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हमने मॉरीशस के पत्थरों को सोना बनाया : मुकेश्वर चुन्नी

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मैं पैदा भले ही मॉरीशस में हुआ, लेकिन मेरा दिल उतना ही हिंदुस्तान में बसता है, जितना कि मॉरीशस में। मुझे इस बात का गर्व है कि मेरी जड़ें भारत से जुड़ी हैं। भारत में मॉरीशस के राजदूत मुकेश्वर चुन्नी के ये शब्द भारत के प्रति उनके प्यार और उनकी समझ को जताने के लिए पर्याप्त हैं। उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे हिंदी बोल सकते हैं। मॉरीशस में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इन्होंने महती भूमिता निभाई। एक मुलाकात में अपने हिंदी और हिंदुस्तान प्रेम की चर्चा मुकेश्वर कर रहे हैं नीरज सिंह के साथ...
 
आपका जन्म मॉरीशस में हुआ, और आपके पुरखे भारत से थे। अपनी जड़ो की कितनी यादें आपके जेहन में हैं?

मेरे पुरखे भारत के बिहार राज्य से मॉरीशस गए थे और मैं वहां पर भारतीय मूल के लोगों की चौथी पीढ़ी का हूं। यह बात 1865-75 के बीच की है। उस समय उप्र और बिहार के हिंदी बोलने वाले लोग वहां गए थे। उसके पहले भी देश के कई हिस्से से जैसे चेन्नई से तमिल बोलने वाले पांडिचेरी से फ्रेंच बोलने और महाराष्ट्र से मराठी बोलने वाले लोग वाले मॉरीशस गए थे। लेकिन इन सब में उत्तर भारतीयों की संख्या ज्यादा थी। यह दौर 1834 से शुरू होकर 1940 तक चला, लेकिन बड़ी संख्या में यहां से लोग 1875 में ही गए थे (लगभग पांच लाख लोग)। मेरे परदादा भी उन्हीं में से एक थे। उनकी उम्र उस समय पांच साल की थी। मेरे दादा यहां से क्यों गए इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। हाल ही मैं जब अपनी जड़ों को खोजने के लिए बिहार गया तो बड़ी मुश्किल हुई क्योंकि पांच साल के बच्चे में कोई क्या जानकारी देता? तो कुल मिलाकर यह एक चमत्कार ही था कि पांच साल का बच्चा वहां तक पहुंच गया। चमत्कार इसलिए क्योंकि वह सफर बहुत ही कठिन था रास्ते में खाने-पीने का कोई प्रबंध नहीं था और हाथ से चलाए जाने वाले जहाज थे तो यह भी नहीं था कि दो दिन में पहुंच जाते करीब तीन महीने का सफर था। कई लोग इस सफर की कठिनाइयों से ऊब कर रास्ते में ही समुद्र में कूद कर जान दे देते थे। पहले मॉरीशस में अफ्रीका और मेडागास्कर से दासों को लाया जाता था, लेकिन 1833 में जब दास प्रथा समाप्त हुई तो दासों का व्यापार बंद हो गया। फिर दासों के बदले जिन लोगों को ले जाया जाता था उन्हें एग्रीमेंट वर्कर कहा जाता था। जिन लोगों को ले जाया जाता था वे लोग ज्यादा पढ़े-लिखे तो होते नहीं थे तो वे लोग एग्रीमेंट बोल नहीं पाते थे। वे लोग एग्रीमेंट को गिरमिट-गिरमिट कहते इसी से गिरमिटिया बना और वहां काम करने जाने वाले लोगों को गिरमिटिया कहा जाने लगा। यहां से लोगों को सुगर फैक्ट्री में काम करने के लिए ले जाया जाता था, देश के कोने-कोने से लोग प्रवास घाट जिसे तब कुली घाट कहा जाता था वहां पर इकक्ठा होते थे और फिर सुगर फैक्ट्री के लोग वहां आकर उनका चुनाव करते थे। जो लोग जाते थे उन्हें एक नंबर दे दिया जाता था और एक छोटा-सा नाम दिया जाता था। जैसे राम गुलाम, राम पति और राम स्वरूप आदि नामों के लोग जो वहां पर हैं उनके पुरखों को राम नाम दिया गया था। जो नाम दिया बाद में लोगों ने उसे सरनेम बना लिया। जैसे नवीन राम गुलाम। मेरे परदादा को चुन्नी नाम दिया गया था इसलिए मेरा सरनेम चुन्नी हुआ। मेरे दादा के बारे में भी कोई खास जानकारी नहीं है क्योंकि जब मेरे पिता जी तीन साल के थे तभी उनकी मृत्यु हो गई। तो इस तरह मैं वहां पर अपनी चौथी पीढ़ी का ऐसा व्यक्ति हूं जिसका जन्म तो माॉरीशस में हुआ, लेकिन जड़ें भारत से जुड़ी हैं। आज वहां 70 प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं। उस समय वहां पर पैसा तो था नहीं, मजदूर लोगों को साल में एक बार कपड़ा और थोड़ा दाल-चावल मिलता था, तो हमने वहां पर बहुत ही दुख सहे। लोगों को यह कहकर वहां बुलाया जाता था कि चलो वहां पत्थर उठाओगे तो सोना मिलेगा जबकि वहां ले जाकर काम चीनी मिलों में करवाते थे। लेकिन आज मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि हमें मॉरीशस के पत्थरों को उठाने पर सोना तो नहीं मिला, लेकिन हमने मॉरीशस के पत्थरों को सोना जरूर बना दिया।

विश्व के कई हिस्सों से लोग मॉरीशस गए फिर वहां पर भारतीयों का प्रभुत्व कैसे स्थापित हुआ?

यह बात सही है कि आज मॉरीशस में हर क्षेत्रों में भारतीयों का प्रभुत्व है। हमारे मूल के ही लोग सरकार चला रहे हैं। दरअसल दो घटनाएं ऐसी घटींजिसने इस परिवर्तन की शुरुआत की। 1901 में जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौट रहे थे तो वे मॉरीशस के लोगों से मिले। लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि मजदूर बनकर जीना जीवन नहीं है आप लोग अपने विकास के लिए दो काम करिए। पहला, अपने बच्चों को शिक्षित करिए। दूसरा, राजनीति में अपने लोगों को शामिल करिए। जब वे भारत लौटकर आए तो मुंबई से उनके मित्र डॉ मणिलाल मॉरीशस गए और वहां रहकर भारतीयों को शिक्षित करने और उनके विकास के लिए काफी काम किया। वे लगभग छह साल तक वहां रहे। उसके बाद चाचा शिवराम गुलाम ने हमारे लोगों के लिए काफी काम किया। बाद में वे देश के प्रधानमंत्री भी बने। आज मॉरीशस में यातायात फ्री है। शिक्षा फ्री है। इसकी नींव चचा राम गुलाम ने ही रखी थी।

मारीशस में पैदा होने के बावजूद भी आपके हिंदी प्रेम की क्या वजह है?

यह केवल मेरी ही बात नहींहै, मॉरीशस में ज्यादातर लोग हिंदी बोलते हैं। मैंने हिंदी पढ़ी नहीं है, लेकिन बोल लेता हूं। इसका सबसे बड़ा कारण भारत की फिल्में और धारावाहिक हैं। मेरी दादी ने फिल्मों की तर्ज पर ही मेरा नाम मुकेश रखा। मेरा दूसरा नाम राजेश है। वे भी हिंदी फिल्मों के हीरो थे। मॉरीशस में 1900 में हिंदी प्रेस शुरू हुआ। सरकार वहां पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए ग्रांट देती है। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए वहां पर बैठका परंपरा है। लोग आते हैं और बैठका में बैठकर हिंदी चर्चा करते हैं। हिंदी प्रचारणी सभा, महात्मा गांधी हिंदी सभा जैसी संस्थाएं हैं। विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस में ही है। ऐसे में हिंदी प्रेम लाजिमी है।

आपने कहा था कि दुनिया में भारत की पहचान हिंदी के कारण है, लेकिन भारत में हिंदी को अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, यह विडंबना क्यों?

यह बात सही है कि भारत के बाहर जो लोग हैं उनको आपसे में बांधने का सूत्र हिंदी ही है। मैंने पहले भी कहा कि हिंदी फिल्में इसका बहुत बड़ा कारण हैं। अगर आप देश के बाहर हिंदी में एक शब्द भी बोलते हैं, तो हिंदी समझने वाले लोगों में एक अपने आप एक अपनापन पैदा हो जाता है। मेलबोर्न से लेकर लांस एंजिलिस तक भारतीयों की पहचान हिंदी ही है। भारत में अपनी भाषा को लेकर कुछ संशय जरूर है, लेकिन हमारी कोशिश है कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र में मान्यता मिले। इसके लिए मॉरीशस भारत से भी पहले वोट करता है। मुझे तो हिंदी दुनिया की सबसे अच्छी लगती है और हिंदी बोलने से ही आधी समस्याएं दूर हो जाती हैं।

आपका मानना है कि गीता ऊर्जा व ज्ञान का केंद्र है। गीता वैश्विक समस्या का समाधान है। आज जो वैश्विक समस्याएं हैं गीता में उनका समाधान आप कहां पाते हैं?

केवल गीता ही नहीं, हमारे जो भी ग्रंथ है वो इतने पुराने हैं और अब तक उनकी प्रासंगिता है, उनके उदाहरण दिए जाते हैं। इसका अर्थ है कि समय ने उन्हें परखा है और उस पर वे खरे उतरे हैं। लेकिन हमारी यह आदत है कि हम गलत अवधारणाओं को ज्यादा प्रचारित करते हैं। जबकि मेरा मानना है कि पर्यावरण से लेकर आतंकवाद तक और लगभग सारी समस्याओं का हल गीता में है। केवल उपदेश आपको रोल मॉडल नहीं बना सकते जब तक कि आप खुद वही जीवन नहींजीते जिसे कि आप आदर्श बताते हैं। गीता कहती है कि प्रकृति से सबको समान अधिकार मिले हैं कोई छोटा-बड़ा नहीं है। अगर हम इस मर्म को समझ जाएं, तो सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी।

आम धारणा है कि हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बन सकती क्या आप इससे सहमत हैं?

देखिए, भूमंडीलकरण के चलते सभी भाषाएं दबाव में हैं। आप यह नहीं कह सकते कि अंग्रेजी को कोई खतरा नहीं है। जय हो हिंदी भाषा का शब्द है और अब अंग्रेजी डिक्शनरी में जगह पा चुका है। ऐसे ही कई शब्द और हैं। दूसरे इंडियन डायस्पोरा के लोगों के बारे में तो कहा ही जाता है कि हम लोग जहां जाते हैं छा जाते हैं। जब ऐसा है तो क्या हम अपनी भाषा में रोजगार नहींपैदा कर सकते? मुझे जब भी लोग कहीं बुलाते हैं तो मेरी पहली कोशिश होती है कि मैं हिंदी में ही बोलूं। अगर आप अपनी भाषा को लेकर सतर्क हैं तो यह उतनी ही मजूत होती जाएगी। भारत में भाषागत विवाद बहुत हैं।

क्या मॉरीशस में भी ऐसी दिक्कते हैं?

बिल्कुल नहीं। वास्तव में भाषा को लेकर विवाद होना ही नहीं चाहिए। भाषा तो बस लोगों को जोड़ने का माध्यम है। इसका काम बस कनेक्ट करना है। अब आपके ऊपर है कि आप कनेक्ट करने में किस भाषा में सहूलियत पाते हैं। जैसे जी-मेल है और याहू है। अगर आपको याहू पसंद है तो याहू का इस्तेमाल करिए जी-मेल पसंद है तो जी-मेल इस्तेमाल करिए। दोनों का ही काम आपकी बात को लोगों तक पहुंचाना है। भाषा को लेकर मेरा एक ही सूत्र है कि आप जितना ही अपनी भाषा का इस्तेमाल करेंगे लोग आपसे उतना ही जुड़ते जाएंगे और जितने लोग आपसे जुड़ते जाएंगे, भाषा को उतना ही प्रचार मिलता जाएगा। भाषा से जुड़े संस्कार मां-बाप ही विकसित कर सकते हैं। मेरी हमेशा यह कोशि रहती है कि मैं अपने घर में हमेशा हिंदी में बात करूं। भाषा को लेकर विवाद फैलाना हमें ही नुकसान पहुंचाएगा।

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