योरी को घुसा डालते हैं। या फिर यहकहिए कि इस थ्योरी पर चलना पसंद करते हैं। इसके एकनहीं, तमाम उदाहरण आपको आए दिन देखने को मिल जाएंगे।

गुजरातमें जब खूब दंगे हुए, तो हिंदू हृदय सम्राटों ने कहा कि वे कुछ नहीं करसकते, क्योंकि यहतो क्रिया के विपरीतहुई प्रतिक्रिया है - जो कुछ हुआ, वह गोधरा कांड का रिएक्शन था। ऐसे ही'तुष्टीकरण' के पुरोधा अक्सर यह कहते हैं कि हिंदू मुसलमानों को बहुत डरा रहे हैं, इसलिए मुसलमान कट्टर हो रहे हैं। खैर, ऐसे और भी कई उदाहरण हैं, जिसमें गति के इस नियम को लागू होते देखने में लोग गर्व का अनुभव करते हैं। अजीब तो यह है कि 'क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया' का तर्क अक्सर लोग अपने गलत कामों को सही साबित करने के लिए देते हैं। मेरे एक गुरुजी थे, वे गति के इस नियम को कुछ ज्यादा ही मानते थे। उनका मानना था कि जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ेगी, लोग वैसे-वैसे पीछे हटेंगे। लोग एक तरफ तो इस बात पर गर्व करेंगे कि हम ग्लोबल विलेज में रहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ वे घनघोर क्षेत्रीयतावादी मानसिकता के स्वामी भी होंगे। उनकी बात आज सौ फीसदी सच लगती है। आज फ्रांस से लेकर मुंबई तक यही हाल है। राष्ट्रपति सर्कोजी फ्रांस में विदेशियोंको देखना नहीं चाहते, तो बाल ठाकरे से लेकर राज ठाकरे तक गैरमराठियोंको महाराष्ट्र में नहीं देखना चाहते। अब ठाकरे लोगों को यह कौन बताए कि उनकी ऐसी सोच (क्रिया) की प्रतिक्रियामें अगर दूसरी जगहों पर रह रहे मराठियों को खदेड़ दिया जाए, तो उनका क्याहोगा?

हमारे गुरुजी इस थ्योरी कोसमझाने के लिए वे एक जुमले का इस्तेमाल करते थे - 'जौं जौं मुर्गी मोटानी, तौं तौं दुम सिकुड़ानी।' कहने का मतलब यह कि जब मुर्गियां छोटी होती हैं, तो उनकी दुम (अगर होती है, तो) मोटी होती है, लेकिन जैसे-जैसे वे बड़ी व मोटी होती जाती हैं, उनकी दुम सिकुड़ती चली जाती है। आजकल के बच्चों को ही लीजिए, समय के साथ मुर्गियों जैसे ही उनकी दुम भी सिकुड़ रही है। नए जमाने के बच्चे अभिमन्यु की तरह गर्भ से हीबहुत कुछ सीखकर आते हैं। आज के तीन-चार साल के बच्चों में जितनी अक्ल होती है, आज से बीस-तीस पहले अगर इस उम्र में इतनी अक्ल होती, तो पता नहीं अपना देश कहां चला गया होता!

खैर, तो हम बात कर रहे थे, दुम सिकुड़ने की। हाल में मेरे एक दोस्त के साथ दिलचस्प वाकिया हुआ। रिक्शा से बाजार जाते हुए कॉन्वेन्टमें पढ़ रहे उसके पांचवर्षीय बेटे ने खुश होते हुए कहा - पापा, वो देखो बकरियां जा रही हैं। इससे पहले कि मेरा दोस्त बकरियों की ओर देखता, रिक्शा वाला हैरान होकर रिक्शा रोककर खड़ा हो चुका था। दरअसल, वह इस बात को लेकर हैरान था कि कंप्यूटर से लेकर हवाई जहाज तक की बात कर रहा यह बच्चा गदहे को भी नहीं पहचानता और उसे बकरी बता रहा है! रिक्शा वाला भले ही हैरान हो, लेकिन मेरी समझ से यह मॉडर्न होने जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया है। इसे आप कतई बच्चों की नासमझी न कहें, क्योंकि अगर वह नासमझ होता, तो विंडोज विस्टाऔर कॉन्कर्ड विमानों की बातें कैसे करता?

वैसे, सच यह भी हैकि अगर आपको मॉडर्न दिखना है, तो गदहे को पहचानने से इनकार करना ही होगा, क्योंकि वह बीते जमाने का जानवर है। और बीते जमाने की चीजों का आज क्या काम! यह मॉडर्न होने की प्रतिक्रिया है। सबसे बड़ी बात तो यह कि गदहे को नहीं पहचानने पर भी न तो आपका जीके कमजोर माना जाएगा और न ही इससे आपके पेट पर लात पड़ेगी। बच्चों के लिए यह जमाना राम-कृष्ण और गांधी-सुभाषसे ज्यादा अमिताभ-सलमानऔर बैटमैन-स्पाइडरमैन को जानने का है, क्योंकि इसी तरह के ज्ञान की अब जरूरत पड़ती है - स्कूल-कॉलेज कैंटीन से लेकर टीवी के रियलिटीशो तक में। तो यह है नई पीढ़ी का ज्ञान - इसे आप क्रिया की प्रतिक्रिया कह सकते हैं या फिर बढ़ती मुर्गी की सिकुड़ती दुम भी, लेकिन क्या आप यह बता सकते हैं कि इतनी रामकहानी किस क्रिया की प्रतिक्रिया में लिखी गई है?

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सोमवार, 21 मई, 2007

अरुण अरोड़ा के व्यंग्य दोहे

फ़रीदाबाद के कवि अरुण अरोड़ा एक बार फिर हाज़िर हैं "मस्ती की बस्ती" में। इस बार वे सुना रहे हैं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कबीर और रहीम के दोहे। आप भी इन दोहों का मज़ा लीजिए:

१. "निन्दक नियैरे राखिये,खाय़ पियै सो जाये
ना काहू सै बोल सकै ,ना कोई पंगा पाय"

२. "नेता ऐसो चाहिये, जैसो सूप सुभाय
चंदो सारो गहि धरै, देय रसीद उडाय"

३. "रहिमन निज करमन की गाथा, मन ही राखो गोय
ना सेकेटरी को शामिल करो, ना शिबु सौरेन सी दुर्गति होय"

४. "रहिमन या राजनीति मे, कभी न खुन्दक दिखायै
ना जाने कब कौन से, दल मे शामिल होनो पड जाये"

५. "कबिरा तेरी झोपडी, गर है थाने के पास
करै कोई तू भरैगा, रख ले ये विश्वास"

६. "जब तक कुर्सी संग है, ले शराब मे रंग
पाच बरस के बाद मे, नसीब न होगी भंग"

७. "रहिमन या लीडरन ते, तजो बैर औ प्रीत
काटे चाटे स्वान के, दुहु भाती विपरीत"

८. "या लीडरन के चरित की, गति समझै नही कोई
ज्यो ज्यो डूबे श्याम रंग, त्यो त्यो उज्जल होई"

९. "कबिरा खडा पार्लियामेंट् मे, देवे सब को धौल
जो बोला सो पिटैगा, दुंगा खोपडी खोल"

१०. "रहिमन या संसार मे, मिलियो सब से धाय
न जाने कौन कब, प्रधान मंत्री बन जाये "

११. "रहिमन चमचा राखिये, काम आये वक्त पर
चमचा बिना न उबरे, नेता अभिनेता अफ़सर"

घोटालो एसो करो, काहु हवा न लगने पाय
ना बाटन को मामला, न चैनल खबर बनाय

बाणी एसी बोलिये, वोट-बैंक को हिसाब लगाये
जनता चाहे जलि मरै, चाहे कोर्ट मे चक्कर खाये

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे अमिताभ उसूल
विज्ञापन ते नोट बनाय, बाकी जाये भूल

भला जो देखण मै चला, भला न मिलया कोए
मुझते और मेरे लाल ते जग मे भलो न कोए

"काल लूटॆ सो आज लूट, आज मारे सो अब
जब वोटिंग हो जायेगी, बहूरी करोगे कब."

चाकी चलती देखकर, दिया कबीरा रोये
पीस के सारा खा गई, दियो न रत्ती कोये
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
जब कुरसी छिन जायेगी , कहा करोगे तब."

कछु न छ्डयो रे नेता कछु न छोटो होये
भुसे के घोटलो मै अरबॊ के नॊट होये

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सोमवार, 14 मई, 2007

रवीन्द्र त्रिपाठी का व्यंग्य : बुद्धिजीवी जी और टेलीविज़न

पेशे से पत्रकार रविन्द्र त्रिपाठी कई साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं। स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम पोल खोल के इंचार्ज हैं। हाल ही में टीवी पत्रकारों की लिखी कहानियों के हंस के विशेषांक के सम्पादक भी थे।

बुद्धिजीवी जी बुद्धिजीवी हैं। बुद्धिजीवी होना उनकी पहचान है। अदा है। खासियत है। वे अपने को बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करते हैं। इसलिए वे अपने को बुद्धिजीवी दिखाते भी हैं। इसके लिए वे कई तरह के स्टाईल मारते हैं। जैसे, जहां लोग अमूमन शर्ट पैंट पहनकर जाते हैं, वहां वे कुर्ता पायजामा पहनकर जाते हैं-भले ही मौसम सर्दी का हो। औऱ जहां कुर्ता पायजामा वाले ज्यादा हों, वहां वे सूट पहनकर जाते हैं, चाहे मौसम गर्मी का हो।

बुद्धिजीवी जी हर बात बौद्धिक ढंग से कहते हैं। आप सोच रहे होंगे कि ये बौद्धिक ढंग क्या होता है ? तो आपको राज़ की बात बता दें कि बुद्धिजीवी जी के लिए बौद्धिक ढँग का मतलब है फिक्रमंद लगना। इसलिए वे हमेशा फिक्रमंद लगते हैं। बोलते समय भी वे फिक्रमंद लगते हैं और हंसते समय भी। कई बार तो वो हंसते हंसते बीच में इतने फिक्रमंद हो जाते हैं कि अचानक चुप हो जाते हैं। और अगर वे आपको कहीं प्रसन्न मुद्रा में मिलें तो समझ लीजिए कि उस दिन वे बौद्धिक मूड में नहीं हैं।

एक दिन बुद्धिजीवी जी सड़क पर मिले। उस दिन वे कुर्ता पायजमा में थे। मुझे देखते ही बोले कि "ये क्या हो रहा है? आखिर यह कब तक होता रहेगा? पानी सिर से ऊपर होता जा रहा है।"
मैंने पूछा- कहां हो रहा ये? पहले ये तो बताइए।

वे बोले- "मेरा मतलब है टेलीविजन में क्या हो रहा है। चैनलों में क्या हो रहा है। इतनी अश्लीलता, इतनी फूहड़ता। राम-राम। देश का बेड़ा गर्क हो रहा है। नौजवान पीढ़ी बर्बाद हो रही है। सिर्फ अश्लीलता ही अश्लीलता है टीवी में। कोई नैतिकता नहीं बची है। लोगों को भटका रहा है टेलीविजन। सोचने समझने की ताकत खत्म कर रहा है। और सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि इन चैनलों की वजह से बौद्धिकता खतरे में है। क्या समझे?"

मैंने पूछा- "अगर टेलीविजन इतना खराब है तो आप उसे देखते क्यों हैं? हटा दीजिए टीवी सैट अपने घर से। फिर अश्लीलता और अऩैतिकता आपके घर की देहरी के भीतर घुस नहीं पाएगी।"

वे बोले-" देखता कौन है। मैं टेलीविजन कभी नहीं देखता। मेरे पास वक़्त कहां है टीवी देखने का। घर में टेलीविजन जरुर है लेकिन वो सिर्फ बीवी और बच्चों के लिए। मुझे तो सेमीनारों और गोष्ठियों से ही फुर्सत नहीं मिलती। मैं तो वो कह रहा हूं,जो लोग कहते हैं औऱ अखबारों में छपता है। क्या समझे?"

मैंने कहा-"हो सकता है कि अखबार के लोग गलत कह रहे हों।"
वे बड़े तीखे लहजे में बोले- "आपकी बात कैसे मान लूं। देखिए, सेमीनारों में जो भी भाषण देता हूं,उसकी रिपोर्टिंग अखबारों में छपती है। लेकिन,आज तक किसी भी टीवी चैनल ने मेरा भाषण नहीं दिखाया। साफ है कि टेलीविजन चैनलों में बौद्धिकता नहीं बची। टेलीविजन बुद्धिजीवियों की कद्र नहीं करता। सोच विचार की कद्र नहीं करता। और जिस समाज में बुद्धिजीवियों की कद्र नहीं है,वो समाज चेतना शून्य होता है। क्या समझे?"

बुद्धिजीवी जी का चेहरा तमतमा रहा था। वो आगे बोले-" अखबार वाले बुद्धिजीवियों की कद्र करते हैं। वे तो ये भी छाप देते हैं कि अमुक अमुक गोष्ठी में फलां फलां बुद्दिजीवी मौजूद था। क्या समझे?"

ये सब कहते हुए उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। आवाज़ तेज़ होती जा रही थी। पर मैंने बिना उसकी परवाह किए हुए कहा-" लेकिन इसमें नयी बात क्या है। विदेशों मे तो पहले ही कई बुद्धिजीवी कह चुके हैं कि टेलीविजन विचार का नहीं मनोरंजन का माध्यम है। बौद्रिला ने तो कहा है कि.."

उनके नथुने फूलने लगे थे। अपनी आवाज़ को और ऊँची करते हुए वे लगभग चीखे-"यही तो आप लोगों की मुश्किल है। हर बात पर विदेश की तरफ देखते हैं। अपने देश में बुद्धिजीवी नहीं है क्या? कहां कहां से नाम ले आते हैं। बौद्रिला, फौद्रिला,लाकां,फांका...। अरे,स्वदेशी बुद्धिजीवियों की बात कीजिए। क्या समझे?"

वे इतनी बार क्या समझे पूछ चुके थे कि मुझे अपनी समझदारी पर शक होने लगा। मुझे ये भी लगने लगा कि उऩका पारा जरुरत से ज्यादा गरम हो रहा है और उऩके सामने रहना खतरनाक हो सकता है। इसलिए मैंने विदा के लिए नमस्कार किया। वे बिना जवाब दिए मुड़े और चले गए।

कुछ दिनों के बाद बुद्धिजीवी जी फिर दिखे। उस दिन वे कुर्ता पायजामा में नहीं बल्कि सूट-बूट में थे।साफ था कि व बौद्धिक मूड में नहीं हैं। लेकिन, मुझे ये भी लगा कि उस दिन की बातचीत के बाद जरुर अब तक नाराज़ होंगे, इसलिए उनकी तरफ न देखने का नाटक किया। लेकिन,उन्होंने मुझे देख लिया था। शायद वे खफा भी नहीं थे,इसलिए आवाज़ लगाकर मुझे बुलाया। मैंने नमस्कार किया। देखा उनका चेहरा दमक रहा था। वे फिक्रमंद नहीं बल्कि प्रसन्न नज़र आ रहे थे। बोले- "आज रात नौ बजे क्या कर रहे हो?"

मैंने सोचा किसी दावत का निमंत्रण देने वाले हैं। इसलिए कहा-"कुछ खास नहीं।" वे उत्साह में बोले- "तो जल्दी घर जाइए और रात नौ बजे एवन चैनल देखिए। एक टॉक शो मे आ रहा हूं। और हां, देखने के बाद एसएमएस जरुर कीजिएगा और बताइएगा कि कैसा लगा।"

मैं कुछ जवाब देता कि वे जा चुके थे।

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रविवार, 13 मई, 2007

अरुण अरोड़ा की व्यंग्य कविता : मुलायम की चिट्ठी माया के नाम

फ़रीदाबाद के कवि अरुण अरोड़ा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति पर चुटकी ली है। आप भी इसका मज़ा लीजिए मुलायम की इस चिट्ठी का, जो लिखी गयी है माया के नाम।

पीर मेरी प्यार बन जा
है भगे मेरे गधे कुछ
है भगे तेरे गधे कुछ
आजा मिलकर जीते चुनाव
साइकल रखले हाथी पर, तू गले का हार बनजा
पीर मेरी प्यार बनजा
सवर्णो को भी माफ़ किया जब
मै भी हूँ इतना बुरा कब
मै बनूंगा मुख्यमंत्री, तू मेरी सरकार बनजा
पीर मेरी प्यार बन जा
अमर सिंह से बात कर ले
शर्ते सारी साफ़ कर ले
अम्बानी की गारन्टी दूंगा
तू गरल से छार बन जा, पीर मेरी प्यार बन जा
देश की चिन्ता तुझे कब
देश की चिन्ता मुझे कब
लूटन में उत्तर प्रदेश को, तू मेरी मददगार बन जा
पीर मेरी प्यार बन जा
मै अमर का हूँ मुलायम
तू भी है काशी की माया
आधा ले लेना मुझसे
पिछले सालों जो कमाया
मिल बाट कर खालेंगे अब, तू मेरी हमराह बन जा
पीर मेरी प्यार बनजा
अम्बानी को बांट लेंगे
अमिताभ को साथ लेंगे
गुण्डे तेरे साथ भी हैं
गुण्डे मेरे पास भी हैं
जुर्म घटाने मे युपी के, तू भी जुम्मेदार बन जा
पीर मेरी प्यार बन जा

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मंगलवार, 8 मई, 2007

राजेंद्र त्यागी का व्यंग्य : बुद्धिजीवी बनाम बुद्धूजीवी

राजेन्द्र त्यागी पेशे से क़लम के सिपाही हैं। नुक्ताचीनी में माहिर हैं, सो व्यंग्य लिखने की मौलिक प्रतिभा उनमें होनी ही थी। नए प्रतीकों और रुपकों के ज़रिए अपनी बात कहने का उनका अलग अंदाज़ है। त्यागी जी के तीन व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं।

हमारे एक मित्र हैं, निर्मल चंद उदास। उदास उनका तख़ल्लुस है, स्वभाव से निर्मल हैं। निर्मल और उदास दोनों ही धाराएँ उनके व्यक्तित्व में ऐसे समाहित हैं जैसे इलाहाबाद में गंगा-यमुना का संगम। लेखन में रुचि रखते हैं। कई ग्रंथ लिख चुके हैं मगर अभी तक वे अपनी गिनती न तो साहित्यकारों में करा पाए हैं और न ही बुद्धिजीवियों में। उनका सारा लिखा-पढ़ा काग़ज़ काले करना ही साबित हुआ। हाँ, जिस प्रकाशक के यहाँ वे प्रूफ रीडरी कर जीविकोपार्जन कर रहे हैं, उसकी गिनती अवश्य बुद्धिजीवियों में होती है। प्रकाशक महोदय साहित्य के क्षेत्र में भी दो-एक पुरस्कार हथियाने में सफल हो गए हैं। शायद उदास साहब की उदासी का यही प्रमुख कारण है।

एक अन्य मित्र हैं, हँसमुख लाल जी। इस मिथ्या जगत में उनका पदार्पण रोते हुए नहीं मुस्कुराते हुए ही हुआ था। यही वजह है कि उनका मूल नाम ही हँसमुख रख दिया गया। आज वह प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हैं, लेकिन हँसमुख स्वभाव आज भी बरक़रार है। जानने वालों का कहना है कि वह अपने ऊपर कम दूसरों के ऊपर ज़्यादा हँसते हैं। कभी-कभी यह स्थिति परचित्तानुरंजन तक पहुँच जाती है। इसे हम भाग्य का खेल मानते हैं, कुछ लोग दूसरों पर हँसने के ही लिए पैदा होते हैं और कुछ हँसी का पात्र बनने के लिए।

हँसमुख लाल जी साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर हाथ साफ़ कर चुके हैं। विभिन्न विधाओं में अपने नाम से दो-एक ग्रंथों की भी रचना करा चुके हैं। फलस्वरूप साहित्य के लगभग सभी अलंकरण उनके ड्राइंग रूम को शोभायमान कर रहे हैं। उन्हें बुद्धिजीवियों की भी प्रथम पंक्ति में स्थान प्राप्त है। अत: राष्ट्र नेता के नाम का सदुपयोग करते हुए उन्हीं के नाम से काग़ज़ों पर एक विश्वविद्यालय भी बाक़ायदा चला रहे हैं। फ़िलहाल उनके क़दम संसद की तरफ़ रुख़ किए हैं। देर-सबेर सांसद भी बन ही जाएंगे।

एक लंबे अर्से से हम इसी उधेड़-बुन में थे कि आख़िर बुद्धिजीवी होने का फ़ण्डा क्या है? बैठे-ठाले एक दिन इस गुत्थी को सुलझाया हमारे पौत्र ने। खेल-खेल में उसने हमारी तरफ़ निशाना साधा और एक सवाल दाग दिया, 'डैडी, अकबर बुद्धिजीवी था या बीरबल?'

सवाल सुन हमने सोचा आज फिर उसे कोई बौद्धिक ख़ुराफ़ात सूझी है। शारीरिक ख़ुराफ़ात के साथ-साथ वह ऐसी ख़ुराफ़ात अक्सर कर बैठता है। मगर जब उसे ख़ुराफ़ाती दौरा उठता है तो हमारी तरह ज़मीन पर लक़ीरें नहीं, मशीन के आविष्कर्ता लियॉनार्ददा विंचीकी तरह काग़ज़ पर यांत्रिक आकृति बनाता है। वह हमारी तरह रेत के घर बना कर भी नहीं तर्क-वितर्क के ताने-बाने में घर के अन्य सदस्यों को फँसा कर अपना मन बहलाता है। यह उसके बुद्धिजीवी होने का प्रमाण है।

ख़ैर, उसका सवाल हमने सहज भाव से लिया और सहज भाव से ही उसका जवाब दिया, 'बेटे, दोनों ही बुद्धिजीवी थे, बीरबल भी और अकबर भी।'
पौत्र के चेहरे पर बुद्धिजीवियों के समान गंभीर मुस्कराहट के भाव उतर आए और अक्षरों को शब्दों की लंबाई तक खींचते हुए वह बोला, 'डैऽऽऽडी, दोनों कैसे हो सकते हैं? एक साथ दो बुद्धिजीवी, वह भी प्रेम भाव के साथ, असंभव!'

पौत्र के तेवर देख हम समझ गए कि आज सहज भाव के आधार पर सहज ही पीछा छूटने वाला नहीं है, जवाब देना ही होगा। अत: हमने हनुमान चालीसा की तरह अकबर-बीरबल के क़िस्सों का मनन किया और बुद्धि पर जैक लगाते हुए जवाब दिया, 'बीरबल!'

हमारा जवाब सुन वह खिल-खिलाकर हँस दिया और इस बार शब्दों को अक्षरों के आकार तक सीमित करते हुए बोला, 'बुद्धू! अच्छा डैड, बताओ शेर ताक़तवर होता है या रिंग मास्टर?'

रिंग मास्टर-शेर, अकबर-बीरबल! उसकी पहेली अब हमारी बुद्धि के चोर दरवाज़े से बाहर झांकने लगी थी। फिर भी बुद्धि के सभी खिड़की-दरवाज़े बंद किए और दोनों जीवों की ताक़त का अनुमान लगाते हुए नतीजे पर पहुँचे की ताक़तवर तो शेर ही होता है, आदमी की क्या बिसात? इसी अनुमान के आधार पर हमने शेर के सीने पर ताक़तवर होने का तमगा जड़ अपना जवाब उसकी तरफ धकेल-सा दिया।

हमारे इस बौद्धिक जवाब से ख़ुश हो कर उसने 'नासमझ' होने का गोल्ड मेडल हमारे सीने पर चस्पा कर दिया और अभिनेता नाना पाटेकर के लहज़े में टेढ़ी उंगली से अपनी बुद्धि खटखटाते हुए बोला, 'डैड, ताक़त यहाँ होती है, बाँहों में नहीं। शेर यदि ताक़तवर होता तो उसके इशारे पर रिंग मास्टर डांस करता, रिंग मास्टर के इशारे पर शेर नहीं। कुछ समझे, डैड!'
अब हम सहज भाव के साथ पूरी तरह फँस चुके थे। अत: आत्मसमर्पण भाव से बोले, 'समझ गए, पुत्र!'

'समझे! तो बताओ, अकबर व बीरबल में कौन बुद्धिजीवी था।' उसने सवाल फिर दोहराया।
इस स्तर तक आते-आते हम समझ गए थे कि पौत्र की निगाह में बुद्धिजीवी कौन है। मगर डैडी होने के अहम् भाव के कारण हम अकबर को बुद्धिजीवी कहने में अपनी हिमाकत समझ रहे थे। हम यह भी जानते थे कि पौत्र का जवाब हमारे अहम् को घायल कर देगा, मगर महसूस यह भी कर रहे थे कि पौत्र के अनुकूल सही जवाब अपने मुख से देने पर तो हमारा अहम् मृत्यु को ही प्राप्त हो जाएगा। अत: सुगढ़ व्यापारी की तरह नफ़े-नुक़सान का आकलन करते हुए हमने विनीत भाव से कहा, 'तुम्हीं बताओ पुत्र।'

विजय भाव से उसने जवाब दिया, 'डैडी, बुद्धिजीवी तो अकबर ही था, बीरबल नहीं।'
पराजित घायल राजा के समान कराहते हुए हम बोले, 'वह कैसे?'
शांत व शालीन भाव से वह बोला, 'बीरबल यदि बुद्धिजीवी होता तो वही महान कहलाता, अकबर नहीं। हिंदुस्तान का बादशाह बीरबल होता, अकबर नहीं। यह ठीक है कि बुद्धि बीरबल के पास भी थी, मगर नवरत्नों की बुद्धि का दोहन करने वाली बुद्धि किसके पास थी? अकबर के ना!
तो बुद्धि का कौन खा रहा था, अकबर ना! फिर बुद्धिजीवी कौन हुआ डैडी, अकबर या बीरबल, अकबर ना!'

बौद्धिक रूप से अब हम पूरी तरह मात खा चुके थे। डेढ़ बालीस्तके पैदनेसे छोरे ने हमारी बुद्धि का दिवाला निकाल हमारी हथेली पर जो रख दिया था। मात खाने के बाद हमने उससे पूछा 'फिर बीरबल किस श्रेणी का जीव था।'
वह शरम-लिहाज़ त्याग बोला, 'बुद्धूजीवी'।

अब हम पूरी तरह शिष्यत्व अवस्था को प्राप्त हो चुके थे और उसी अवस्था की व्यवस्था का पालन करते हुए हमने पूछा, 'बेटे! मंत्री बुद्धिजीवी होता है या आईएएस अफ़सर?'

उसका जवाब था, 'डैडी, बुद्धिजीवी होने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं है।' उसने हमारे सवाल की गहराई नाप ली थी। हमारा अगला सवाल था, 'देश में बुद्धिजीवी शिरोमणि किसे मानते हो?'

वह बोला, 'पहले नंबर पर ठग सम्राट दादा नटवर लाल। ज़िन्दगी भर बुद्धि का चमत्कार दिखाता रहा और अपनी जीविका चलाता रहा। वह यदि इस देश का विदेश मंत्री भी होता तो मियाँ मुशर्रफ़ के हस्ताक्षर से पाकिस्तान की बिल्टी भारत के नाम कटा देता और अखंड भारत का सपना साकार हो जाता। डैडी! दूसरे नंबर का बुद्धिजीवी था, चचा हर्षद मेहता। वह भी पूरी उम्र बुद्धि का ही खाता रहा। वह यदि वित्तमंत्री होता तो विश्व बैंक भारत में गिरवी रखा होता।'

अब हमारे पास न कहने के लिए कुछ बचा था और न पूछने के लिए। इलेक्ट्रानिक पीढ़ी के सामने चर्खा पीढ़ी पूरी तरह नतमस्तक थी।

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रविवार, 6 मई, 2007

आलोक पुराणिक का व्यंग्य : मैं मूल्यवान लेखक हूँ

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं। इस बार पढ़िए आलोक पुराणिक का ज़बरदस्त आत्मसाक्षात्कार, जिसमें वे बता रहे हैं अपने मूल्यवान लेखक होने की वजह।



ब्रह्मांड के सबसे धांसू रचनाकार आलोक पुराणिक (आलोकजी ब्रह्मांड के सबसे धांसू रचनाकार कैसे हैं, यह जानने के लिए प्रतीक्षा करें आलोकजी की आगामी पुस्तक की - स्मार्ट झूठ कैसे बोलें। इसमें आलोकजी ने विस्तार से समझाया है कि उन्हे ब्रह्मांड का सबसे धांसू रचनाकार कैसे माना गया है)

आलोक पुराणिक ने काफी कुछ लेखन बर्नार्ड शा, आस्कर वाइल्ड के नाम से भी किया है। दरअसल पूर्वजन्म में आलोक पुराणिक यही थे। जिन्हे इस बयान पर आपत्ति हो, वे सबूत पेश करें कि आलोकजी ये नहीं थे।

आलोक पुराणिक पिछले क़रीब बीस सालों से पत्रकारिता की और दस सालों से व्यंग्य लिख कर हिंदी व्यंग्य की सेवा कर रहे थे। इससे पहले अपनी उम्र के क़रीब तीस साल आलोकजी ने व्यंग्य न लिखकर भी हिंदी व्यंग्य सेवा की है, ऐसा कई जानकार लोग बताते हैं। बल्कि कई तो यह भी मानते हैं कि न लिखकर जो सेवा उन्होनें की थी, वह ज़्यादा सार्थक थी।

आलोक पुराणिक का यह आत्मसाक्षात्कार है।

सवाल- आप व्यंग्यकार कैसे बने?
जवाब- देखिये, सबसे पहले मैंने कविता के इलाक़े में ज़ोर आज़माया। हिंदी के एक वरिष्ठ कवि एक जगह कविता पढ़ रहे थे -

चिड़िया से उठता है धुआँ
धुएँ की एक लकीर से निकलती हो तुम
तुम हम, हम तुम,
तुम ही तुम तुम ही तुम

बाद में एक आलोचक ने बताया कि यह तो विकट कालजयी कविता है। इसमें समकालीन मसलों से लेकर प्रेम के आयाम मौजूद हैं। धुएँ की एक लकीर से निकलती हो तुम, यानी कवि अपनी प्रेमिका को संबोधित कर रहा है - हे प्रिये तुम धुएँ की लकीर से निकलती हो। यानी भारी प्रदूषण हैं, कवि इस तरह से समकालीन संदर्भों से जुड़ रहा है। स्त्री विमर्श भी है इसमें, धुआँ विमर्श भी है। कविता की आख़िरी पंक्ति है - तुम ही तुम यानी कवि उसके इश्क़ में डूबने की बात कर रहा है, जो शरीरी प्रेम से परे है। यह प्रेम की आख़िरी पराकाष्ठा है।

आलोचक की इस व्याख्या से मुझे लगा कि मेरे अंदर भी भारी कवि बनने के लक्षण हैं। और मैं कवि बन गया, बहूत हिट कविताएँ लिखीं (हिट उन आलोचक की नज़र में, यह तब की बात है जब मैं आलोचकजी को अपने वाहन पर उनके इच्छित स्थानों पर ले जाया करता था, उनके विरोधियों के ख़िलाफ़ प्रचार किया करता था आदि आदि)। बाद में मेरी व्यस्तता अन्यत्र बढ़ने लगी, और मैं कविता को ज़्यादा और आलोचक महोदय को कम समय देने लगा, तो मैंने पाया कि आलोचक महोदय ने यह कहना शुरु कर दिया कि अब तुम्हारी कविता में वह बात नहीं रही।

सो साहब कविता छूट गयी। फिर मैं शायरी की तरफ मुड़ा। शायरी में उस्ताद बनाने पड़ते हैं। मेरे उस्ताद ने कहा - बेटे पहले कुछ पढ़-लिख कर आओ। इससे आशय मैंने यह लगाया कि औरों की पढ़ो और फिर लिखो। साहब दो ही दिनों बाद मैं पहुँच गया कुछ नये शेर लेकर -

जिनके देखे से आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
देखिये पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़, एक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है

उस्ताद कुछ चौंक कर बोले - ये शेर तो लगता है कि चोरी का है।
मैंने कहा - हो सकता है कि ग़ालिब ने मेरा चुरा लिया हो। मैं भी ठीक यही बात कहना चाहता था, उन्होने पहले ही मेरी बात चुराकर कह दी।

उस्ताद बिगड़े और बोले - क्या मतलब? ग़ालिब तुमसे बहुत पहले पैदा हुए हैं, वो चोरी कैसे कर सकते हैं?
मैंने समझाया कि ये क्या बात हुई कि जो मुझसे पहले पैदा हुए हैं, वो चोरी नहीं कर सकते। एक से एक नायाब चोर मुझसे पहले पैदा हुए हैं। नटवरलाल मुझसे पहले पैदा हुए हैं।

उस्ताद बोले - तुम बात बिलकुल लौजिकल कर रहे हो। पर उर्दू वाले इतने समझदार नहीं है कि तुम्हारा लाजिक समझ पायें।
सो साहब इस तरह से शेर कहना छूटा।

फिर एक दिन मैं एक अख़बार के दफ़्तर में बैठा था। एक मित्र झींकते हुए बोले - व्यंग्य के नाम पर इधर कूड़ा भेज रहे हैं लोग। छापना पडता है। मैंने इजाज़त मांगी कि अगर वह चाहें, तो कुछ फ़्रेश क़िस्म का, अपनी तरह का कूड़ा मैं भी देना शुरु करुँ। वह सहमत हो गये। सो साहब चल निकला मामला, मैं कूड़ा समझ कर भेजता रहा, वह व्यंग्य समझकर छापते रहे। जब तक बाक़ी के व्यंग्यकार गुटबाज़ी करके मुझे उखाड़ने की जुगाड़ कर पाते, तब तक मैं जम चुका था।

सवाल- लोग कहते हैं कि आप सिर्फ़ रुपयों के लिखते हैं।
जवाब- ग़लत कहते हैं कि मैं सिर्फ़ रुपयों के लिए लिखता हूँ। मौक़ा दें, मैं डालरों और पौंडों के लिए भी लिखना चाहता हूँ।

सवाल- आप अख़बारों के लिए लिखते हैं, पत्रिकाओं औऱ किताबों की शक्ल में आपका योगदान कम है, क्यों?
जवाब- मैं जनता का लेखक हूँ। जनता के काम आने वाला लेखक हूँ। ये जो आप केले ख़रीद कर लाये हैं, इनके लिफ़ाफ़ों का अख़बार देखिये। इसमें मेरा लेख है। जनता के काम आना और किसे कहते हैं जी। अभी भोपाल जा रहा था, एक अख़बार ख़रीदा। एक अख़बार में मेरा व्यंग्य था। कुछ देर बाद सामने की बर्थ की महिला के छोटे बच्चे ने लघुशंका कर दी। महिला ने मुझसे कहा कि अख़बार तो आप पढ़ ही चुके हैं, लाइए मैं इसे इस्तेमाल कर लूँ। व्यंग्यकार समाज की गंदगी साफ़ करता है, इस मुहावरे को सिर्फ़ अख़बार में लिखकर ही सार्थक किया जा सकता है। ऐसा गौरव पत्रिकाओ, और किताबों के लेखकों को नही मिलता। फिर मैं मूल्यवान लेखक हूँ, अख़बार की रद्दी छ: रुपये किलो बिकती है। पत्रिकाओं की रद्दी चार रुपये किलो बिकती है। किताबों की मुश्किल से दो रुपये किलो बिकती है। मैंने पहले ही साफ़ किया है कि मैं मूल्यवान लेखक हूँ।

सवाल- आपको लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है?
जवाब- प्रणव जैन, बलीराम सेकसरिया और रानू श्रीवास्तव से।

सवाल- पर इन लोगों के नाम बतौर लेखक तो मैंने नहीं सुने।
जवाब- मैंने भी नहीं सुने, क्योंकि ये लेखक हैं ही नहीं। ये उन अख़बारों के एकाउटेंट हैं, जो मेरे लेखों के पारिश्रमिक के चेक बनाते हैं। सारी प्रेरणा यहीं से मिलती है।

सवाल- अपने समकालीन व्यंग्यकारों के बारे में क्या कहना चाहते हैं।
जवाब- सारे बहुत ही बढ़िया हैं। वाह-वाह क्या कहने।

सवाल- सब कुछ बढ़िया ही है, कुछ भी ख़राब नहीं है क्या?
जवाब- देखिये, व्यंग्यकार बहुत तरह के हैं। एक तो जिनके लेख चलते हैं। दूसरे, जिनके स्थापित पुरस्कार, सम्मान वगैरह बाज़ार में चलते हैं। कईयों का कुछ नहीं चलता, पर वे तमाम किस्म की कमेटियों में चलते हैं, वे पुरस्कार, सम्मान, फ़ैलोशिप वगैरह के फ़ैसले करते हैं। मुझे अभी तक कोई पुरस्कार वगैरह नहीं मिला है। अभी बहुत पुरस्कार झटकने हैं। किसी को बुरा क्यों बताना। इस धरती पर सभी कुछ अपनी जगह ठीक है। मैं कौन हूँ किसी को बुरा बताने वाला। ना काहू से बैर के फ़्ण्डे पर चल कर ही सर्वत्र सैटिंग कर पाता है। वही मुझे करनी है।

सवाल- आपको अभी तक कोई पुरस्कार कोई नहीं मिला?
जवाब- देखिये इस संबंध में थोड़ा प्रोफ़ेशनल हूँ। पुरस्कार खेंचों प्रक्रिया में कास्ट-बेनिफ़िट एनालिसिस करता हूँ। अभी दिल्ली में एक अकादमी में ग्यारह हज़ार रुपये के पुरस्कार के लिए चक्कर चलाने के लिए किसी ने प्रोत्साहित किया। मैंने कैलकुलेशन किया कि दो निर्णायकों को सैट करने में छह शाम, ट्रांसपोर्ट ख़र्च, और महंगी वाली शराब की क़रीब बाईस बोतलें ख़र्च होंगी। ख़र्चा ज़्यादा हुआ जा रहा था, पुरस्कार कम का था। सो मैंने खट से बयान दिया कि मैं ऐसा लेखक हूँ कि जो अपनी प्रतिबद्धता को पुरस्कार के लिए नहीं बेचता। हाँ यह पुरस्कार अगर ज़्यादा रक़म का होता, तो मैं बयान देता कि पुरस्कार से ही तो प्रतिभा का मूल्यांकन होता है। एकाध लाख का पुरस्कार हो, तब मारधाड़ की जाये। कॉस्ट रिकवर हो जाये, कुछ मुनाफ़ा हो जाये, तब पुरस्कार में ध्यान लगाना चाहिए।

सवाल- तो क्या मतलब आपके हिसाब से ये सारे पुरस्कार रैकेटबाज़ी के तहत दिये जाते हैं?
जवाब- जो पुरस्कार मुझे दिये जायेंगे, वे इस बयान के अपवाद होंगे।

सवाल- आप इतनी गुंताड़ेबाज़ी करने की सोचते हैं। यह तो लेखकीय संवेदना नहीं है।
जवाब- देखिये, लेखन तीन प्रकार का होता है। कालजयी, शालजयी और मालजयी। कालजयी लेखन यह होता है - जैसे कोई लिखे कि नींबू का कब्ज़ निवारण में योगदान, ननद से संबंध कैसे सुधारें, कपड़ों पर लगे दाग़ों को कैसे छुड़ायें। ये लेखन कालजीय लेखन है। अक़बर के टाइम में भी इस तरह के लेखन की ज़रुरत थी और अब से पाँच हज़ार सालों बाद भी इस तरह के लेखन की डिमाण्ड होगी। दूसरे तरह का लेखन होता है शालजयी। इस किस्म के लेखन वाले लेखक साल छह महीनों में कोई बुलाकर शाल दे देता है। तीसरे किस्म का लेखन होता है मालजयी लेखन। सब तरफ से माल आने दो। फैलोशिप आने दो। पुरस्कार आने दो। अपनी दिलचस्पी मालजयी लेखन में है।

सवाल- अपने को किस स्तर का लेखक मानते हैं?
जवाब- कबीरदास, सूरदास और तुलसीदास के स्तर का। इनमें और मुझमें बहुत समानता है। इनमें से किसी को साहित्य का नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। मुझे भी अभी तक नहीं मिला है। अगर मिल गया, तो फिर मेरा स्तर गिर जायेगा।

सवाब- आप पढ़ते क्या हैं?
जवाब- पढऩे की क्या ज़रुरत है। पढ़ने में लगा रह जाऊँगा, तो लिखूंगा कब।

सवाल- प्रशंसकों के लिए क्या संदेश है?
जवाब- देखिये मैं ऐसे ही किसी फ़ोकटी में प्रशंसक नहीं मानता। प्रशंसकों के लिए संदेश यह है कि अगर कोई आलोक पुराणिक राहत समिति या आलोक पुराणिक ग़रीबी निवारण समिति या आलोक पुराणिक कैंसर सहायतार्थ कोष में आपसे रुपये मांगे तो अवश्य दें। ऐसी कई समितियाँ मेरे निर्देशन में काम करती हैं। और तो और आलोक पुराणिक मृत्योपरांत परिवार सहायता समिति वाले आपसे चंदा मांगने आयें, तो उन्हे भी भरपूर योगदान दें।

पर प्रशंसक होने के लिए इतना भर काफी नहीं है। इस सारी चंदेबाज़ी के बाद अगर मैं आपको कहीं जीवित, स्वस्थ और सानंद दिख जाऊं, फिर भी आप नाराज न हों, और दोबारा आलोक पुराणिक सहायतार्थ कोष में योगदान देने को तत्पर दिखें, तब ही मानूंगा कि आप मेरे प्रशंसक हैं।

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मंगलवार, 1 मई, 2007

राजेंद्र त्यागी का व्यंग्य : नेता का विराट स्वरूप

Rajendra Tyagiराजेन्द्र त्यागी पेशे से क़लम के सिपाही हैं। नुक्ताचीनी में माहिर हैं, सो व्यंग्य लिखने की मौलिक प्रतिभा उनमें होनी ही थी। नए प्रतीकों और रुपकों के ज़रिए अपनी बात कहने का उनका अलग अंदाज़ है। त्यागी जी के तीन व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं।

मौसम में ठण्डक थी। मगर उम्मीदवारों के मुँह से निकलती आश्वासन व वायदों की गरम हवाएँ, मौसम की सर्द हवाओं से रह-रह कर टकरा रहीं थी। इसलिए सर्द मौसम के बावजूद माहौल में गर्मी थी। चुनावी नारे आकाश में ट्रैफ़िक जाम की सी स्थिति पैदा किए हुए थे। जल-वायु, पृथ्वी-आकाश सभी चुनावाग्निसे तापायमान थे। जब संपूर्ण वायुमंडल ही चुनाव की बू से ओतप्रोत हो तो भला महामंडलेश्वर स्वामी अद्भूतानन्दजी महाराज व उनके भक्तगण ही उससे अछूते कैसे रह पाते। अत: भक्तजनों के आग्रह पर स्वामीजी ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते-करते नेता के स्वरूप का बखान करने लगे। भक्तजनों के आग्रह स्वरों श्रोत्रेद्रियों में प्रवेश करते ही स्वामीजीके मुखारबिंदु से निकला, नेता! 'नेति-नेति' अर्थात यह भी नहीं यह भी नहीं। फिर स्वामीजी बोले जिसका उद्भव ही 'नृ' धातु से हुआ हो उसका वर्णन शब्दों में करना दुष्कर कार्य है। शब्द ज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं और नेता असीम है। फिर भी हे भक्तजनों! सीमित शब्दावली में ही मैं नेता के असीम स्वरूप का वर्णन करने का प्रयास करता हूँ।

"जुगाड़" की तरह अपने प्रवचन को आगे खींचते हुए स्वामीजी बोले - हे भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, सर्वाकार है, निर्विवाद है, सद्चिदानंद है, जुगाड़ी है अर्थात सभी जुगाड़ों का स्रोत है।

नेता के विराट स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद स्वामीजी ने उसके एक-एक गुण का विस्तृत वर्णन कुछ इस प्रकार किया :

हे भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, वह राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त है। राजधानी से लेकर गाँव-देहात तक की गली-मौहल्ले की हर ईंट के नीचे वह विद्यमान है। हृदय निर्मल होना चाहिए घट-घट में नेता के दर्शन संभव हैं।

भक्तजनों, अब मैं नेता के सर्व-विवादित गुण का बखान करता हूँ। सर्व-विवादित यह गुण है उसका स्वरूप। आदिकाल अर्थात जब से सृष्टि में नेता नाम के जीव का उद्भव हुआ है, तभी से उसके स्वरूप को लेकर विवाद है। कहा जा सकता है कि नेता और उसका स्वरूप विवाद, दोनों का उद्भव व विकास साथ-साथ ही हुआ है।

हे भक्तजनों! विवादों के पार यदि देखा जाए तो नेता सर्वाकार है, बहुरूपी है। कभी-कभी उसे बहुरूपिया कह कर भी संबोधित किया जाता है। क्योंकि नेता लीलामय है, इसलिए भक्त ने उसके जिस रूप के दर्शन की इच्छा व्यक्त की नेता ने उसे उसी रूप में दर्शन दिये। उसके विभिन्न स्वरूप भक्त की भावना पर भी निर्भर करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है -
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देख तिन तैसी"
बहुरूपिया होने के बावजूद शास्त्रों में मूलतया उसके दो स्वरूपों का वर्णन प्रमुखता से मिलता है। आज के प्रवचनों में हम मुख्य रूप से इन्हीं दो रूपों की चर्चा करेंगे।

हे भक्तजनों! शास्त्रों को घोट कर यदि निचोड़ा जाए तो नेता का मूल स्वरूप निराकार ही साबित होता है। निराकार है, तभी तो जल-वायु और आकाश की तरह वह पात्र के अनुरूप आकार धारण कर लेता है, रंग बदल लेता है। निराकार है तभी तो वह घट-घट का वासी है और आड़ी-तिरछी उसकी टांग का आभस तभी तो प्रत्येक क्षेत्र में हो जाता है। स्नेह के वशीभूत भक्तजन कभी-कभी उसे घाट-घाट का जल ग्रहण कर्ता भी कहते हैं। दर्शन देकर नेता अक़्सर अंतर्ध्यान हो जाता है, हवा हो जाता है, इसलिए ही उसका एक नाम हवाबाज़ भी है। ये सभी लक्षण उसके निराकार स्वरूप का वर्णन करते हैं।

नेता के निराकार स्वरूप का वर्णन कर अद्भूतानन्दजी महाराज ने अपने प्रवचन पर अर्ध विराम लगाया। भक्तों ने अगला प्रश्न उठाया, "नेता जब निराकार है, तो दर्शन किसके?"
चिलम में दम लगाने की माफ़िक महाराज ने लंबी सांस खींची और फिर बोले, "प्रश्न महत्वपूर्ण है।"

हे भक्तजनों! नेता निराकार ही है। मगर जब-जब चुनाव सन्निकट होते हैं, भक्तों के आग्रह पर वह उम्मीदवार बनकर साकार रूप में अवतरित होता है। भक्तजनों यही कारण है कि चुनाव संपन्न हो जाने के बाद नेता अंतर्ध्यान हो जाता है। वास्तव में तब वह अपने निराकार रूप में चला जाता है। इसलिए तुच्छ जन को उसके दर्शन नहीं होते। मगर जो प्राणी भक्ति-भाव (पांव-पान-पूजा) के साथ उसके विराट स्वरूप के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं, ऐसे भक्तों को वह निराकार स्वरूप में भी दर्शन देता है।

भक्तजनों, सभी जुगाड़ों का आदि स्रोत होने के कारण नेता को जुगाड़ी भी कहा गया है। जुगाड़ उसकी प्रकृति है, उसकी माया है। सृष्टि के तमाम जुगाड़ उसी के जुगाड़ से संचालित हैं। जिसके सहारे वह संपूर्ण राजनैतिक सृष्टि का निर्माण करता है।

स्वामीजी! और यह भ्रष्टाचार?
अच्छाऽऽऽ, भ्रष्टाचार!
भक्तजनों, भ्रष्टाचार भी उसी शक्ति पुंज जुगाड़ का एक अंश है। हे भक्तजनों! जिस प्रकार जल से भरा कुंभ यदि जल ही में फूट जाए तो दोनों जल एक दूसरे में समा जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं। उसी प्रकार की गति जुगाड़ व भ्रष्टाचार की है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि भ्रष्टाचार जुगाड़ है और जुगाड़ भ्रष्टाचार। नेता प्रथम भ्रष्टाचार के लिए जुगाड़ करता है, फिर भ्रष्टाचार के सहारे चुनाव के लिए धन का जुगाड़ करता है और फिर उसके सहारे चुनाव में विजयश्री प्राप्त करने का जुगाड़। विजयश्री प्राप्त हो जाने के बाद सरकार बनाने के जुगाड़ में व्यस्त हो जाता है। ये सभी उसकी लीलाएँ हैं। ऐसी ही लीलाओं के माध्यम से संपूर्ण राजनैतिक सृष्टि की संरचना का जुगाड़ फिट हो जाता है। यह जुगाड़ ही की माया है कि नेता कभी नहीं हारता, हमेशा जनता ही हारती है।

नेता निर्विवाद है। दुनिया के संपूर्ण प्रपंच उसकी माया है, लीला है। मर्यादा स्थापना हेतु प्रपंच करना उसका परम कर्तव्य है। प्रपंच के माध्यम से वह लोकतंत्र वासियों को उनके कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराता है। क्योंकि वह कीचड़ में कमल की भांति, प्रपंच करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता। वह प्रपंच कर्म भी सहज भाव से करता है, इसलिए निर्विकारी है, निर्विवाद है, सभी विवादों से परे हैं।

नेता का असत्य भी सत्य हैं, क्योंकि सत्य के मानदंड, सत्य की परिभाषा परिवर्तनशील हैं, इसलिये समय के अनुरूप नेता ही सत्य के मानदंड व परिभाषा तय करता है। इसलिये ही शास्त्रों में नेता को सत् और जनता को असत् कहा गया है।

नेता चित् स्वरूप भी है। राजनीति की समस्त चेतना नेता ही से प्रवाहित है। नेता को शक्ति पुंज कहा गया है। लोकतंत्र के लोक और तंत्र दोनों ही का चेतना स्रोत नेता ही है। लोकतंत्र रूपी सृष्टि के संपूर्ण चक्र-कुचक्र नेता की ही माया से संचालित हैं। लोकतंत्र का जुगाड़ उसी की चेतना से गतिशील है। क्योंकि वह सत् है, चित् है, इसलिए वह आनंद स्वरूप है। वह आनंद स्वरूप है, इसलिए ही जनता दुखानंद रूप है। जनता का दुख ही नेता का आनंद है और उसका आनंद जनता का दुख है। यही लोकतंत्र का नियम है।

भक्तजनों क्योंकि नेता सत् है, चित्त है, आनंद है, इसलिये उसे सद्चिदानंद भी कहा गया है। इसके साथ ही हे भक्तजनों, आज के प्रवचनों पर अब विराम लगाते हैं। भक्तजनों, आओ अब नेता के उस विराट स्वरूप की आरती उतारे। धन्य-धन्य के सुर के साथ भक्तजन अपने-अपने स्थान पर खड़े हो कर आरती गुनगुनाने लगते हैं।

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सोमवार, 30 अप्रैल, 2007

विष्णु नागर की बुश पर चुटकियाँ

विष्णु नागर पेश से पत्रकार हैं - लेकिन व्यंग्यकार के रुप में भी उनकी अच्छी ख़ासी पहचान हैं। उनके पाँच व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। पेश हैं बुश पर उनकी कुछ चुटकियाँ :



एक-

आश्चर्य कि एक दिन बुश को अपने नाम से नफरत हो गई। उसने घोषणा की कि मैं अमेरिका का राष्ट्रपति जरुर हूं मगर मेरा नाम आज से जॉर्ज बुश नहीं है। लोगों ने सोचा कि अभी तक हम जॉर्ज बुश पर चुटकुले सुनाते थे,मगर अब उन्हें सुनसुनकर यह खुद भी इतना इँटेलीजेंट हो गया है कि अपने पर चुटकुले सुनाने लगा है। बाद में बुश को भी यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि दरअसल यह चुटकुला था। कृपया कोई इसका सीधा अर्थ न निकाले। इसके बावजूद,लोगों ने जब इसका कोई और अर्थ नहीं निकाला तो मामला यहीं खत्म हो गया। बुश बेचारा इससे ज्यादा लोगों की मदद भी क्या कर सकता था!

दो-
बुश बेचारे को पता नहीं था कि औरों की तरह वह भी एकदिन मर जाएगा। वह तो किसी ने उसे यह बद्दुआ दी तो उसके मन में शंका पैदा हुई। उसने अपने सहायको से पूछा कि क्या यह सच है कि मैं एक दिन मर जाउँगा? सहायकों ने कहा कि सर, जब तक आप राष्ट्रपति हैं,बेफिक्र रहिए, आप नहीं मरेंगे। तो उसने पूछा कि क्या एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं राष्ट्रपति नहीं रहूंगा? बुश के सहायकों को यह सुनकर बहुत हंसी आई, पर उसे रोकते हुए उऩ्होंने कुछ नहीं कहा। तब बुश ने कहा कि इसका अर्थ तो यही निकला कि मैं एक दिन मर जाऊंगा। उसके एक चतुर सहायक ने कहा, "सर,सच तो यह है कि इराक के कारण आप अमर हो जाएँगे।" यह सुनकर बुश खुश हो गया और उसने आदेश दिया कि मनमोहन सिंह ने दिल्ली से जो मिठाई भिजवाई है,वो तुरंत पेश की जाए। आज मुझे पता चल गया है कि मैं मरुंगा नहीं, अमर हो जाउँगा।

तीन-
बुश एक दिन राष्ट्रपति नहीं रहा। उसने अपने एक सहायक से पूछा - "भैये ये तो बता, अब ये दुनिया कैसे चलेगी? " सहायक अभी भी उसका वफादार था।उसने जवाब दिया, "भगवान भरोसे चलेगी और क्या?" बुश ने जवाब दिया - "यही तो मुश्किल है।भगवान बेचारा खुद मेरे भरोसे चल रहा है।"

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शुक्रवार, 27 अप्रैल, 2007

राकेश कायस्थ का व्यंग्य : राष्ट्रीय चुंबन नीति

Rakesh Kayasthaवरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के नज़रिए और बोलने के अंदाज़ में ही व्यंग्य है - लिहाज़ा उनका व्यंग्य लिखने का अपना अलग अंदाज़ है। अमर उजाला से लेकर दैनिक ट्रिब्यून तक कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उनके १५० से ज़्यादा व्यंग्य प्रकाशित हो चुके हैं। व्यंग्य की किताब जल्द बाज़ार में आने को है।

किस ग्रह योग का प्रभाव है यह कहना मुश्किल है, लेकिन अधर अचानक अधीर हो उठे। राजनीतिक कार्यक्रमों और सांस्कृतिक जलसो से लेकर पांच सितारा पार्टियों तक हर जगह से ख़बर आने लगी.. अरे फिर चूम लिया। .. दिन दहाड़े। आंखे फाड़-फाड़कर टीवी देखता हिंदी पट्टी का आठ साल बच्चा भी स्मूच और लिप लॉक की परिभाषा समझने और याद करने लगा।

लबो की गुस्ताखी, अधरो की आकुलता और होठो की हठधर्मिता ने उन लोगो को परेशान कर दिया जो सार्वजनिक जीवन में तो पारदर्शिता के हिमायती है, लेकिन उन्हे ये लगता है कि कुछ ख़ास किस्म के `लेन-देन' बिना गवाहों के भी हो सकते हैं। मुंबई से लेकर मुजफ्फरनगर और पटना से पालनपुर तक, जगह-जगह उन लोगों के पुतले फूंके जाने लगे जिन्होने भारतीय संस्कृति का अपमान किया है। `बोल की लब आज़ाद है', लेकिन याद रख लबो की आज़ादी सिर्फ बोलने के लिए है। चिलचिलाती गर्मी में चुंबन विरोधी नारा लगाते-लगाते होठो पर पपड़ियां पड़ गईं लेकिन हौसले कम नहीं हुए। जो हाय शिल्पा करते थे वो हाय-हाय शिल्पा करने लगे। चुंबन पर बुक्का फाड़ विलाप की धांसू तस्वीरें हर जगह छपी और नारे लगाते हुए कई लोगों के फोटू भी टीवी पर पहली बार आये। कुछ लोगों ने तो यहां तक कह डाला कि नशाबंदी के बाद इतना सार्थक सामाजिक आंदोलन इस देश में पहली बार हुआ है।

आंदोलनकारी सड़कों पर गला फाड़ते रहे, तो वातानुकूलित कमरों में भी राष्ट्रीय चुंबन चिंतन अपने तरीके से जारी रहा। एड्स एवेयरनेस कार्यक्रम में रिचर्ड गेर ने शिल्पा के साथ जो कुछ किया वह क्या था-- चुंबन, बल का अतिकार, शरारत या फिर ये बताने कोशिश- कि क्या-क्या करने पर एड्स नहीं होता है। इन सवालों पर बहस जारी है। अगर कोई टीवी चैनल इन सवालों पर एसएमस पोल कराये तो एक लाख से ज्यादा जवाब आने की गारंटी है। चुंबन के बढ़ते वाकयों ने इससे जुड़े चिंतन का दायरा भी फैला दिया है। अलग-अलग कोण से दिखाई जानेवाली तस्वीरों ने विश्लेषण के नये आधार तैयार किये। गेर ने शिल्पा को जकड़ा या शिल्पा ने खुद को ढीला छोड़ दिया? गेर का शिल्पा को ताबड़तोड़ चूमना एक स्वभाविक घटना थी या उसमें पश्चिमी साम्राज्यवादी मानसिकता के सांकेतिक अर्थ ढूंढे जा सकते हैं। शिल्पा का समर्पण भारतीय मेहमाननवाजी का नमूना था या फिर हॉलीवुड का टिकट पाने का ज़रिया? ऐसे लोगो की तादाद कम नहीं जिन्होने चुंबन के तस्वीरों को सैकड़ों बार देखा और हर बार ये पाया कि ऐसे दृश्य कतई देखे जाने योग्य नहीं हैं। यह बेहद दृश्य उत्तेजक और अश्लील हैं, अगर ज्यादा लंबे समय तक इसे देखा गया, तो शीघ्र ही उनका ही नहीं पूरे समाज का पतन हो जाएगा। मामला अदालत तक पहुंच गया।

सार्वजनिक चुंबन पर राष्ट्रीय चिंतन का सिलसिला पहले से ही चला आ रहा है। करीना और शाहिद के लिप-लॉक के एमएमएस प्रसाद की तरह घर-घर बंटे तो कुछ उम्रदराज सुधी संपादकों तक ने इसका संज्ञान लिया। तस्वीरें देखीं, विचार किया और संपादकीय लिखा। मीका-राखी एपिसोड में जो कुछ हुआ, टीवी चैनलों ने उसका फैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया। इस बात का भरपूर ख्याल रखा गया कि दर्शक तथ्यों के ठीक से समझकर विचार कर सकें, लिहाज़ा तीस सेकेंड का क्लिप घंटों चलाया गया और अब भी चलाया जाता है। एक महिला मुख्यमंत्री और एक मशहूर महिला उद्योगपति ने एक-दूसरे का चुंबन लिया तो एक राज्य की सरकार हिल गई। विपक्ष ने शोर मचाया और आलाकमान तक को मामले पर गौर करना पड़ा। मामला जैसे-तैसे ठंडा पड़ा, लेकिन शिल्पा-गेर प्रकरण ने इसे फिर जिंदा कर दिया। पार्टी के नेताओं ने सफाई दी- गेर तो ग़ैर है, यहां मामला विदेशी है। शिल्पा ने जो कुछ किया उसके तार सीधे-सीधे अमेरिका, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ से जुड़ते हैं। लेकिन हमारा चुंबन पूरी तरह स्वदेशी है।

राष्ट्रीय चुंबन चिंतन आगे बढ़ा तो कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि इस मुद्दे पर भी आम-सहमित बनाई जाना चाहिए। यानी विदेश नीति और अर्थ नीति की तरह एक राष्ट्रीय चुंबन नीति भी होनी चाहिए। एक स्पष्ट आचार संहिता हो और एक मॉनीटरिंग कमेटी भी। मामले लगातार बढ़ रहे हैं, इसलिए निगरानी के लिए अलग से एक मंत्रालय भी बनाया जा सकता है। विपक्ष के कुछ सदस्यों के तेवर तीखे हैं, उन्होने साफ कह दिया है- अगर आगे एक भी सार्वजनिक चुम्मा हुआ, तो सरकार से श्वेत पत्र जारी करने को कहेंगे।

राकेश कायस्थ

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मंगलवार, 24 अप्रैल, 2007

हास्य कविता : प्रॉमिस है खतरनाक गोली

Bollywood Starlet Jia Khan / Jiya Khan pic from Nishabdएक दिन बच्चे के प्यार में,
जो उसके सामने
हमने "प्रॉमिस" नाम की खट्टी गोली गटकी
थोड़ी देर में लगा पता कि वो तो गले में अटकी
दरअसल, प्रॉमिस है एक बड़ी ही खतरनाक गोली का नाम
पिल्स ज्यादा हो जाएं तो है मौत का सामान
सुना नहीं है आपने?
रामायण काल में राजा दशरथ खा बैठे थे ये गोली..... कैकेयी के आगे
न निगलते बनी, न उगलते, सो सीधे स्वर्ग साधे
बहरहाल, खा के गोली हमने बच्चे से उसके जन्मदिन पर वादा कर दिया
वो था कि प्रॉमिस की आड़ में सिर पर चढ़ गया
दूसरे शब्दों में बात कुछ यूं थी जैसे
घर आए मेहमानों से दिखाया हो आपने कुछ ज्यादा प्यार
और वो उसी मोहब्बत में मांग बैठे मोटी रकम उधार
हमने कहा बोलो क्या चाहिए?
फुटबॉल, बैटबॉल ,साइकिल या उसके पहिए
वो बोला,ये सब जेब में धरिए
मुझे तो आप बस फिल्म ले चलिए
हमनें कहा - हां क्यों नहीं, बोलो कौन सी फिल्म देखोगे भइए
वो बेखटक बोला-तो गौर से सुनिए
निशब्द....
अब अपना दिमाग चकराया. सिर भन्नाया
बेटा, वो बकवास फिल्म है, न उसमें अमिताभ बूढ़ा है, न कोई बढ़िया कहानी है
शहर के किस थिएटर में लगी है, ये बात भी अंजानी है
अब बेटे ने अपने फिल्मी ज्ञान का धुआँधार प्रदर्शन किया
पापा,बिग बी हैं फिल्म के हीरो
और हीरोइन है जिया खान
रही बात कहानी की तो,उसमें है एक ताजगी
अभी तक देखा होगा आपने हीरो हीरोइऩ के बीच प्यार का चक्कर
लेकिन इस फिल्म में तो अपनी बेटी के सहेली से ही हैं हीरो घनचक्कर
और पता थिएटर का...
आप कहें तो बताए देता हूं सिलसिलेवार
अब हमें औऱ गुस्सा आया
फिर भी बालक को समझाया
बेटा, इस फिल्म के सब्जेक्ट में सचाई नहीं है...
और फिल्म में कुछ सीन भी अच्छे नहीं हैं
अब, अचानक बालक समीक्षक की मुद्रा में आ गया
फिर ताव खा गया
बोला, सब्जेक्ट तो बहुत जोरदार है
फिल्म में प्यार ही प्यार है
रही बात सीन्स की तो
किस सीन की बात कर रहें हैं आप
उस नहाने वाले सीन की-जिसमें जिया पाइस से खुद पर पानी डालती है
या
उस सीन की, जिसमें बिग बी टंगड़ी मारकर जिया को गिरा देते हैं
चुप बे जिया के बच्चे
बकवास मत कर
ये सब बातें तुझे किसने बतायीं?
घटिया फिल्म की जानकारी कहां से हथियाई?
बोला, पापा परसो फी-की न्यूज वाले
एक विंडो में ये सीन्स और दूसरे में इंटरव्यू दिखा रहे थे
और बीच-बीच में
सेक्स, अश्लीलता और नैतिकता जैसे शब्द बडबड़ा रहे थे
मैं सब समझता हूं पापा
आप क्यों घबरा रहे हैं
एडल्ट फिल्म है न
इसलिए सर्दी में पसीना बहा रहे हैं
लेकिन, आप प्रॉमिस की बात भूल रहे हैं
और बतौर मेरी टीचर,अब आप थूक के चाट रहे हैं
इस ज्ञान प्रदर्शन के बाद
पहले हमें अपनी अज्ञानता पर शर्म आयी
फिर अपनी उड़ी हवा हवाई
अचानक हम बुदबुदाए,वाह रे मीडिया दुहाई हो दुहाई
पहले बच्चे एडल्ट फिल्में सिनेमाघरों में देखते थे,
इसलिए डरते भी थे
देख लेता था कोई परिचित तो जमकर पिटते भी थे
लेकिन अब तो बैडरुम तक हो रहा है नग्नता का फूहड़ व्यापार
यही बिकता भी है शायद, इऩसे ही मिलते हैं विज्ञापन औऱ बढती मांग जोरदार
ये पहले सोचा, फिर होके शर्मसार
हमने मन ही मन सोचा
अगर बच्चे को फिल्म दिखा भी दी जाए
तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा
जिन्दगी के दोराहे पर शायद,वो बना ले हमें हमराज
इससे हमारे बीच विश्वास ही बढ़ेगा
विश्वास ही बढ़ेगा।


- पीयूष

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रविवार, 22 अप्रैल, 2007

भूत मैनेजमेंट, नाग अरेंजमेंट

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं।




इधर मामला टेंशनात्मक हो गया है।
हर बच्चा टीवी पत्रकार बनना चाहता है। पर यह उन्हे यह समझाना मुश्किल है कि अब टीवी पर पत्रकार का स्कोप उतना नहीं है, जितना नाग-नागिन, भूत-प्रेतों का है। अगर आप राखी सावंत या राजू श्रीवास्तव नही हैं, तो टीवी न्यूज में कैरियर मुश्किल है, यह बात कई समझाने की कोशिश करता हूं। बच्चे नहीं समझते। पब्लिक की डिमांड पर इस खाकसार ने एक नया मीडिया कोर्स डिजाइन किया है। इच्छुक प्रवेश के लिए 1 लाख रुपये का ड्राफ्ट भिजवायें।
कोर्स में पांच पेपर होंगे।
पेपर नंबर एक भूत-चुडैल मैनेजमेंट
यह पेपर इधर बहुत ही जरुरी हो गया है। इधर तमाम चैनल नौकरी देने से कहते हैं कि शमशान से कोई भूत पकड़ ला सकते हैं, तो आपकी नौकरी पक्की।
इस पेपर को पढ़ने के बाद कैंडीडेट इतनी काबलियत हासिल कर लेंगे कि वह कह सकें –अजी शमशान से क्या लाना, मैं तो खुद भी भूत हूं।
इस पेपर को पढ़ाने के लिए शमशान के अघोरी बतौर गेस्ट लेक्चरर आयेंगे।
जिन कैंडीडेटों की फैमिली हिस्ट्री दिल की बीमारी की रही है, वे कृपया इस कोर्स में एडमीशन न लें।
यह पेपर प्रयोगात्मक रुप से पढ़ाया जायेगा, इसकी क्लास पुराने किलों, हवेलियों, श्मशान, कब्रिस्तान में ही होंगी। पेरेंट्स कृपया ध्यान दें, जो अपने बालक और बालिकाओं को रात के दो बजे शमशान में न भेज पायें, वे कृपया अपने बच्चों को इस कोर्स में न भेजें.
पेपर विवरण
भूतों के प्रकार, भूतों की परिभाषा, नये और पुराने भूतों के बीच अंतर
गांव के भूतों, शहरों और महानगरों के भूतों के टेस्ट में अंतर
कब्रिस्तान और शमशान के भूतों के धार्मिक और सांप्रदायिक अंतरों का विश्लेषण
भारतीय भूत और ग्लोबल भूत
भूतों के अफेयर, चुड़ैलों की स्टाइलें।
पेज थ्री चुड़ैलें
नोट-इस पेपर को पढ़ने वाले हर छात्र को सत्र के अंत मे एक भूत पकड़कर दिखाना होगा, औऱ उस भूत से तरह-तरह के काम कराने की महाऱथ हासिल करनी होगी।
-सजेस्टेड रीडिंग्स-
-भूत स्टाइल्स एंड प्रोफाइल्स-लेखक अघोरी टनटनानंद
-क्यूट चुड़ैलें-लाइव्स एंड हिस्ट्री-लेखक भूताशिकानंद
निम्नलिखित हिट टीवी कार्यक्रमों की विशेष केस स्टडी भी कोर्स का हिस्सा होंगी-
कातिल कब्रिस्तान, चौकन्नी चुड़ैल, मौत का धुआं, मुरदे की वारदात, मुरदा शहर, जिंदा कब्रिस्तान, श्मशान में पेज थ्री पार्टी, एनआरआई भूतों के लव अफेयर, ब्यूटीफुल चुड़ैलों के शातिर खेल।

पेपर नंबर दो-नाग मैनेजमेंट
चैनलों पर भूतों के बाद सबसे ज्यादा टीआरपी अब नागों की आ रही है। इस पेपर के जरिये बच्चों के बताया जायेगा कि इच्छाधारी नाग और गैर-इच्छाधारी नाग क्या होते हैं। इस पेपर को पढ़ने के बाद कैंडीडेट खुद भी इच्छाधारी नाग हो सकता है।
इस पेपर के प्रोफेसर विख्यात सपेरे ही होंगे।
छात्र और छात्राओं को सपेरों की ड्रेस पहनकर गांव-जंगलों में नागों की तलाश में जाना पड़ेगा।
जो पेरेंट्स अपने बालक और बालिकाओं को सपेरों की ड्रेस में नागों की तलाश में असम के जंगलों में भेजने में समर्थ नहीं हैं, वे कृपया अपने बच्चों को इस कोर्स में नहीं भेजे। पत्रकारिता बहुत मुश्किल काम है, यह बात ऐसे ही नहीं कही जाती।

पेपर विवरण-
नाग और नागिनों के प्रकार
अब तक नागिनों पर सारी फिल्में-विशेषत नगीना, नागिन( सारी), मैं तेरी दुश्मन तू दुश्मन तेरा, कोबरा, ब्लैक कोबरा, नागिन का डंक
नागों की टीवी में भूमिका
नागों के रंग-ढंग
नाग और टीआरपी
देशी और विदेशी नागिनें
नागों का मेकअप,
नागों को कैमराफ्रेंडली कैसे बनायें
नागों से इंटरव्यू में सावधानियां
इच्छाधारी नागों की समस्याएं
नागों से बातचीत(अगर आप खुद भी नाग हैं)
नागों से बातचीत(अगर आप नाग नहीं हैं)
सजेस्टेड रीडिंग्स-
नाग हिस्ट्री एंड फ्यूचर-स्वामी नागानंद
टीवी फ्रेंडली नाग-न्यू ट्रेंड्स एंड एनालिसिल-सपेरा नृत्यानंद
सत्र के अंत में हर छात्र और छात्रा को एक धांसू नाग या नागिन पकड़कर दिखाना होगा। उन छात्रों और छात्राओं को विशेष नंबर दिये जायेंगे, खुद ही इच्छाधारी बन पाने में समर्थ होंगे।

पेपर नंबर तीन- लतीफा प्रेजेंटेशन
नाग, भूत के बाद सबसे ज्यादा टीआरपी लतीफों की होती है।
हम कोशिश करेंगे कि प्रोफेसर राजू श्रीवास्तव, प्रोफेसर एहसान कुरैशी खुद इस पेपर को पढ़ाने के लिए हाजिर हों।
इस पेपर को पढ़ने के लिए छात्र-छात्राओं को ऐसी ड्रेस पहनकर आनी पड़ेगी, जिसे देखकर पब्लिक हंसे। जो पेरेंट्स ड्रेस सेंसिटिव हैं, वे अपने बच्चों को इस कोर्स के लिए ना भेजें।
पेपर विवरण
लतीफों का इतिहास,
अश्लील चुटुकलों का टीआरपी में योगदान
घटिया चुटकुलों की वैबसाइट
चुटकुलों को सुनाने की स्टाइलें
चुटकुला चिंतन कैसे करें
एसएमएस चुटकुला लेखन
सजेस्टेड रीडिंग्स-
घटिया चुटकुलों का धांसू प्रजेंटेशन-प्रोफेसर राजू श्रीवास्तव
उलटे-पुलटे चुटकुले-प्रोफेसर जसपाल भट्टी
स्टाइल में हंसाओं-प्रोफेसर राखी सावंत
सत्र के अंत में हर छात्र-छात्रा को पांच नये चुटकुलों को पेश करना होगा। सबसे ज्यादा घटिया चुटकुले बनाने वालों को विशेष अंक दिये जायेंगे।

पेपर नंबर चार-लव-क्राइम-डाका-ठगी स्टडीज
इस पेपर में वो आइटम पढ़ायें जायेंगे, जिनकी विकट डिमांड हैं।
पेपर का उद्देश्य यह है कि इस पेपर को पढ़ने के बाद बच्चे और बच्चियां वैसे हिट टीवी कार्यक्रम बनाने सीख जायें, जैसे अभी टीवी पर आ रहे हैं-यथा रात की वारदात, कोहरे के चेहरे, एक चाकू पांच सौ डाकू, कातिल बाथरुम, सन्नाटे की सनसनी आदि –आदि।
इस पेपर को पढ़ाने के लिए हमने सरकार से अनुरोध किया है कि वह जेल से कुछ ऐसे अपराधियों को रिहा करे, जो लव त्रिकोण, मर्डर, वगैहर के मामले में बंद हैं। प्रेम त्रिकोण की डिमांड सबसे ज्यादा है।
पेपर विवरण
प्रेम त्रिकोण-इतिहास और वर्तमान
ऐतिहासिक प्रेम त्रिकोण के मामले
प्रेम त्रिकोण के सारे कोण
यश चोपड़ा की सारी पुरानी फिल्मों की स्टडी जैसे कभी-कभी, दाग वगैरह
झूठ का प्रेम में योगदान
प्रेम औऱ ठगी का संबंध
ठग बनने की प्रक्रिया में प्रेम संबंधों का योगदान
चार्ल्स शोभराज के जीवन पर विशेष अध्ययन
हर्षद मेहता के जीवन की केस स्टडी
नटवरलाल की केस स्टडी

सजेस्टेज रीडिंग्स-सदी का महानायक चार्ल्स शोभराज-प्रोफेसर प्रेम ठगानंद
प्रेम के गेम्स- प्रोफेसर जोशो
सत्र के अंत में छात्रों और छात्राओं से उम्मीद की जायेगी कि वे कम से कम पांच चक्कर चला चुके होंगे। एक ही प्रेम में यकीन करने वाले परंपरागत संकीर्णमना पेरेंट्स अपने बच्चों को इस कोर्स में न भेजें। पत्रकारिता अत्यंत ही दुष्कर कार्य है, यह बात ऐसे ही नहीं कही जाती है।

पेपर नंबर पांच-सेलिब्रिटी स्टाइल्स
इसमें भी वह सब पढ़ाया जायेगा, जिसकी विकट डिमांड है।
यह पेपर पढ़ाने के लिए सेलिब्रिटीज और सेलिब्रिटाज आयेंगे।
पेपर विवरण-
सेलिब्रिटाज और सेलिब्रिटीज का नाश्ता
सेलिब्रिटाज और सेलब्रिटीज का खाना
सेलिब्रिटाज और सेलिब्रिटीज का डिनर
सेलिब्रिटाज और सेलिब्रिटीज का मुस्कुराना
सेलिब्रिटाज और सेलिब्रिटीज के लव अफेयर
सेलिब्रिटाज और सेलिब्रटीज और क्राइम

नोट-इस कोर्स को करने के लिए छात्र और छात्राओं को सिर्फ और सिर्फ इन विषयों पर फोकस करना चाहिए। जो छात्र या छात्रा राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र ऐसी किसी अगड़म-बगड़म चीजों को पढ़ता हुआ पाया जायेगा, उसे कान पकड़कर बाहर निकाल दिया जायेगा।
संपर्क करें-आलोक पुराणिक
स्कूल आफ न्यू मीडिया, ठग गली, चालूपुरम्, दिल्ली -11001420

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रविवार, 15 अप्रैल, 2007

व्यंग्य-लिज़ खेलें फुटबॉल

जनाब बौखलाए हुए हैं। तमतमाए हुए हैं। चचा ग़ालिब से सीख लेकर आंखों में
खून उतार लिया है। अमेरिका-ब्रिटेन है, इसलिए मुठ्ठियां भींच के खड़े
हैं, भारत होता तो दो-चार कनपटी पर भी जड़ देते। तेरी ऐसी की तैसी
साले........????

भाई साहब के साथ अपनी पूरी सहानुभूति है। बेटा सुंदरी की मुहब्बत में बाप
को दुत्कार दे तो लहू उबलना लाज़िमी है। लेकिन, दुल्हन लिज़ हर्ले जैसी
खूबसूरत हो तो लड़के की भी क्या गलती ? शादी में फोटो खींचने का ठेका एक
विदेशी कंपनी को दिया गया। कंपनी ने सुंदर सुंदर फोटो खींचकर बेचने के
लिए मोटी रकम अदा की। अब, वो गोरी चमड़ी वालों के बीच आलतू-फालतू इंडियन
क्यों देखना चाहेगी ? जनाब अरुण नायर ये बात समझते थे। उन्होंने अपने
मां-बाप और देशी रिश्तेदारों को अलग बैठा दिया। कहा-जाओ,खाओ,पीयो, पर
यहां बीच में मत आओ। लेकिन, भाई विनोद नायर ये बात नहीं समझे। उखड़ गए।
बेटे को गुस्से में संपत्ति से ही बेदखल कर डाला। अब, बताइए, ये कोई बात
है भला ?

उधऱ,मोहतरमा अलग रोना रो रही हैं। उऩका कहना है कि खूंसठ सनकी बुढ्ढे के
चक्कर में पूरा इंडियन रीति को फॉलो किया। लेकिन, विनोद ने मेरा दिल
तोड़ा है । मैंने अरुण से पहले ही कहा था कि घरवालों से दूर रहकर निपटा
लो पूरा प्रोग्राम।

मुझे तीन दृश्य अचानक दिखायी दे रहे हैं-
पहला सीन फ्लैश बैक वाला है-
लिज़ हर्ले और अरुण नायर की टीमें जोधपुर के उम्मेद पैलेस में क्रिकेट
खेल रही हैं। लिज़ हर्ले की टीम में गोरी चमड़ी वाले खिलाड़ी है। अरुण की
टीम में भी गोरी चमड़ी वाले विदेशी दोस्त ही हैं। देशी रिश्तेदार और
दोस्त ग्राउंड के बाहर तालियां बजाने के लिए बैठाए गए हैं।

दूसरा सीन फ्यूचर का है-
इस बार खेल फुटबॉल का है। पूरा मीडिया तालियां बजा रहा है। लिज हर्ले गोल
पर गोल दागे जा रही हैं। गोल कीपर गेंद लपक नहीं रहा। पर फुटबॉल कौन ?
अरुण नायर। जी हां,अरुण नायर फुटबॉल बने हुए हैं। जमीन-जायदाद पिता ने
छीन ली। कुछ बचा नहीं तो लिज हर्ले ने भी फुटबॉल बना डाला। "अबे,शादी
करने का शौक है-इसलिए तुझसे शादी की थी। दो बार पहले की थी-लगा कुछ
इंडियन-विंडियन हो जाए-इसलिए तुझसे की। चल, अब निकल ले। चौथा प्रस्ताव
वेट कर रहा है।"

तीसरा सीन भारतीय अखबारों-चैनलों का है-
लिज और अरुण की ख़बरें फिर सुर्खियों में हैं। पहले बेगानी शादी में
अब्दुल्ला दीवाना था, अब बेगाने तलाक में दीवाना हो लिया है।

-पीयूष मोहन पांडे

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शुक्रवार, 13 अप्रैल, 2007

"मस्ती की बस्ती" अमर उजाला में

बड़े आकार में देखने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें।

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गुरुवार, 12 अप्रैल, 2007

विष्णु नागर का व्यंग्य : महत्वपूर्ण होना

विष्णु नागर पेश से पत्रकार हैं - लेकिन व्यंग्यकार के रुप में भी उनकी अच्छी ख़ासी पहचान हैं। उनके पाँच व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। पेश है "महत्वपूर्ण होने" की मानसिकता पर यह व्यंग्य :

समाज में महत्वपूर्ण होना थोड़ा मुश्किल तो है मगर इतना मुश्किल भी नहीं है कि दूसरे होते चले जायें और आप टापते रह जायें। बस अपने को पहचानने की ज़रूरत है। एक बार अपने को पहचानिये कि इनमें आप कौन हैं और हो जाइये महत्वपूर्ण - मसलन बाक़ी अंधे हों और संयोग से आप काने हों तो समझिये आप हो गये महत्वपूर्ण। आपको भाषण देना आता है और दूसरों को नहीं आता, तो बस आप हो गये महत्वपूर्ण। आपके दादा या नाना या उनका कुल, गोत्र या जाति तथाकथित रूप से महत्वपूर्ण है तो बस आप हो गये - महत्वपूर्ण। आप उस परिवार के सदस्य हैं जिसमें किसी भी कारण से कोई आज़ादी की लड़ाई के दौरान जेल भेज दिया गया था तो आप हो गये महत्वपूर्ण, क्योंकि आप स्वतंत्रता सेनानी के परिवार के सदस्य हैं। आप खूब खाते हैं और अपना ही खाते हैं और अपने लिए ही खाते हैं मगर इतना खा लिया है कि आपका वज़न हो गया है 400 पौंड, तो समझ लीजिये कि आप हो गये महत्वपूर्ण।

मान लीजिये किसी आनुवांशिक या अन्य कारण से - जिसमें आपका कोई दोष नहीं है, आप साढ़े छह फ़ुट के हो गये तो आप हो गये महत्वपूर्ण। कुछ लोग इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उन्होंने लाटरी ख़रीदी और वह खुल गयी जो कि किसी-न-किसी के नाम खुलनी ही थी तो वह हो गये..... कुछ इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे खुलेआम घूसख़ोरी करते हैं मगर पकड़े नहीं जाते, तो जब तक पकड़े नहीं जाते महत्वपूर्ण रहते हैं और उसके बाद और महत्वपूर्ण हो जाते है, क्योंकि दुनिया को पता चल जाता है कि इनके पास कहाँ-कहाँ और क्या-क्या है। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि किसी तरह उन्होंने कुछ देदिवाकर कार का वीआईपी नंबर हासिल कर लिया है या किसी विधि उन्होंने अपनी कार या स्कूटर पर प्रेस का स्टिकर लगवा लिया है। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उन्होंने जीवनभर सरकारी दफ़्तर में हरामख़ोरी की और कुछ लोग इसलिए कि खुद महत्वपूर्ण नहीं होते मगर महत्वपूर्ण लोगों के दरवाज़े पर बिलानागा खड़े रहते हैं। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि किसी महत्वपूर्ण आदमी के चपरासी या क्लर्क या नाई या लठैत हैं।

कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे खाने में नमक नहीं लेते और पीने में शराब के अलावा कुछ नहीं लेते। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि दारू पी लेते हैं मगर चाय किसी हालत में नहीं पीते या वे अल्लमगल्लम सब कुछ खा लेते हैं मगर पालक नहीं खाते। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उनके रिश्तेदार आजकल मुंबई या दिल्ली या इससे भी बेहतर ब्रिटेन या अमेरिका में रह रहे हैं (हालाँकि उन्हें क़तई नहीं पूछते) और कुछ इसलिए कि उन्हें कभी सिरदर्द या ज़ुक़ाम नहीं होता। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि जंगल में नित्यकर्म के लिए गये थे और संयोग कि उन्हें शेर दिख गया और शेर के कारण उनका नित्यकर्म भले ही बाधित हो गया हो मगर शेर ने उन्हें खाया नहीं। कृपा शेर ने की और महत्वपूर्ण हो गये वे। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उनका दावा है कि उनके पास इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि पश्चिम से भी पहले भारत ने वायुयान का आविष्कार कर लिया था। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उन्होंने चार शादियाँ की क्योंकि संयोग से या संयोग के बग़ैर उनकी एक के बाद एक बीवी मरती गयी और यहाँ तक कि चौथी भी मर गयी और कुछ इसलिए कि वे दावा करते हैं कि शादी किये बग़ैर ही उनका काम चल जाता है।

कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे हमेशा कलफ़दार कुर्ता-पायजामा पहनकर ही घर से बाहर निकलते हैं और कुछ इसलिए कि उनके पिता ने उनका नाम जवाहर लाल या अटल बिहारी या दिलीप कुमार रख दिया था। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि ग़लती से उनकी शक़्ल कुछ-कुछ राष्ट्रपिता से मिलती है (जिसका अर्थ यह है कि बहुत कुछ नहीं मिलती) और कुछ इसलिए कि उन्होंने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ करने की सार्वजनिक चुनौती दी थी और शंकाराचार्य ने उसका कोई जवाब नहीं दिया था, जिसका अर्थ उन्होंने यह लग लिया कि शंकारचार्य उनसे डर गये। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे चार किलो गुलाबजामुन खा लेते हैं या तीन किलो रबड़ी पी जाते हैं। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि चोर हैं और पुलिस की सिक्युरिटी में चलते हैं और कुछ इसलिए कि उन्होंने कभी किसी अंग्रेज़ से हाथ मिलाया था और उसने उनसे पूछा था कि 'हाऊ डू यू डू' और इन्होंने इसके जवाब में अपना नाम बता दिया था। कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे फ़रार घोषित होकर आराम से घर में रहते हैं और कुछ इसलिए कि रोज़ सुबह चार बजे उठकर नहाते हैं और हनुमान चालीसा का पाठ
करते हैं। कुछ इसलिए कि वे रामलीला में हमेशा हनुमान बनते हैं और कुछ इसलिए कि उनकी भैंस 20 किलो दूध देती है, कुछ इसलिए कि स्वपाकी हैं और किसी दूसरे के गिलास में पानी तक नहीं पीते और कुछ इसलिए कि उनके जितनी लंबी चोटी इस इलाक़े में किसी की नहीं है। कुछ इसलिए कि जहाँ भी जब भी जाते हैं हाथ में डंडा अवश्य रखते हैं और कुछ इसलिए कि जेब में माचिस या चाकू ज़रूर रखते हैं। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि बीस बार ज़मानत जब्त होने के बावजूद वे चुनाव लड़ते हैं और कुछ इसलिए कि हर बार अलग-अलग पार्टी से चुनाव लड़कर भी जीत जाते हैं।

तो बताइए आप इनमें से किस प्रजाति के हैं और किसी के नहीं हैं तो भी फ़ौरन अपनी प्रजाति को संगठित कीजिये, ईश्वर आपकी मदद अवश्य करेगा क्योंकि उसका काम ही आप जैसों की मदद करना है।

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सोमवार, 9 अप्रैल, 2007

व्यंग्य : च्यवनप्राश इनक्वायरी कमीशन

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैं। आलोक जी ने यह व्यंग्य ख़ास तौर पर "मस्ती की बस्ती" के लिए लिखा है।



पवार बैठे हैं, चैपल आये हैं-
चैपल रिपोर्ट पेश कर रहे हैं-देखिये सर पूरी टीम कोच सर की नहीं,सिर्फ स्पांसर की सुनती है। कई प्लेयर तो ऐसे हैं कि उन्हे चाय पेश करो, तो पूछते हैं स्पांसर कौन। बनियान पहनने से पहले पूछते हैं स्पांसर कौन। अभी उस दिन एक सीनियर बैट्समैन बंगलादेश वाले मैच में, जब बैटिंग करके, सौरी जब बैटिंग नहीं करके आया, तो मैंने उससे बताया कि घर से फोन आय़ा था। आपकी पत्नी ने बहुत धांसू काम किया है, एक प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया है। दो मिनट तो वो रहा साइलेंट और मौन, फिर पूछने लगा कि छोड़ो ये बताओ स्पांसर कौन। सर, अब मैं नहीं चला पाऊंगा।
शऱद पवार-देखिये ये अंदर की बात है, बाहर नही जानी चाहिए।
चैपल-सर आप भी क्या किसी एड के हिसाब से बोल रहे हैं।
शरद पवार मुस्कुराते हुए।

पवार और द्रविड़
पवार –प्राबलम क्या है। अब तुम लोगों के सामने नेक्स्ट टारगेट क्या है। कुछ सोचा, अगला कंपटीशन किससे होने वाला है।
द्रविड़- (शरमाते हुए)- जी अभी अपना कंपटीशन ऐश्वर्या राय से है।
पवार-व्हाट।
द्रविड़जी-जी बात यह है कि च्यवनप्राश, बिस्कुट, बनियान बहुत कर लिये। कोल्ड ड्रिंक के एड तो ऐश और हम साथ साथ करते हैं। पर क्या है कि ऐश को लिपस्टिक, आई लोशन, नेलपालिश के एड मिल जाते हैं। अभी क्या है, अभिषेक भईया से शादी के बाद ऐश कुछ कम एड करेगी, तो ये सब लिपस्टिक विपस्टिक के एड हम करेंगे ना। अभी तो हम फ्री भी हैं ना।

पवार, द्रविड़ और वेंगसरकर
पवार वेंगसरकर से-मुझे लगता है कि सहवाग का आर्डर चेंज करना चाहिए। उसको चेंज मांगता।
द्रविड़-जी बिलकुल चेंज मांगता है। अभी उसको दूध-कोल्ड ड्रिंक के एड छोड़कर टू मिनट्स नूडल्स के एड करने चाहिए।
पवार –क्यों।
द्रविड़-देखिये नया एड बहुत ईजी से बन जायेगा-नूडल्स वाले अपने एड में ये बतायें-बच्चे नूडल्स का पैकेट खोलें, उन्हे पानी में मिलायें। और देखें कि कब सहवाग बैटिंग के लिए जायें। जैसे ही सहवाग बैटिंग के लिए जायें, बच्चे नूडल्स गैस पर चढ़ाकर गैस जलायें। घड़ी देखने का जरुरत नहीं, जैसे ही सहवाग आऊट होकर वापस आयेंगे-समझिये आपके दो मिनट पूरे हो जायेंगे।
वेंगसरकर-नहीं प्राबलम है, इसमें तो हो सकता है गच्चा। सहवाग दो मिनट के बजाय एक ही मिनट में आऊट हो गये, तो नूडल्स तो रह जायेगा कच्चा। इसलिए नूडल्स को सहवाग के लेवल पर लाइए। और उन्हे दो नहीं सिर्फ एक मिनट पर रेडी करवाइए।

पवार, वेंगसरकर और द्रविड़
पवार-देखो, अपना परफारमेंस बहुत अच्छा है। क्रिकेट बोर्ड ने करोड़ों कमाया है।
द्रविड़-सर हम ये कह सकते हैं कि जो भी टीम वर्ल्ड कप जीते, उसे ही इंडियन टीम मान लिया जाये। सबको थमा देंगे, बीस-बीस करोड़।
पवार-पर मान लो कि आस्ट्रेलिया जीत जाये। उनके प्लेयर्स को हम कैसे इंडिया का कह दें, वो तो इंडिया के लिए खेलते नहीं।
वेंगसरकर-तो क्या आपको यह लगता है कि इंडियन प्लेयर इंडिया के लिए खेलते हैं। नहीं, वो किसी कोल्ड ड्रिंक के लिए खेलते हैं। किसी बनियान के लिए खेलते हैं।
पवार जोर से चीख कर-राइट, वर्ल्ड कप इंडिया लाने की तैयारी है, जो भी टीम जीते, वो ही हमारी है।

पवार, वेंगसरकर और द्रविड़
पवार-इस सिचुएशन के लिए कौन जिम्मेदार हो, बताओ।
द्रविड़-देखिये जिम्मेदारी का सवाल नेताओं से कोई नहीं पूछता, तो हमसे क्यों पूछ रहे हैं। हम आपसे पूछते हैं क्या कि आटे के भाव इतने बढ़ गये, कौन जिम्मेदार है।
पवार-राइट।
द्रविड़ –मेरे ख्याल से जिम्मेदारी च्यवनप्राश की है।
वेंगसरकर-व्हाट, च्यवप्राश कहां से आ गया। द्रविड़ तुमने तो सहवाग की सिफारिश की थी, च्यवनप्राश की नहीं।
द्रविड़-समझिये सर, सौरभ दादा समेत तमाम प्लेयर जिस च्यवनप्राश का एड करते हैं, वह घटिया है। असली च्यवनप्राश तो अमिताभ बच्चन ले गये। सर बताइए वह च्यवनप्राश खाकर साठ साल की उम्र में भी निशब्द अठारह बरस की कन्या को पटा रहे हैं और हम इत्ते च्यवनप्राश के बाद भी पब्लिक की गालियां खा रहे हैं।
पवार- ओ के राइट, मैं पार्लियामेंट में च्यवनप्राश इन्क्वायरी के लिए आल पार्टी कमेटी बनवा दूंगा।

- आलोक पुराणिक

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बुधवार, 4 अप्रैल, 2007

व्यंग्य : चैपल का सनसनीख़ेज़ खुलासा

पीयूष मोहन पांडे अख़बारी पत्रकारिता और ऑनलाइन पत्रकारिता करने के बाद पिछले चार साल से टीवी पत्रकारिता में हाथ आज़मा रहे हैं। उनके 50 से ज़्यादा व्यंग्य दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक नवज्योति, स्वतंत्र वार्ता और दैनिक जागरण समेत कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं।

निम्नलिखित सनसनीख़ेज़ खुलासा गुरु ग्रेग की निजी डायरी से उड़ाया गया है। चप्पल साहब सॉरी चैपल साहब हार पर अपनी रिपोर्ट बीसीसीआई को देने वाले हैं। हार के बाद उन्होंने खिलाड़ियों के बीच रहकर बहुत कुछ देखा-सुना है। इसी देखे-सुने में एक सनसनीखेज़ सच ये भी है।

(मेरी निजी डायरी- 25/3/07)

मैंने आज जो सुना - उसे सुनकर मेरी आँखें खुली-की-खुली रह गईं। अपना धुरंधर धोनी किसी को उड़ाने की साज़िश रच रहा है। वर्ल्ड कप में उसकी परफ़ॉरमेंस बहुत ख़राब रही है लेकिन इसके लिए वो किसी और को दोषी मानता है। मैंने धोनी को यह कहते हुए सुना - "इंडिया पहुँचते ही साले को उड़ा दूंगा। उसकी बद्दुआ के चलते ही मैं यहाँ घास उखाड़ता रह गया। लंका के खिलाफ मैच में ज़ीरो पर आउट हो गया।"

धोनी सिर्फ़ किसी को उड़ाने की ही बात नहीं कर रहा था बल्कि कप्तान द्रविड से भी कह रहा था कि - "बॉस, तुम भी मेरा साथ दो। उसकी वजह से ही तुम्हारी आज इतनी फ़जीहत हो रही है। तुम न घर के न घाट के रहे। उसने ही साला कह डाला था कि टीम इंडिया कोई मैच न जीते।"

मैंने इस बारे में श्रीशंत और इरफ़ान से भी बात करने की कोशिश की - लेकिन दोनों ने मँह नहीं खोला। ये दोनों वर्ल्ड कप में एक भी मैच नहीं खेले लिहाज़ा इनके ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्सा नहीं है, पर इन्होंने भी अपने साथी खिलाड़ियों की साज़िश के बारे में नहीं बताया। इन्होंने नहीं बताया कि धोनी किसे उड़ाने की बात कह रहा है? इऩ्होंने नहीं बताया कि किसने धोनी के ज़ीरो पर आउट होने की मन्नत मांगी थी? इऩ्होंने नहीं बताया कि कौन टीम इंडिया को एक भी मैच देखते हुए नहीं देखना चाहता? मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि धोनी, द्रविड़ और टीम इंडिया के कुछ दूसरे खिलाड़ियों के बीच कुछ खिचड़ी पक रही है और निश्चित तौर पर ये लोग इंडिया में किसी की हत्या करने का इरादा रखते हैं। वैसे, मैं ये बात विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इन्हें साज़िश का मंत्र किसी हिन्दी फ़िल्म से मिला है।

कौन है वो ?

अब चैपल साहब ने इतना बड़ा सनसनीखेज़ खुलासा डायरी में किया तो हमारे एक पत्रकार मित्र (खोजी पत्रकार) ने इसका पोस्टमार्टम भी कर डाला। उन्होंने एक गुप्त एएएमएस के ज़रिए इस पूरे राज़ से पर्दाफ़ाश किया है।

वाक़या कुछ ऐसा है कि टीम इंडिया बांग्लादेश और श्रीलंका से बुरी तरह पिटने के बाद जमैका में एक हिन्दी फ़िल्म देखने पहुँची। जमैका में वर्ल्ड कप के दौरान ख़ासतौर पर हिन्दी फ़िल्म का इंतज़ाम किया गया था। इस फ़िल्म का नाम है - हैट्रिक। भाइयों ने सोचा कि फ़िल्म क्रिकेट पर होगी, पर इसमें तो हीरो कुणाल ने टीम इंडिया की ही ऐसी की तैसी कर दी। अपनी पत्नी के दिल में बसे धोनी से परेशान कुणाल ने बद्दुआ दी - "वो साला धोनी, मैं चाहता हूँ कि एक भी रन न बनाए। हमेशा ज़ीरो पर आउट हो।" इसी तरह टीम इंडिया के बारे में कुणाल का कहना है - "ये टीम इंडिया हमेशा हारे। कभी कोई मैच न जीते।"

अब जनाब, बात चाहे फ़िल्म में कही गई हो या कहीं और - निकली तो कुणाल की ज़ुबाँ से ही है। लंबी ज़ुल्फ़ों वाला धोनी लुटा-पिटा घूम रहा है। कल तो छोरियाँ 'उड़े जब-जब ज़ुल्फ़ें' गा रही थीं, आज ज़ुल्फ़ों को उखाड़ने पर आमादा हैं। द्रविड को कप्तानी की दुकान समिटती दिख रही है। लाखों लोगों ने तो हार का ठीकरा इन खिलाड़ियों के पुतलों पर फोड़ ही दिया है - सो लौट के आए ये बुद्धु अब कुणाल को ढूंढ रहे हैं।

कुणाल सावधान! तुम धोनी के निशाने पर हो....

- पीयूष मोहन पांडे

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सोमवार, 2 अप्रैल, 2007

श्री विष्णु नागर का व्यंग्य : राजनीतिक संन्यासी

Vishnu Nagarविष्णु नागर पेश से पत्रकार हैं - लेकिन व्यंग्यकार के रुप में भी उनकी अच्छी ख़ासी पहचान हैं। उनके पाँच व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। पेश है उनका 'राजनीतिक संन्यासियों' की क़लई खोलता व्यंग्य :


संन्यासी आपने भी बहुत देखे होंगे और हमने भी। संन्यासी हैं भी बहुत हमारे देश में और होंगे तो दिखेंगे भी। जायेंगे कहाँ? कोई बीवी के ताने-तिश्नों का मारा है और संन्यासी बन चुका है, किसी को बच्चों ने घर से भगा दिया है और वह संन्यासी बन गया है। कोई बेरोजगारी का मारा है और उसने संन्यास में जीवन जीने का रास्ता पा लिया है। किसी ने हत्या या बलात्कार किया है और वह संन्यासी के वेश में पुलिस से बचता फिर रहा है। किसी को फटाफट करोड़पति बनना है तो कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम में कामयाबी न मिलने के बाद संन्यासी बन गया है, किसी की किसी साधु या बाबा की संपत्ति पर निगाह है तो वह संन्यासी बन गया है। किसी को लगता है कि संन्यास मुत और तर माल खाने की स्थायी और अविचल व्यवस्था है, इसलिए वह संन्यासी बन गया है। किसी को राजनीति करने के लिए संन्यासी बनने से ज्यादा फायदेमंद कुछ नहीं लगता। कोई-कोई ऐसा भी शायद होता ही होगा, जिसकी वाकई भगवान से लौ लग गई गई होती होगी। ऐसी गल्ती भी इनसान ही कर सकता है। आशय यह है कि जितने संन्यासी हैं उतने ही संन्यासी बनने के कारण भी हैं।

लेकिन तमाम नेताओं की इस धमकी के बावजूद कि फलां भ्रष्टाचार या फलां बलात्कार या फलां डकैती या फलां रंगदारी का आरोप सिध्द होने पर मैं राजनीति से हमेशा के लिए संन्यास ले लूंगा, किसी राजनीतिक संन्यासी को आपने आज तक कभी देखा है? मेरा विश्वास है कि नहीं देखा होगा क्योंकि मैंने भी आज तक नहीं देखा है।

सच्चाई यह है कि जो राजनीति में एक बार चला आता है, वह राजनीति से संन्यास लेने की गलती कभी नहीं करता, कभी कर ही नहीं सकता, भले ही राजनीति उससे संन्यास ले ले। वह राजनीति का गृहस्थाश्रम धर्म निभाते-निभाते ही अंतिम सांस लेना पसंद करता है। वह राजनीति के सेंट्रल हाल में बैठकर अपनी बारी की हमेशा प्रतीक्षा करता रहता है। वह इस आशा में सेंट्रल हाल नहीं छोड़ता कि कभी तो कोई ऐसा कमीशन बनाया जायेगा, जिसका अध्यक्ष उसे बनाया जायेगा। कभी तो किसी संस्थान का अध्यक्ष पद खाली होगा, जहाँ उसे कैबिनेट मिनिस्टर का नहीं तो कम से कम राज्य मंत्रि का दर्जा देकर जरूर बैठाया जायेगा। उसे कहीं का राजदूत, कहीं का राज्यपाल या नहीं तो उपराज्यपाल तो अवश्य ही बनाया जायेगा। यहाँ तक कि जो भूतपूर्व प्रधानमंत्रि हैं और अपनी भूतपूर्वता में भी अभूतपूर्व हो चुके हैं, जो अपनी बारी अच्छी या बुरी तरह खेल चुके हैं, उन्हें भी उम्मीद रहती है कि उनके अधूरे कामों को पूरा करने का अवसर यह देश, यह समाज और नहीं तो सोनिया गाँधी अवश्य देंगी। वे नहीं देंगी तो ईश्वर देगा और ईश्वर भी नहीं देगा तो जन्म कुंडली देगी क्योंकि उसमें ऐसा लिखा हुआ है। देश का शायद ही कोई नेता ऐसा होगा जो अपनी अंतिम सांस तक देश की सेवा करने को तत्पर न हो, वह भी क्या करे, राजनीति में ऐसी परंपरा हमेशा से रही है। क्या गाँधी, नेहरू और इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी ने ऐसा नहीं किया था? तो किस आधार पर वह देशसेवा से मुँह मोड़ लें? वैसे शायद हमारे धर्मग्रंथों में कहीं कहा गया होगा कि एक सच्चे राजनीतिक को कभी संन्यास नहीं लेना चाहिए।

बहरहाल सच तो यह भी है कि राजनीतिक संन्यास लेना भी चाहे तो कैसे ले बेचारा गरीब? राजनीति में पचास साल की उम्र से पहले तो आदमी को बच्चा ही समझा जाता है और कहा भी जाता है, भले ही राहुल गाँधी से उनके मुँह पर यह कहने का साहस किसी काँग्रेसी का न होता हो। पचास की उम्र में उसे युवा मानना शुरू होता है और पैंसठ की उम्र तक वह युवा ही बना रहता है। फिर वरिष्ठ होना आरंभ होता है और वरिष्ठ होते-होते उसे पाँच साल और लग जाते हैं। जब तक वास्तव में वरिष्ठता के नाते उसे कुछ मिलता है या मिलने की संभावना बनती दीखती है कि तभी उधर से बुलावा आना शुरू हो जाता है कि भाईसाहब या बहनजी- आप जो भी हों-चलिये,बहुत जी लिये। आपकी उम्र के 90 प्रतिशत लोग उधर जा चुके हैं, फिर आप इधर क्या कर रहे हैं? इसलिए राजनीतिक नेता तो मजबूर है संन्यास न लेने को। अब ठीक है कि कभी-कभी मुँह से निकल जाता है कि भ्रष्टाचार या बलात्कार या ऐसा ही कोई एक भी आरोप सिध्द हो गया तो मैं इस्तीफा ही नहीं दूँगा वरन राजनीति से संन्यास भी ले लूँगा लेकिन यह किसी भी समझदार आदमी को समझना चाहिए कि यह वक्त की नजाकत देखकर कहा गया महज एक वाक्य है, एक अखबारी वक्तव्य है, नेकनीयती का प्रमाणपत्र है और राजनीति में ऐसा कौन है जिसे अपने लघु या सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में ऐसा वाक्य कभी नहीं कहा या ऐसा वक्तव्य नहीं दिया?

- विष्णु नागर

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रविवार, 1 अप्रैल, 2007

पागल हैं, मूर्ख नहीं

आलोक पुराणिक वरिष्ठ लेखक तथा व्यंग्यकार हैंआलोक जी ने यह लेख ख़ासतौर मूर्ख दिवस के मौक़े पर "मस्ती की बस्ती" के लिए लिखा है



क़िस्सा
यूँ है कि देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु एक बार आगरा से होकर गुज़र रहे थे। आगरा के विख्यात मानसिक चिकित्सालय (जिसे तब पागलखाना कहा जाता था) के सामने नेहरुजी की कार ख़राब हो गयी। ख़राब यूँ हुई कि कार का एक पहिया ही निकल गया। पहिये के चारों पेंच निकल गये थे। रात एक बजे का वक़्त। नेहरुजी को दिल्ली पहुँचना ज़रुरी थी। उस वक़्त कोई मिस्त्री उपलब्ध नहीं। तब ही मानसिक चिकित्सालय के कुछ रोगियों ने नेहरुजी की समस्या देखी और दिमाग लड़ाया और सोल्यूशन बताया कि आप बचे हुए तीनों पहियों से एक-एक पेंच खोल लीजिये और चौथे पहिये को तीन पेंचों पर फ़िट कर दीजिये। चारों पहिये तीन-तीन पेंचों पर चलेंगे, दिल्ली जाकर मामला पूरा चौकस करवा लीजिये। आइडिया धांसू था। कार चल निकली। कार में बैठते हुए नेहरुजी ने कहा - कमाल है आप लोग तो बहुत अक़्लमंद हैं, लोग तो आपको पागल कहते हैं। उनमें से एक ने कहा - देखिये जी संभल कर बात कीजिये, हम पागल हैं, मूर्ख नहीं हैं।

इंडिया में अपनी चाइस से मूर्ख बनें, तो बनें पर नेचुरल मूर्ख, या प्रकृति निर्मित मूर्ख तलाशना मुश्किल है। पहले इस ख़ाकसार का मानना था कि दो ही तरह के लोग होते हैं, एक जो मूर्ख होते हैं, पर दिखते नहीं हैं। दूसरे, जो मूर्ख दिखते हैं, पर होते नहीं है। भारत में दूसरी कैटेगिरी के ज़्यादा पाये जाते हैं। इस से जुड़ा दूसरा क़िस्सा यूँ है कि एक चौराहे पर एक मदारी तमाशा दिखाता था कि देखो मूर्खता का लाइव शो, वो एक समझदार से बंदे के आगे एक तरफ़ पाँच का नोट रखता था और दूसरी तरफ़ पाँच सौ का नोट। वह हमेशा पाँच का नोट ही उठाता था। पब्लिक हँसती थी। एक दिन एक समझदार ने उससे पूछा कि तू कभी पाँच सौ नोट का क्यों नहीं उठाता। पाँच का नोट उठाऊ बोला - भईया सिर्फ़ एक ही बार पाँच सौ नोट उठाने का मौक़ा मिलेगा। फिर पाँच के नोट से हमेशा के लिए जाऊँगा।

भारत में नेचुरल मूर्ख मुश्किल से मिलते है, ये नियामत ऊपर वाले ने अमेरिका और इंगलैंड को ही बख़्शी है। हम सिर्फ़ बुश और ब्लेयर की बात नहीं कर रहे हैं।

मूर्ख दिखना पर मूर्ख न होना तो दरअसल एक क्वालिटी है। लालूजी ने बरसों इसी क्वालिटी से मौज काटी है। मीडिया उन्हें बरसों यही समझता रहा। बाद में पता लगा कि दरअसल जो वह लालूजी को समझ रहे थे, वह तो खुद मीडिया है।

मूर्खों का ख़ासा महत्व है सामाजिक जीवन में। ये जो कई उपदेशक टाइप, लेक्चरातुर बंदे घूमते हैं, इन्हे बौद्धिक कब्ज़ हो जाये, अगर लेक्चरों के ज़रिये इनका बोझ हलका न हो। अपने आसपास देखिये सीनियर समझावकों के चेहरे पर कैसी विकट आभा आ जाती है, जब वे किसी को कुछ समझा रहे होते हैं। अपने बुरे दिनों में मैंने भी ऐसे समझावकों की आभा में योगदान किया है। खाने-पीने का जब संकट चल रहा था, तब मैं ऐसे एक सीनियर समझावक के पास सुबह-सुबह चला जाता था। चेहरे पर विकट मूर्खता के भाव। विकट मूर्खता के भाव कई क़िस्म के अवयवों से बनते हैं। आँखों में परम जिज्ञासा का भाव, किंचित मूर्खोचित मुस्कान, वाह-वाह वाह-वाह क्या कहा है, जैसे जुमलों का धारावाहिक सिलसिला। चेहरे पर ऐसा भाव लाना पड़ता है कि समझावक समझे कि हाँ ये ओरिजनल मूर्ख है। मूर्ख तमाम समझावकों को सार्थकता प्रदान करता है। कई समझावकों को जीवन निरर्थक लगता है, अगर कोई ज्ञान लेने वाला न मिले, तो। तो साहब मेरे समझावक मुझे नैतिकता सत्य पर बहुत प्रवचन देते थे, साथ में दो कप चाय और बहुत दिव्य किस्म के बिस्कुट। प्रवचन मैं वहीं छोड़ आता था। बाद में मेरे दिन अच्छे आ गये, तो वह उदास हो गये, मूर्खों की घटती जनसंख्या से समझावक और अक़्लमंद बहुत परेशान होते हैं।

वैसे मूर्खता के बहूत मज़े हैं। काँलेज के दिनों में राजनीतिक दिशा जब मैं तलाश रहा था, तब राजनीतिक विचाराधारा पर फ़ोकस करने के बजाय मैं देखा करता था कि सुंदर कन्याओं की धारा किस तरफ़ बह रही है। जिस पार्टी में सुंदर बालाएँ होती थीं, मैं फ़ौरन निपट मूर्खोचित भाव से उनसे ज्ञान लेने के चक्कर में रहता था। उन दिनों एक हफ़्ते के हेर-फेर में मैं वामपंथी से दक्षिणपंथी तक हो जाया करता था। एक बार तो मैं निकारागुआ की एक पार्टी का भारतीय सदस्य तक बन गया, क्योंकि उसकी लोकल शाखा जो सुंदरी चला रही थी, वह मूर्खों को समझाने के लिए अतिरिक्त कक्षाएँ लिया करती थी। कालांतर में सारी सुंदरियों का विवाह हो गया। किसी भी किस्म की राजनीति से मेरा मोहभंग हो गया। अक़्लमंदी से सुंदरियों का साहचर्य पाना बहुत मुश्किल रहा है। पर मूर्खता के लाभांश के बतौर कई सुंदरियों ने मुझे समझाने में कई घंटे लगाये हैं। यह लाभांश सिर्फ़ मूर्खों को मिलता है।

बताइए कालिदास मूर्ख नहीं होते, तो क्या विद्योत्तमा से पार पा सकते थे। नहीं ना।

सुंदरियों को सैट करने का रास्ता, मूर्खता की पगडंडी से ही जाता है। अक़्लमंदी के राजमार्ग पर चलकर सुंदरियाँ नहीं मिलतीं। कालिदास की कहानी हमें बार-बार यही बताती है।

इसलिए मूर्ख दिखने में महारथ हासिल कर लेनी चाहिए। एक अप्रैल का यही संदेश है। एक संदेश और समझ लेना चाहिए कि पागल होकर भी कभी मूर्ख नहीं होना चाहिए।

- आलोक पुराणिक

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