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और अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी हुआ हिंदू व मुसलमान

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वैसे तो देशहित या समाज कल्याण से जुड़े आंदोलनों या इनसे संबंधित मुद्दों को सांप्रदायिकता अथवा धर्म-जाति के रंगों में नहीं रंगा जा सकता। परंतु जब कभी इस प्रकार के ज्वलंत मुद्दे पर देश की कोई जि़म्‍मेदार प्रसिद्धि प्राप्त धार्मिक शख्‍िसयत अपने विवादित वक्तव्यों के साथ स्वयंभू रूप से कूद पड़े तो फिर इसे लेकर बहस छिडऩा तो आवश्यक ही है। इसमें आखिर क्या दो राय हो सकती हैं कि देश का साधारण आम जन इस समय भ्रष्टाचार तथा शासन व प्रशासन की व्यवस्थागत् खामियों के चलते त्राहि-त्राहि कर रहा है। यह केवल भ्रष्टाचार की ही देन है कि 64 वर्षों की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अभी तक देश का धनवान व्यक्ति जहां और अधिक धनवान बनता जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर गरीब व्यक्ति अपनी गरीबी जैसी पारिवारिक विरासत को बदस्तूर ढोता आ रहा है। बल्कि देश में गरीबी व गरीब दोनों में इज़ाफा ही होता जा रहा है। निश्चित रूप से यह त्रासदी केवल भ्रष्टाचार से आकंठ डूबी व्यवस्था तथा राजनैतिक व प्रशासनिक ढांचे में मौजूद त्रुटियों का ही परिणाम है। अब इस बदइंतज़ामी तथा भ्रष्टाचार से देश का हर नागरिक प्रभावित हो रहा है चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या किसी अन्य धर्म या जाति से संबंधित कोई व्यक्ति।

दिल्ली के रामलीला मैदान में समाजसेवी तथा गांधीवादी नेता अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चलाया जा रहा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन निश्चित रूप से भारत के इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन है। देश की असंगठित जनता का भ्रष्‍टाचार के मुद्दे पर इस प्रकार संगठित होकर पूरे देश के प्रत्येक जि़ले व शहरों में सड़कों पर उतरना तथा अनशन, प्रदर्शन तथा धरने जैसी विरोध प्रकट करने की शांतीपूर्ण शैली में अपना विरोध दर्ज करना वास्तव में न सिर्फ काबिल-ए-तारीफ है बल्कि जनता का जोश व उत्साह यह भी प्रमाणित कर रहा है कि इस समय पूरा देश रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सफेदपोश भक्षकों द्वारा 64 सालों से की जाने वाली लूट-खसोट, रिश्वत ख़ोरी तथा भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं और बेहद आक्रोशित हैं। रामलीला मैदान इन दिनों राष्ट्र की धार्मिक व जातीय सीमाओं से दूर जाकर देशवासियों को एक संगठित भारतीय राष्ट्रवादी नागरिक के रूप में जोडने की कोशिश कर रहा है। अन्ना हज़ारे का आमरण अनशन जिस दौरान चल रहा है उसी दौरान इत्तेफाक से मुसलमानों का पवित्र रमज़ान का महीना भी जारी है।

धर्मावलंबी मुसलमान इस दौरान रोज़े (व्रत) रख रहे हैं। रामलीला मैदान के इर्द-गिर्द मुसलमानों की घनी आबादी है। पूरे देश के लोगों की तरह मुस्लिम समुदाय के सभी वर्गों का समर्थन भी अन्ना हज़ारे को मिल रहा है। सर्वधर्म समभाव व सांप्रदायिक सौहाद्र्र की इससे बड़ी मिसाल बिना किसी राजनैतिक स्वार्थ या बिना ढोंग-ढकोसले के और क्या देखी जा सकती है कि मुस्लिम समुदाय के लोग जहां व्रत अथवा रोज़ा रखकर अन्ना हज़ारे के समर्थन में रामलीला मैदान में डटे रहते हैं वहीं सूर्यास्त से पूर्व अन्ना हज़ारे के कार्यकर्ता तथा रामलीला मैदान में जुटे स्वयंसेवी अपनी ओर से उन्हीं रोज़दार मुसलमानों के लिए इफ्तारी अथवा उनके रोज़ा खुलवाने का प्रबंध कर रहे हैं। गोया कहा जा सकता है कि अन्ना हज़ारे का आंदोलन यहां भ्रष्टाचार के विरोध में देश को एकजुट कर पाने में भी सफल हो रहा है वहीं इस आंदोलन के चलते देश में सांप्रदायिक सौहाद्र्र को भी मज़बूती मिल रही है।

अब ऐसे में यदि दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी की ओर से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मुद्दे पर कोई सांप्रदायिकतापूर्ण विवादित बयान दे दिया जाए तो इसे मौलाना बुख्रारी की बुद्धिमानी कैसे कहा जा सकता है? मौलाना बुखारी को 64 सालों के इस वर्तमान भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध आम लोगों की एकजुटता अथवा जागरुकता कतई नज़र नहीं आई। उन्होंने यह कतई नहीं सोचा कि यदि देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगता है तो इससे पूरे देश में खुशहाली आ सकती है। केवल हिंदू ही नहीं बल्कि आर्थिक रूप से पिछड़ा समझे जाने वाला मुस्लिम समाज भी ऊपर उठ सकता है। बुखारी साहब को रामलीला मैदान के इस आंदोलन में केवल भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे वह नारे ही सुनाई दिए जिसे वे प्राय: इस्लाम विरोधी नारे बताया करते हैं। बुखारी ने बाकायदा मुसलमानों से अपील कर उन्हें रामलीला मैदान में जाने से व अन्ना के आंदोलन को अपना समर्थन देने से केवल इसलिए मना किया है क्योंकि वहां 'भारत माता की जय' व 'वंदे मातरम्' के नारे लगाए जा रहे हैं और इस प्रकार के नारे मौलाना बुखारी के अनुसार गैर इस्लामी हैं। उनका कहना है कि इस्लाम किसी देश या भूमि की पूजा अथवा वंदना करने की इजाज़त नहीं देता।

सवाल यह है कि मौलाना बुखारी का इस समय इस प्रकार का रटा-रटाया विवादित बयान देना क्या ज़रूरी था? या उनका यह बयान महज़ उनकी उस चिरपरिचित शैली का परिणाम था जिससे कि वे हमेशा ही अपने विवादित वक्तव्यों के द्वारा सुिर्खयों में बने रहना चाहते हैं? यहां यह भी गौरतलब है कि बुख़ारी के उपरोक्त वक्तव्य की आलोचना देश के किसी गैर मुस्लिम संगठन ने तो िफलहाल नहीं की, हां मुस्लिम समुदाय में ही राष्ट्रीय स्तर पर बुख़ारी द्वारा दिए गए बेवक्त व बेमतलब के इस बयान की तमाम संगठनों व धर्मगुरुओं द्वारा व्यापक आलोचना ज़रूर की जा रही है। यह भी अजब इत्तेफाक है कि मौलाना बुख़ारी जोकि स्वयं बरेलवी मुस्लिम वर्ग से संबद्ध है यह बरेलवी वर्ग आमतौर पर उदारवादी व प्रगतिशील विचारधारा रखने वाले मुसलमानों का फिरका माना जाता है। जबकि इसके विपरीत जमात-ए-इस्लामी तथा दारुल-उलूम देवबंद को रूढ़ीवादी व अतिवादी विचारधारा रखने वाले मुसलमानों की नज़रों से देखा जाता है। ऐसे में वंदे मातरम अथवा भारत माता की जय को लेकर अन्ना हज़ारे के आंदोलन को समर्थन देने या न देने को लेकर किसी प्रकार का इस्लामी निर्देश यदि जमात-ए-इस्लामी अथवा दारुल-उलूम देवबंद से जारी होता तो शायद इतना आश्चर्य न होता। परंतु यहां तो उल्टा ही नज़ारा देखने को मिल रहा है। बुख़़ारी जहां एक ओर मुसलमानों से अन्ना के आंदोलन में शरीक न होने की अपील कर रहे हैं वहीं दारुल-उलूम देवबंद तथा जमात-ए-इस्लामी-ए-हिंद जैसे संस्थान व संगठन अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। यह संस्थाएं मौलाना बुखारी के आह्वान को सिरे से खारिज कर रही हैं। दारुल-उलूम देवबंद के कुलपति मु ती अबुल कासिम नोमानी ने साफतौर पर यह घोषणा की है कि हालांकि एक शिक्षण संस्थान होने के नाते हमारे छात्र अन्ना के साथ सड़कों पर तो नहीं उतर सकते न ही सरकार का इस प्रकार विरोध कर सकते हैं परंतु देवबंद अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ है तथा उनका यह मुद्दा बिल्कुल वाजिब है। नोमानी ने कहा कि दारुल-उलूम अन्ना के साथ हैं तथा चाहता है कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए स त काननू बने तथा भ्रष्टाचार से दु:खी देश की जनता को राहत मिले।

बुख़ारी के बेवक्त दिए गए विवादित बयान से केवल देवबंदी समुदाय ही अपनी असहमति नहीं जता रहा है बल्कि स्वयं बु ़ाारी के ही बरेलवी वर्ग से जुड़े दिल्ली के एक-दूसरे शाही इमाम अर्थात् दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मु ती मोह मद अकरम ने भी बुखारी के उक्त बयान से असहमति जताई  है तथा देश के मुसलमानों से अन्ना हज़ारे के आंदोलन में शरीक होने की अपील की है। मु ती मोह मद अकरम का कहना है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को इस्लामी या गैर इस्लामी आंदोलन नहीं कहा जा सकता। बल्कि यह देश में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम लोगों का गुस्सा है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूरे देश से जुड़ा एक मुद्दा है और मुसलमान इस देश का एक हिस्सा हैं। लिहाज़ा भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन में देश के मुसलमानों को बढ़-चढ़ कर शरीक होना चाहिए। इसी प्रकार ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी बुख़ारी के विवादित बयान की कड़ी आलोचना की है तथा उनके बयान को अनुचित तथा असमंजस की स्थिति पैदा करने वाला असामयिक बयान बताया है।

बहरहाल, चूंकि यह बहस जामा मस्जिद के शाही इमाम द्वारा दिए गए विवादित बयान को लेकर छिड़ी है इसलिए मौलाना बुख़ारी को कुछ वास्तविक तथ्य याद दिलाने भी ज़रूरी हो जाते हैं। बुख़ारी के वंदे मातरम व भारत माता की जय बोलने पर एतराज़ जताने वाले बयान से साफ ज़ाहिर होता है कि उनका इशारा सांप्रदयिक शक्तियों के साथ न खड़े होने की ओर है। बेशक इस देश का बहुसंख्‍य नागरिक सह अस्तित्व के वातावरण में रहना पसंद करता है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 64 वर्षों के स्वतंत्र भारत के इतिहास में चुनी जाने वाली देश की धर्मनिरपेक्ष संसद भी इस बात की गवाह है। परंतु आज पुन: बेवक्त सांप्रदायिक शक्तियों का हौव्वा खड़ा करने वाले बुखारी साहब क्या यह बताने की ज़हमत गवारा करेंगे कि 1977 में जब यही सांप्रदायिक शक्तियां जनता पार्टी का रूप धारण कर देश मे पहली बार सत्ता में आना चाह रही थीं उस समय आपके पिताश्री अर्थात् तत्कालीन शाही इमाम मौलाना सैय्यद अबदुल्ला बुखारी ने इन सांप्रदायिक शक्तियों को मज़बूती प्रदान करने में जनता पार्टी के साथ खड़े होकर अपनी अहम भूमिका निभाई थी या नहीं? उसके पश्चात 1987 में जब वीपी सिंह ने कांग्रेस के विरुद्ध बगावत की थी  तथा कांग्रेस को अस्थिर करने के उद्देश्य से उस समय भी इन सांप्रदायिक ताकतों ने वी पी सिंह का साथ दिया था तथा अपने समर्थन से वी पी सिंह की सरकार तक बना दी थी, उस राजनैतिक घटनाक्रम में भी बुख़ारी साहब इसी कथित सांप्रदायिक जुंडली के साथ खड़े थे या नहीं? कितना बेहतर हो यदि धर्मगुरु अपने राजनैतिक विद्वेषपूर्ण व विवादित बयानों को जारी करने से बाज़ आकर अपने धार्मिक कार्यकलापों में ही स्वयं को व्यस्त रखें तथा समय-समय पर होने वाली अपनी आलोचनाओं से बचें।

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