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यथार्थ के आईने में भ्रष्टाचार उन्मूलन

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स्वतंत्रता दिवस अर्थात् 15 अगस्त का दिन पूरे भारतवासियों के लिए अत्यंत खुशी व स्वाभिमान का दिन माना जाता है। परंतु इस वर्ष का स्वतंत्रता दिवस जहां देशवासियों को स्वतंत्रता की याद दिला रहा था वहीं इस वर्ष का यह दिन भ्रष्टाचार के प्रबल विरोध की ज़ोरदार यादें भी अपने पीछे छोड़ गया। एक ओर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लाल किले की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस अवसर पर दिए जाने वाले भाषण की फजऱ् अदायगी कर रहे थे तो दूसरी ओर समाजसेवी बुज़ुर्ग नेता अन्ना हज़ारे देशवासियों से देश की दूसरी आज़ादी अर्थात् भ्रष्टाचार के विरुद्ध अहिंसक जंग छेडऩे का आह्वान कर रहे थे। प्रकृति ने भी इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस उत्सव के रंग में भंग घोल कर रख दिया था। क्योंकि इत्तेफाक से लाल किले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भाषण  शुरु होने से पूर्व ही दिल्ली में तेज़ बारिश होने लगी थी। और यह बारिश प्रधानमंत्री के भाषण के अंत तक चलती रही। गोया स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आमतौर पर देखा जाने वाला दर्शकों का उत्साह भी फीका पड़ गया था।
 
बहरहाल इसी स्वतंत्रता दिवस पर जहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोर्चा खोलने वाले समाजसेवी अन्ना हज़ारे को यह सलाह दे रहे थे कि वे अनशन व भूख हड़ताल आदि का सहारा न लें क्योंकि लोकपाल विधेयक सदन में पेश किया जा चुका है तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री के इस भाषण के कुछ ही घंटों के बाद अन्ना हज़ारे बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर चिंतन व ध्यान करने जा पहुंचे। शायद उन्हें प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह एहसास हो गया था कि 16 अगस्त को उनका अनशन शुरु होने से पूर्व उन्हें किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता है। वे राजघाट जाकर काफी देर तक एकांत में देश की वर्तमान दयनीय स्थिति विशेषकर आज़ादी से लेकर अब तक भ्रष्टाचार में निरंतर होती जा रही वृद्धि व उसके निवारण के विषय में सोचते व दु:खी होते रहे। केंद्र सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद अन्ना हज़ारे अपना अनशन स्थगित करने पर राज़ी नहीं हुए। और अंतत: उन्हें उनके प्रमुख भ्रष्टाचार विरोधी सहयोगियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। अन्ना व उनके साथियों की गिरफ्तारी के बाद देश में इस बहस ने ज़ोर पकड़ लिया है कि क्या सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों को इसी प्रकार दबा देना चाहती है? और यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या किसी भी व्यक्ति को सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए इसी प्रकार आमरण अनशन का सहारा लेना उचित है?

अन्ना को मिलने वाले इस जनसमथर्न को देखकर तो एक बार यही महसूस होता है कि जैसे पूरा ही देश तथा समस्त भारतीय नागरिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध हो तथा पूरा देश भ्रष्टाचार से ऊब चुका हो। वर्तमान केंद्र सरकार तथा अन्ना हज़ारे एंड कंपनी के मध्य चल रही तनातनी, वाकयुद्ध तथा इससे पूर्व बाबा रामदेव द्वारा रामलीला ग्राऊंड पर की गई 'रामदेव लीला' तथा उसे कुचलने की कोशिशों को देखकर भी एक बार तो यही एहसास होता है कि गोया यही लोग अथवा कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के शब्दों में इस प्रकार के देश के कुछ 'विचित्र प्राणी' ही देश में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े विरोधी हैं? और यदि यह मान लें कि भ्रष्टाचार विरोधी इनकी मुहिम में पूरा देश इनके साथ है तो फिर प्रश्र यह है कि भ्रष्टाचार में संलिप्त कौन है तथा भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा कौन देता है? अन्ना हज़ारे की बात शत-प्रतिशत सही है कि देश का आम आदमी विशेषकर गरीब आदमी भ्रष्टाचार से बेहद दु:खी है। वह बिना रिश्वत दिए हुए तकऱीबन किसी भी सरकारी दफ्तर का अपना कोई भी काम नहीं करवा सकता। और यदि कोई व्यक्ति रिश्वत नहीं देता तो वह अपने काम की लाईन में पीछे खिसक जाता है जबकि हाथ में पैसे लेकर खड़ा होने वाला व्यक्ति उसी पंक्ति में आगे का स्थान पा जाता है और अपना काम करा ले जाता है। अब इस प्रकरण में तीन देशवासी अथवा आम भारतीय नागरिक शामिल दिखाई देते हैं। एक वह जिसने पैसे लेकर व्यक्ति का काम किया, दूसरा वह व्यक्ति जिसने अपना समय बचाने या फालतू की हुज्जत बाजि़यों से बचने के लिए रिश्वत देकर फौरन अपना काम कराया और तीसरा वह ईमानदार व्यक्ति जो कि रिश्वत नहीं देना चाहता या देने की हैसियत नहीं रखता है। अब यहां साफतौर पर यह देखा जा सकता है कि उपरोक्त तीन में से दो व्यक्तियों के हाथ भ्रष्टाचार से रंगे हुए हैं। अब ऐसे में एक अकेला व्यक्ति आखिर कर ही क्या सकता है? सिवाए इसके कि या तो वह अपना काम कराए बिना अपने घर वापस लौट जाए या फिर वह भी 'भ्रष्टाचार की मुख्‍यधारा' में शामिल हो जाए और रिश्वत देकर समयपूर्व अपना काम पूरा कराए।
 

निश्चित रूप से देश का आम आदमी आज न सिर्फ भ्रष्टाचार से दु:खी है बल्कि भ्रष्टाचार में आंकठ डूबी वर्तमान व्यवस्था से भी परेशान है। परंतु इन्हीं अन्ना हज़ारे व बाबा रामदेव के सर्मथकों से तथा इनके साथ खड़ी भीड़ से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि जिस व्यवस्था तथा जिन जन-प्रतिनिधियों के विरुद्ध आज यह लोग अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं आखिर विगत 64 सालों तक देश को लूटने, बेचने अपने परिवार के सदस्यों को जनता की छाती पर जबरन बिठाने का सामर्थ्‍य इनमें आखिर कहां से आया? क्या हमारे देश के नागरिकों ने स्वयं इन्हें इस योग्य नहीं बनाया कि वे जो चाहें आंख बंद कर करें। और यदि यही आम जनता इसके लिए स्वयं को जि़म्‍मेदार नहीं मानती तो उसे यह भी बताना होगा कि मतदाताओं द्वारा किसी एक भ्रष्ट या अपराधी व्यक्ति को चुनाव में बार-बार निर्वाचित किए जाने की वजह क्या है? पूरा देश भली भांति जानता है कि हमारे देश में चुनाव कैसे होते हैं और चुनाव जीतने के लिए किस प्रकार की योग्यता तथा किन-किन साधनों की दरकार होती है। चुनाव आयोग की लाख कोशिशों के बावजूद चुनाव में होने वाला भ्रष्टाचार अर्थात राजनैतिक दलों व प्रत्याशियों द्वारा पिछले दरवाज़े से पैसे लेना तथा मतदाताओं को धन, बल व लालच से प्रभावित करने आदि को नियंत्रित कर पाना शायद फिलहाल संभव नहीं है। जहां अन्ना हज़ारे के साथ अच्छी खासी तादाद ऐसी है जो भ्रष्टाचार से त्राहि-त्राहि कर रही है वहीं इस देश में तमाम गरीब अनपढ़ व बुद्धिहीन मतदाता ऐसे भी हैं जो केवल शराब पीने पिलाने की शर्त पर ही किसी भी व्यक्ति को अपना बहुमूल्य वोट दे आते हैं।

हमारे देश की ही यह त्रासदी भी है कि धर्म व जाति के आधार पर ही केवल अनपढ़ ही नहीं बल्कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी अपने जनप्रतिनिधि को निर्वाचित करता है। चाहे वह स्वधर्मी या स्वजातीय व्यक्ति कितना ही बड़ा भ्रष्टाचारी अथवा अपराधी अथवा निकम्‍मा नाकारा क्यों न हो। जब मतदाता मतदान के समय अपनी आंखों पर धर्म या जाति का चश्मा लगाकर अपने प्रतिनिधि का चुनाव करता है उस समय उसे इस बात का कतई एहसास नहीं होता कि यह स्वधर्मी या स्वजातीय व्यक्ति निर्वाचित होने के बाद केवल भ्रष्टाचार में ही संलिप्त नहीं होगा बल्कि उनके अपने जाति व धर्म को भी अपने काले कारनामों से कलंकित करेगा। उच्च स्तर पर राजनेता, अधिकारी, अपराधी तथा सरकारी कर्मचारियों व ठेके दारों के बीच की सांठ गांठ तो गत् 6 दशकों से चली आ रही है तथा दिन प्रतिदिन इसमें और मज़बूती आती जा रही है। इस बढ़ते नेटवर्क से टकराकर देश के तमाम ईमानदार अधिकारी, कार्यकर्ता तथा वास्तविक देशभक्त लोग अपनी जानें गंवा चुके हैं।
 
भ्रष्टाचार का भूत तो अब इतना विराट रूप धारण कर चुका है कि मधुकौड़ा, अशोक चव्हाण तथा युदियुरप्पा जैसे मुख्‍यमंत्री के पदों पर बैठने वाले लोग देश की राजनीति पर कलंक साबित होने लगे हैं। कर्नाट्क में भू माफिया का राजनीति पर कितना ज़बरदस्त वर्चस्व है यह भी पूरा देश देख रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही वर्तमान यूपीए गठबंधन सरकार के शासनकाल में भ्रष्टाचार के साथ-साथ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम भी अपने चरम पर है। इसी दौरान देश के कुछ इतने बड़े घोटाले उजागर हुए हैं जैसे कि पहले कभी नहीं हुए। विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुलकर बोलने की स्थिति में इसलिए नहीं है क्योंकि उसके अपने मुख्‍यमंत्री येदियुरप्पा न केवल भ्रष्टाचार में लिप्त हैं बल्कि पूरी की पूरी भारतीय जनता पार्टी हाईकमान को आर्थिक मदद पहुंचाने वाले रेड्डी बंधु भी देश के सबसे बड़े भू माफिया उन्हीं के समर्थक हैं। भाजपा के पिछले दिनों येदियुरप्पा को मुख्‍यमंत्री पद से हटाए जाने तथा रेड्डी बंधुओं को कर्नाटक के नए मंत्रिमंडल में फिलहाल शामिल न करने से इस बात का सुबूत नहीं मिल जाता कि भाजपा अब भ्रष्टाचारी नहीं बल्कि पुन: 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पार्टी' बन चुकी है।

कुल मिलाकर देश बहुत ही खतरनाक दौर से गुज़र रहा है। देशभक्ति, नैतिकता, मानवता, मान-सम्‍मान स्वाभिमान, इज़्ज़त आबरु जैसे बातें तो शायद अब किताबों के पन्नों तक ही सीमित रह गई है। अब तो ऐसा लगता है कि पैसा सबसे महान हो गया है और चारों ओर पैसे की ही पूजा होने लगी है। अब चाहे इस पैसे को हासिल करने के लिए किसी को भ्रष्टाचार करना पड़े, लूट-खसोट, अनैतिकता, चोरी-डकैती, कत्ल आदि कुछ भी करना पड़े उसे सिर्फ और सिर्फ पैसा चाहिए। ऐसे में यह प्रश्र अपनी जगह पर वाजिब है कि आखिर यथार्थ के इस आईने में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए छिड़ी इस राष्ट्रव्यापी मुहिम का क्या होगा?

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