गंगा एक्शन प्लान के नाम पर सैकड़ों करोड़ बहाने के बाद भी नदी संरक्षण का कार्य हुआ ही नहीं है। यह पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सभ्यता का उद्गम स्थल यह नदी भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन के प्रदूषण का प्रतिबिंब हो।
राजू का जन्म बनारस में हुआ। पेशे से वह घोसी है। गाय-भैंस पालना और उनका दूध बेचना ही उसने सीखा। एक अजीब सा बनारसीपन उसमें है। सुबह तड़के अस्सी घाट पर चहलकदमी के बाद वह अपने काम में लग जाता है। वर्षो से उसकी यही दिनचर्या है। गंगा नदी से उसका रोज का नाता है। रोज सूरज का निकलना देखकर अपने काम पर जाने से ही उसके दिन की शुरुआत होती है। ‘सुबह बनारस’ उसके जीवन का अंग है। अस्सी घाट पर गंगा के किनारे उसने बिस्मिल्लाह खान से लेकर बड़े-बड़े लोगों को नतमस्तक होते देखा है। जीवन के गूढ़ रहस्य को इसी घाट पर उसने जाना और समझा है। सुबह चार बजे से ही इन घाटों पर लोगों का जमावड़ा लग जाता है। लोग श्रद्धा के साथ डुबकी लगाते हैं। जीवन की नयी आशा लिये ये श्रद्धालु इस बात से बेखबर हो जाते हैं कि बगल के घाट में जीवन की अंतिम क्रिया का प्रसंग अनवरत चल रहा है। बड़ा ही दिलचस्प है बनारस के विभिन्न घाटों में जीवन के विभिन्न पहलुओं का दर्शन।
राजू न तो आधुनिकता से प्रभावित है और न ही बनारस छोड़ कर कहीं जाना चाहता है। काशी में उसका मन रमा है। पर आजकल वह बनारस के हजारों नागरिकों की तरह दुखी है। वजह है गंगा नदी का दिनों-दिन दूषित होना। हाल ही में बनारस दौरे के दौरान राजू ने हमें गंगा की हकीकत से रू-ब-रू करवाया। सच में वाराणसी में गंगा की स्थिति लगभग किसी नाले की तरह हो गयी है। दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट के बीच में सीवेज का प्रवाह खुलेआम हो रहा है। नदी की धारा लगभग समाप्त सी हो गयी है। जगह-जगह पर जानवर और इंसान के कंकाल आपको तैरते मिल जायेंगे। सैकड़ों करोड़ रुपये गंगा की सफ़ाई पर लगाने के बाद भी नदी आज पहले से न सिर्फ़ ज्यादा दूषित है, बल्कि लुप्तप्राय सी भी है।
पर क्या गंगा की यह हकीकत सिर्फ़ बनारस में ही है? उत्तराखंड की पहाड़ियों से मैदानी क्षेत्र में आने के बाद गंगा की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। लगभग तीन महीने पहले की सीएजी की एक रिपोर्ट चौंकाने वाली है। पिछले साल कुंभ मेले के दौरान उत्तराखंड सरकार ने गंगा में बड़ी मात्रा में सीवेज गिराया। यह काम किया धार्मिक आस्था का राजनीति में इस्तेमाल करने की सिद्धस्थ भाजपा सरकार ने। सीएजी ने रिपोर्ट में न सिर्फ़ आंकड़ों के आधार पर, बल्कि फ़ोटो के जरिये अपने आरोपों को प्रमाणित किया है। उत्तराखंड सरकार ने लाखों तीर्थयात्रियों की धार्मिक आस्थाओं के साथ खिलवाड़ किया। तीर्थयात्रियों को इस बात का अंदेशा ही नहीं था कि जिस जल को वे अमृत समझ रहे हैं, वह सीवेज डिस्चार्ज है। यह तथ्य सीएजी की वेबसाइट पर मौजूद है।
लेकिन बेशर्मी की हद तब पार हो जाती है जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ’स्पर्श गंगा अभियान’ छेड़ते हैं। इस अभियान का उद्देश्य गंगा को पवित्र करना होता है। जाहिर है, निशंक को अच्छी तरह मालूम है कि उनकी सरकार ने लाखों लोगों को महाकुंभ के दौरान किस तरह ठगा। गंगा की इस दुर्दशा पर स्वामी निगमानंद नामक एक संन्यासी ने अनशन कर अपनी जान भी दे दी। लेकिन धर्म पर सियासत खड़ी करने वाले राजनेताओं को इन बातों को देखने की फ़ुरसत कहां।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में गंगा पर सियासत गरम हो रही है। हाल ही में बीजेपी में वापस लौटी उमा भारती ने गंगा बचाओ जैसा अभियान ही छेड़ दिया है। यह सच है कि गंगा की दुर्दशा उत्तर प्रदेश में आने के बाद बढ़ती जाती है। गंगा एक्शन प्लान के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपये बहाने के बाद भी नदी संरक्षण का कार्य हुआ ही नहीं है। जाहिर है यह पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में बिजनौर से लेकर बलिया तक गंगा में प्रदूषण निर्बाध गति से चलता रहता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सभ्यता का उद्गम स्थल यह नदी भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन के प्रदूषण का एक प्रतिबिंब हो।
सही मायनों में गंगा उत्तर भारत की जीवनधारा है। अगर उत्तर प्रदेश में ही देखें तो गढ़मुक्तेश्वर, मुरादाबाद, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी तक बसे शहरों में गंगा नदी से संबंधित कई संस्कृतियां और जीवन पद्धतियां जुड़ी हुई हैं। गढ़मुक्तेश्वर का मेला हर साल लाखों लोगों को नदी के तट पर लाता है। इसी तरह मुरादाबाद, कानपुर और इलाहाबाद में कई छोटे-छोटे धार्मिक व सांस्कृतिक उत्सव गंगा के घाट पर होते हैं और गंगा की यह महत्ता सिर्फ़ उत्तर भारत तक सीमित नहीं है।
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