धुंडीराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के ने भारत में 3 मई 1903 को पहली कथा फिल्म ‘राजा हरीशचंद्र’ सार्वजनिक तौर पर दर्शकों के सामने रखी तो उसी वक्त कुछ लोगों को समझ आ गया कि फिल्म निर्माण का ख्वाब सजाना आसान नहीं है। फाल्के के अनुभव कुछ ऐसे ही थे। उन्होंने पत्नी के गहने बेचकर तमाम मुश्किलों से लोहा लेते हुए फिल्म बनाई थी। लेकिन, रुपहले पर्दे पर रेंगती तस्वीरों का सम्मोहन कुछ ऐसा था कि इस जोखिम को लेने के लिए धीरे धीरे एक पौध तैयार हो गई। भारतीय सिनेमा के आरंभिक दस वर्षों में कुल जमा 91 फिल्में बनीं।
देश में 100 साल बाद सिनेमा उद्योग का चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। आज हर साल 1000 से ज्यादा फिल्मों का यहां निर्माण होता है। उद्योग चैंबर एसोचैम के मुताबिक भारतीय फिल्म उद्योग का राजस्व पिछले साल के 8190 करोड़ की तुलना में 56 फीसदी बढ़कर 2015 तक 12,800 करोड़ रुपए हो जाएगा। देश में 12,000 से ज्यादा थिएटर स्क्रीन, 400 से ज्यादा प्रोडक्शन हाउस और विशाल दर्शक संख्या है।
बीते 100 वर्षों में सिनेमा का पूरा अर्थशास्त्र बदल गया। हाल के कुछ वर्षों में तो यह पूरा अर्थशास्त्र इस तेजी से बदला है, जिसकी कल्पना जानकारों ने भी नहीं की थी। भारतीय फिल्मों के अर्थशास्त्र की कहानी को कुछ हिस्सों में बाँटने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि पहला दौर 1930 के आसपास तक रहा। इस वक्त तक भारतीय सिनेमा एक छोटी और कमाऊ इंडस्ट्री में तब्दली हो चुकी थी। आईबिड में ज़िक्र है कि उस वक्त एक फिल्म के निर्माण के लिए छह हफ्तों का वक्त पर्याप्त माना जाता था। बंबई के फिल्म निर्माताओं औसत फिल्म बजट 20,000 था। कलकत्ता और मद्रास के निर्माता दस से पंद्रह हजार का बजट पर्याप्त मानते थे। कलाकारों को उस दौर में 30 रुपए से 1000 रुपए प्रतिमाह मिलता था। 30 रुपए पाने वालों में अमूमन कुली अथवा एक्स्ट्रा होते थे,जबकि स्टार कलाकारों को औसतन 600 से 800 रुपए प्रतिमाह मिलते थे।
‘आलमआरा’(1931) से टॉकी फिल्मों का दौर शुरू होने के साथ मुंबई के अलावा पुणे, कोल्हापुर, कोलकाता और लाहौर बहुत तेजी से फिल्म निर्माण के केंद्र बनकर उभरने लगे थे। इंडियनटॉकी के मुताबिक इस साल कुल 23 हिन्दी फिल्में बनी और सभी ने मुनाफा कमाया। इस दौर में स्टूडियो सिस्टम की शुरुआत हुई और एक लिहाज से फिल्मों का ‘कच्चे कॉरपोरेटीकरण’ की नींव पड़ी। मुख्य रूप से तीन बड़े स्टूडियो इस दौर में सक्रिय रहे। वीरेंदनाथ सरकार द्वारा स्थापित ' न्यू थियेटर्स ', चार भागीदारों ( शांताराम , दामले , फत्तेलाल , धायबर ) द्वारा स्थापित ' प्रभात ' स्टूडियो और हिमांशु राय का ' बांबे टॉकीज ' । जया प्रभा और प्रफुल्ल पिक्चर्स (कोल्हापुर), पंचोली आर्ट्स (लाहौर), मीवीटोन(मुंबई), और रणजीत स्टूडियो (मुंबई) भी खासा नाम था। इन सभी संस्थाओं में कलाकार और तकनीशियन मासिक वेतन पर सुबह 9 से शाम 6 बजे तक अनुशासित ढंग से काम करते थे। इन स्टूडियो में बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की तरह कर्मचारियों के लिए कई सुविधाएं थीं। मसलन प्रभात स्टूडियो में तो मनोरंजन के लिए चिड़ियाघर भी था।
फिल्मों का मुनाफा 1940 तक इतना आकर्षक हो चुका था कि नए स्वतंत्र निर्माता फिल्म निर्माण की तरफ आकर्षित हुए। स्टूडियो ढांचा हिलने लगा। स्वतंत्र निर्माताओं ने अभिनेताओं-निर्देशकों-लेखकों और तकनीशियनों का प्रति फिल्म काम करने के लुभावने ऑफर दिए। 1941 में मुंबई में बनी 61 फिल्मों में सिर्फ 40 स्थापित निर्माताओं द्वारा बनाई गई थीं। कुछ अलग करने की छटपटाहट में भी कई दिग्गजों ने अपने बैनर खड़े किए। व्ही शांताराम ने 1941 में प्रभात छोड़कर अपना बैनर खड़ा किया। 1942 में सागर प्रोडक्शन छोड़कर महबूब खान ने अपना बैनर खड़ा किया।
दरअसल, फिल्म निर्माण का बिलकुल शुरुआती दौर निजी प्रयासों से संचालित हुआ तो कुछ साल बाद रइसों ने निर्देशकों पर दांव लगाने शुरु किए। स्टूडियो परंपरा ने इसे एक कंपनी के प्रोडक्ट की तरह बनाना आरंभ किया। इसके बाद तो स्वतंत्र निर्माताओं की कतार लग गई। रंगीन फिल्मों का दौर शुरु होते ही फिल्म निर्माण महंगा हो गया। उस वक्त संस्थागत पूंजी उपलब्ध नहीं थी, लिहाजा तथाकथित आर्थिक सुरक्षा के भय से मसाला फिल्मों को गढ़ने का दौर शुरु हुआ। वीडियो पाइरेसी ने इस डर को कहीं बढ़ा दिया। इसी वक्त माफिया का पैसा फिल्म निर्माण में लगने की शुरुआत हुई। यह दौर 1995 तक बदस्तूर जारी रहा।
उदारीकरण की शुरुआत के साथ फिल्म का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलना शुरु हुआ। अनिवासी भारतीयों ने फिल्मों में पैसा लगाना शुरु किया। 2001 में एनडीए सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया और अब तो फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो चुका है। फिल्म निर्माण से लेकर फिल्म बेचने के तरीकों में इस कदर बदलाव आया है कि फ्लॉप-हिट की परिभाषा धूमिल हो गई। आज यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरौस, रिलायंस इंटरनेटमेंट, एडलैब्स, वाइकॉम18, बालाजी टेलीफिल्म्स और यशराज फिल्म्स जैसे प्रोडक्शन हाउस ने फिल्मों का पूरा खेल बदल दिया है। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनजमेंट’ करते हैं। केबल व सेटेलाइट अधिकार, विदेश वितरण, संगीत, होम वीडियो और न्यू मीडिया जैसे मंचों के लिए अलग अधिकार बेचे जाते हैं और इनसे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है। आज मीडिया में प्रसारित होने वाले कुल कंटेंट का लगभग एक तिहाई बॉलीवुड से संबंधित है।
गौरतलब है कि अक्षय कुमार की तीस मार खां टिकट खिड़की पर बुरी तरह फ्लॉप हुई। लेकिन, एक अखबार को दिए इंटरव्यू में यूटीवी मोशन पिक्चर्स के सीईओ सिद्धार्थ राय कपूर ने कहा, “नुकसान? हमने फिल्म पर पैसा बनाया। दर्शकों की अपेक्षा पर खरा न उतरना या आलोचकों द्वारा खारिज कर देने का मतलब यह नहीं है कि हमने पैसा डुबोया।”
सितारा केंद्रित बॉलीवुड के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के आसरे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ने में बहुत हद तक सफलता हासिल कर ली है। आज महंगी फिल्में दो से तीन हजार प्रिंट्स के साथ रिलीज की जाती हैं,जो धुआंधार प्रचार के घोड़े पर सवार होकर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफे का किला फतह कर लेती है। चाहे वो दर्शकों की कसौटी पर खरी न उतरे। रॉ-वन इसका बेहतरीन उदाहरण है।
बॉक्सऑफिसइंडिया के मुताबिक भारतीय सिनेमा के इतिहास में 37 फिल्मों ने 100 करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया है ( मुद्रास्फीती के आकलन के बाद)। इनमें से अधिकांश 2006 के बाद प्रदर्शित हुईं। दिलचस्प है कि अब फिल्मकारों का नया लक्ष्य 300 करोड़ का है,क्योंकि 200 करोड़ का लक्ष्य भी कई निर्माता हासिल कर चुके हैं। बॉडीगार्ड ने 229 करोड़ का कारोबार किया है।
आज हर शुक्रवार को दो-तीन फिल्में रिलीज हो रही हैं, लिहाजा फिल्मों का भविष्य पहले तीन दिन में ही तय होने लगा है। मल्टीप्लेक्स ने फिल्म देखने के तौर-तरीके में बदलाव कर दिया। निश्चित रुप से मल्टीप्लेक्स की वजह से निर्माता-निर्देशक कम से कम अलग-अलग विषयों पर फिल्म बना पा रहे हैं लेकिन स्वतंत्र निर्माता-निर्देशकों के लिए यह उतना आसान भी नहीं। हाल में ‘लाइफ की तो लग गई’ फिल्म बना चुके निर्देशक राकेश मेहता कहते हैं,”मेरी सभी युवा निर्देशकों को एक राय है। वह यह कि वे बिना बड़े प्रोडक्शन हाऊस के बैकअप बगैर फिल्म न बनाएं।” उनकी बात में दम इसलिए दिखता है कि बड़े प्रोड्क्शन हाऊस के समर्थन से फिल्म को रणनीतिक प्रचार और प्रदर्शन मिलता है। फिर कंटेंट में दम हुआ तो फिल्म चल निकलती है। उदाहरण के लिए 3.5 करोड़ की लागत में बनी ‘ए वेडनसडे’ 11 करोड़ का कारोबार करती है और 6 करोड़ की लागत से बनी ‘पीपली लाइव’ करीब 30 करोड़ का।
भारत में 2002 से 2008 के बीच मल्टीप्लेक्स की संख्या में खासा इजाफा हुआ। इस दौरान बॉक्स ऑफिस रेवन्यू करीब तिगुना बढ़ा। इसमें से आधा राजस्व मल्टीप्लेक्स से आया। इन्हीं आंकड़ों के इर्दगिर्द यह भ्रम भी पैदा कर दिया गया कि मल्टीप्लेक्स ही बॉलीवुड को बचा सकते हैं और सिंगल स्क्रीन थिएटर की अब जरुरत नहीं है। हालांकि, इस बीच कुछ नए प्रयोग स्वतंत्र निर्माताओं को बॉलीवुड के तय अर्थशास्त्र को चुनौती देते दिखते हैं। मसलन राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी ‘आईएम’ के लिए निर्देशक ओनिर और निर्माता संजय सूरी ने फेसबुक से लागत का बड़ा हिस्सा जुटाया। एक जमाने में श्याम बेनेगल ने मंथन को सहकारिता के फॉर्मूले से बनाया था।
निश्चित तौर पर फिल्मों का अर्थशास्त्र व्यवहारिक रुप में बड़े प्रोडक्शन हाऊस के इर्दगिर्द सिमट गया है। आज वह तय करते हैं कि किसी फिल्म को कब रिलीज करना है या कब तक बनने के बाद डिब्बे में रखना है। स्वतंत्र निर्माताओं के लिए अपनी फिल्म रिलीज कराना लोहे के चने चबाना सरीखा है। सितारों की कीमतें आसमान छू रही हैं, क्योंकि साल में 300 से ज्यादा हिन्दी फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड के पास 30 बड़े नायक नहीं हैं। भारतीय दर्शकों के मन में सितारों की छवि कुछ कुछ ईश्वरीय है। नतीजा यशराज चोपड़ा जैसा निर्देशक एक था टाइगर के लिए कथित तौर पर सलमान खान को 32 करोड़ रुपए में साइन करता है। सितारों के नाम से फिल्म को बेचने में सहूलियत होती है और यह फंडा सितारे भी जानते हैं। यही वजह है कि शाहरुख-आमिर-सलमान-अक्षय-सैफ जैसे अधिकांश बड़े सितारे आज खुद निर्माता की भूमिका में हैं। वे जिन फिल्मों में काम करते हैं, उसके मुनाफे में हिस्सा चाहते हैं।
फिल्मों के कॉरपेरेटीकरण ने गाँव-कस्बों को फिल्म से दूर किया है। असल ‘भारत’ फिल्मों में नहीं दिख रहा-यह सच है। लेकिन, कुछ युवा फिल्मकारों ने कॉरपोरेट के खेल को समझते हुए ही अपने मनचाहे विषयों को दर्शकों तक पहुंचाने का रास्ता पाया है। तकनीक ने फिल्म निर्माण को आसान किया है तो कॉरपोरेट ने काला धन को दूर करने के साथ अनुशासन लाया है। आज फिल्म बाजार का एक सच यह भी है कि अगर फिल्मकार अच्छी कहानी के साथ कुछ चेहरे ‘मैनेज’ कर लेते हैं तो फिल्म बनाना और उसका प्रदर्शन तय हो जाता है।