आपको दस्तावेज चाहिये, हम तुरंत दे देगें। लेकिन हमारा नाम न आये इसलिये आप आरटीआई के तहत दस्तावेज मांगे। इसके लिये लिये तो नोटरी के पास जाना होगा। दस रुपये का पेपर लेना होगा। ना ना आप सिर्फ दस रुपये ही नत्थी कर दीजिये और दस्तावेज भी आपको हम हाथों हाथ दे देते हैं। आपको महीने भर इंतजार भी नहीं करायेंगें। आप खबर दिखायेंगे तो गरीबों का भला होगा। और सादे कागज पर आरटीआई की अर्जी के साथ दस रुपये नत्थी कर देने के बाद जैसे ही बाबू खबर से जुड़े दस्तावेज रिपोर्टर के हाथ में देता है वैसे ही कहता है, खबर दिखा जरुर दीजिएगा।। मंत्री महोदय से कोई समझौता ना कर लीजियेगा या डर ना जाइयेगा।
यह संवाद दिल्ली-यूपी के सरकारी दफ्तर के बाबू और पत्रकार के हैं। तो सत्ता को लेकर टूटते भरोसे में तमाशे में तब्दील होती पत्रकारिता में भी सरकारी दफ्तरों के बाबूओं में भी आस हैं कि अगर पत्रकार खड़ा हो गया तो गरीब और हाशिये पर पड़े लोगों को न्याय मिल सकता है या फिर भ्रष्ट मंत्री की भ्रष्ट तानाशाही पर रोक लग सकती है। और यह स्थिति दिल्ली से लेकर देश के किसी भी राज्य में है। जैसे ही किसी राजनेता या सत्ताधारी के खिलाफ दस्तावेज बंटोरने के लिये कोई रिपोर्टर सरकारी दफ्तरों में बाबुओं से टकराता है तो कमोवेश यही स्थिति हर जगह आती है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के जाकिर हुसैन ट्रस्ट की कारगुजारियों को लेकर भी कुछ इसी तरह रिपोर्टर को दस्तावेज मिलते चले गये। तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया की साख अब भी बरकरार है। या फिर ढहते सस्थानों के बीच सिर्फ मीडिया को लेकर ही आम लोगों में आस है कि वहां से न्याय मिल सकता है।
जाहिर है ऐसे में चार सवाल सीधे खड़े होते हैं। पहला कोई भी पत्रकार किसी भी सत्ताधारी के खिलाफ कैसे रिपोर्ट बनायेगा, जब धमकी अदालत की होगी। दूसरा कोई भी मीडिया हाउस अपने पत्रकारों को किसी भी मंत्री के खिलाफ तथ्यों को जुगाड़ने और दिखाने की जहमत क्यों उठायेगा, जब उसे यह अनकही धमकी मिलेगी कि अदालत के चक्कर उसे भी लगाने होंगे। तीसरा पत्रकारिता का स्तर खोजी रिपोर्ट के जरीये सिर्फ छोटे स्तर के भ्रष्टाचार को ही दिखा कर ताली पिटने वाला नहीं हो जायेगा। मसलन हवलदार या बीडीओ या जिला स्तर के बाबुओं या छोटी फर्जी चिट-फंड कंपनियों के गड़बड़झाले के खिलाफ रिपोर्टिंग हो नहीं पायेगी। और चौथा समूची पत्रकारिता सत्ता को बनाये या टिकाये रखने के लिये होगी और मीडिया हाउस की भूमिका भी सत्तानुकुल होकर सरकार से मान्यता पाने के अलावा कुछ होगी नहीं। यानी पत्रकारिता के नये नियम खोजी पत्रकारिता को सौदेबाजी में बदल देंगे। यह खतरे पत्रकारिता को कुंद करेंगे या फिर मौजूदा व्यवस्था में यही पत्रकारिता धारधार मानी जायेगी। यह दोनों सवाल इसलिये मौजूं है क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र के नाम पर आर्थिक सत्ता मजबूत हुई है और जिस तरह मुनाफा लोकतंत्र का नियामक बन रहा है, उसमें मीडिया हाउसो के लिये साख की पत्रकारिता से ज्यादा मुनाफे की पत्रकारिता ही मायने रख रही है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि मुनाफा साख के आधार पर नहीं बल्कि बाजार के नियमों के साथ साथ सरकार या सत्ता की मदद से ज्यादा तेजी से बनाया जा सकता है, यह बीते ढाई बरस में हर घोटाले के बाद सामने आया है। संयोग से इसी कड़ी में मीडिया को लेकर भी सरकार ने जो भी निर्णय लिये हैं, वह भी कहीं न कहीं पत्रकारिता को सफल धंधे की नींव पर ही खड़ा कर रहे हैं। न्यूज प्रिंट को खुले बाजार के हवाले करने से लकेर विदेशी पूंजी को मीडिया के लिये खोलने के सिलसिले को समझें तो एक ही लकीर सीधी दिखायी देती है कि कोई भी समाचार पत्र या न्यूज चैनल जितनी पूंजी लगायेगा, उससे ज्यादा कमाने के रास्ते उसी तलाशने होंगे। नहीं तो उसकी मौत निश्चित है। यानी आर्थिक सुधार या खुले बाजार ने मीडिया को उस आम आदमी या बहुसख्यक तबके से अलग कर दिया जिसके लिये बाजार नहीं है। तो क्या पत्रकारिता के नये नियम भी उपभोक्ताओ पर टिके हैं। यकीनन यही वह सवाल है जो चुनाव में जीतने के बाद मंत्री बने राजनेता या सरकार चलाने वाली राजनीतिक पार्टी के कामकाज के तौर तरीके से सामने आ रहा है। और मीडिया को भी उस सरोकार से दूर कर उसके लिये पत्रकारिता की जो जमीन राज्य के आर्थिक नियम बना रहे हैं, उसे ही लोकतंत्र का राष्ट्रीय राग मान लिया गया है। जाहिर है ऐसे में प्रेस काउंसिल से लेकर एडिटर्स गिल्ड या फिर राष्ट्रीय ब्राडकास्टिग एसोशियशन [एनबीए ] से लेकर ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोशियशन [बीईए] के तौर तरीकों को समझे तो यह भी उस वातावरण से दूर है जो आर्थिक सुधार के बाद सूचना तकनीक के बढते कैनवास के साथ साथ देश के सामाजिक, आर्थिक या सास्कृतिक पहलु हैं। यानी देश के अस्सी फीसद लोग जिस वातारण को जी रहे हैं, अगर उनके अनुकुल सरकार के पास सिवाय राजनीतिक पैकेज के अलावे कुछ नहीं है और उन्हीं के वोट से बनी सरकार की प्राथमिकता अगर पन्द्रह फीसद उपभोक्ताओं को लेकर है तो फिर असमानता की इस कहानी को बताना विकास में सेंध लगाना माना जाये या फिर देश को समान विकास की सोच की तरफ ले जाना।
अगर ध्यान दें तो असमानता का यही वातावरण मीडिया को भी बहुसंख्यक तबके से अलग कर ना सिर्फ खड़ा कर रहा है बल्कि उसे लोकतंत्र के पहुरुये के तौर पर सरकार ही मान्यता भी दे रही है। यानी आजादी के बाद पहले प्रेस आयोग से लेकर इमरजेन्सी के दौर में दूसरे प्रेस आयोग के जरीये मीडिया को लेकर जो बहस समूचे देश को ध्यान में रखकर हो रही थी वह आर्थिक सुधार के दौर में गायब है। बाजार व्यवस्था में तीसरे प्रेस आयोग की जरुरत समझी ही नहीं जा रही है। और मीडिया को भी उन्हीं सस्थानों से हांकने की तैयारी हो चली है जो सत्ता के साथ सहमति के बोल बोल कर मौजूदा दौर में मान्यता पा रहे हैं। जाहिर है नये खांचे में संविधान को देखने का नजरिया भी बदला है और लोकतंत्र के लिये चैक एंड बैलेस की सोच भी। अब ऐसा वातावरण तैयार किया गया है जिसमें कार्यपालिका के नजरिये से विधायिका भी चले और न्यायपालिका भी। और चौथा स्तम्भ भी इसी कार्यपालिका को टिकाये रखने को ही लोकतंत्र मान ले। चाहे इन सबके बीच समाज के भीतर सरकारी दफ्तर का बाबू यह कहकर कार्यपालिका के खिलाफ चौथे खम्भे को दस्तावेज दे दें कि अब तो न्याय होगा। और जनता की साख पर होने वाला न्याय का सवाल भी मंत्री की धमकी पर अदालत के कठघरे में चला जाये। और पत्रकार सोचता रहे कि अब वह क्या करे।
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